स्त्री को पुरुष समाज कितना भी कमज़ोर समझे, लेकिन वह कमज़ोर नहीं है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कहानियों में ऐसी ही अदम्य साहस से परिपूर्ण स्त्रियों का चित्रण ‘अम्मा’, ‘ख़ानाबदोश’ और ‘जिनावर’ आदि कई कहानियों में किया है।
डॉ. नीलम
स्त्री चाहे दलित हो या सवर्ण, हमारा पुरुष समाज उसे मांस के लोथड़े के सिवाय तथा बच्चे जनने और उसके शरीर की भूख मिटाने के अलावा और कुछ नहीं समझता। सदियों से लेकर आज तक स्त्री केवल उसकी भूख को मिटाने का साधन मात्र रही है। अगर उसने जरा भी पुरुष सत्ता के खिलाफ आवाज उठाई तो उसे नेस्तनाबूद कर दो ताकि वह पूरी जिंदगी खौफ के आगोश से बाहर न आ सके। स्त्री का शोषण सिलसिलेवार ढंग से हर जगह होता है। पुरुष मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति न घर देखता है न बाहर उसे स्त्री मात्र मांस की पिण्डलियों के सिवाय कुछ नजर नहीं आती। स्त्रियां घर और बाहर दोनों जगह शोषण का शिकार होती हैं। अगर सर्वे करके देखा जाए तो घर स्त्रियों के शोषण का सबसे बड़ा अड्डा है। घर में हो रहे स्त्री के शोषण को बारीकी से उठाते ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कहानी में यह दर्शाते हैं कि स्त्री का शोषण बाहर ही नहीं होता बल्कि घर के अंदर उसका शोषण सबसे ज्यादा होता है। वह अपने ही घर में अपनी अस्मत को बचाने के लिए विभिन्न प्रयास करती है, ‘जिनावर’ कहानी में स्त्री के इसी शोषण का चित्रण कहानीकार ने पूरी शिद्दत के साथ उठाया है जैसा कि शीर्षक ‘जिनावर’ से ही पता चलता है कि हमारे समाज का पुरुष किस तरह का है वह मौका मिलने पर किस प्रकार से औरतों की इज्जत के चीथड़े करने में जरा भी संकोच नहीं करता, उसके लिए औरत ना तो बहू है और ना ही बेटी, वह सिर्फ औरत है जो उसके शरीर की भूख को शांत करती है और अगर उसने मना कर दिया तो घर निकाला भी दे दिया जाएगा। बहू के माध्यम से लेखक ने स्त्री शोषण के इस घिनौने रूप को बहुत शिद्दत से उठाते हुए कहा है, “चौधरी…….मेरा ससुर ….ससुर नहीं खसम बनना चाहता था मेरा …..मैंने विरोध करा तो मुझे मारा पीटा गया। तरह-तरह से जुल्म किए…. फिर भी मैंने हार नहीं मानी तो निकाल बाहर किया। तुझे हुकुम दिया… जा छोड़ आ इसे….”(जिनावर – ओमप्रकाश वाल्मीकि)
ससुराल हो या मायका, पुरुष सत्तात्मक समाज हमेशा औरत को निगलना चाहता है। हमारी मानसिकता होती है कि हम अपने बाप के घर में सुरक्षित हैं, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि लड़की के घर में ही उसका शोषण सबसे ज्यादा होता है, बाहर की तो बात ही छोड़ दीजिए। रिश्तो के नाम पर उसकी अस्मत लूटने का प्रयास किया जाता है। चाचा, मामा, ताऊ या अन्य कोई भी रिश्तेदार हो, पुरुष नामक जानवर जवान स्त्री का शरीर देखते ही अपनी मान मर्यादा खो बैठता है और रिश्तो को तार-तार करने में जरा भी संकोच नहीं करता, चाहे वह अबोध बच्ची ही क्यों ना हो। इसी घिनौनी और बिदबिदाती रिश्तों की सच्चाई का पर्दाफाश किया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी की एक पात्र कहती है, “कहां हो के आणे की बात कर रहा है… मायके…. मायका जो होता तो आज मेरी यह यह दुर्गति होती…. मायका अंधा कुआं है मेरे लिए… जिसमें मैं जाना नहीं चाहती…. मायके के दरवाजे तो पहले ही मेरे लिए बंद हो चुके हैं।”(जिनावर- ओमप्रकाश वाल्मीकि)
बाल शोषण की सच्चाई का खुलासा करते हुए लेखक बहू के माध्यम से उन सारी स्त्रियों के दर्द का बयान करता हैं जो अपने ही रिश्तों द्वारा बचपन से ही यौन शोषण का दर्द झेलती हैं और उनकी अपनी मां भी सहारा ना छिन जाए, इसके डर से अपनी ही बेटी का साथ नहीं देती आदि सच्चाई का खुलासा लेखक करते हुए कहता है, “मेरा बाप कब मरा मैं नहीं जानती मामा के घर में ही होश संभाला…. मामी को गुजरे भी कई बरस हो गए थे। घर में सिर्फ तीन जन थे। मैं, मां और मामा। दस साल की भी नहीं थी कि मामा ने इस अबोध शरीर को बर्बाद कर दिया था। बहुत रोई चिल्लाई थी, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था…. मां ने भी मुझे ही समझाने की कोशिश की थी। बेबसी ने मां को डरपोक बना दिया था। मामा का आसरा छिन जाने का डर था मां जरूर चुप थी, लेकिन मैं चुप ना थी।” (जिनावर- ओमप्रकाश वाल्मीकि)
स्त्री को पुरुष समाज कितना भी कमजोर समझे, लेकिन वह कमजोर नहीं है। अगर वह अपने पर आ जाए तो उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता, जरूरत है उसको अपने अंदर की सोई हुई चेतना को जगाने की। अगर उसके अंदर ये चेतना आ गई तो वह अपने शोषण के खिलाफ आवाज उठा सकती है। पुरुष समाज को मुंह-तोड़ जवाब दे सकती है और उनके अत्याचारों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कहानियों में ऐसी ही अदम्य साहस से परिपूर्ण स्त्रियों का चित्रण अम्मा, खानाबदोश और जिनावर कहानी में करते हुए कहते हैं “मैं चुप ना थी। मैंने मामा को कभी माफ नहीं किया। मौका मिलते ही जलील कर देती थी। जब भी मेरे करीब आने की कोशिश करता, मैं चीखने चिल्लाने लगती थी….. “कहने को तो बिरजू से मेरा ब्याह हुआ था….. हकीकत यह थी कि मामा ने चौधरी से पांच हजार रुपए लिए थे। चौधरी जब अपनी करतूत में सफल नहीं हो सका तो मुझे निकाल बाहर किया।” (जिनावर-ओमप्रकाश वाल्मीकि)
अपनी कहानी ‘अम्मा’ में लेखक ने एक ऐसे अदम्य साहस से भरपूर दलित स्त्री का चित्रण किया है, जो अपने यौन शोषण के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाती, बल्कि उसका मुंहतोड़ जवाब भी देती है। वो अपनी रोजी-रोटी की फिक्र ना करते हुए करारा प्रहार करती है, “वह बंधन ढीला करने के लिए जोर लगा रही थी। जैसे ही पकड़ कुछ कम हुई, झटका देकर उसने खुद को मुक्त कर लिया। हाथ में थमी झाड़ू की मूठ पर हथेली कस गई, पूरी ताकत से झाड़ू का वार सीधा उसकी कनपटी पर किया। चोट लगते ही वह लड़खड़ा गया और बेडरूम की तरफ भागा। अम्मा लगातार उसे पीटते हुए बेडरूम में घुस गई। वह नीचे फर्श पर गिर पड़ा था। अम्मा की झाड़ू सड़ाक-सड़ाक उस पर पड़ रही थी मुंह से गालियां फूट रही थीं।”(अम्मा-ओमप्रकाश वाल्मीकि)
रुको यह क्या कर रही हो?…. रुको मत मारो” (अम्मा- ओमप्रकाश वाल्मीकि) मिसेज चोपड़ा ने उसके हाथ से झाड़ू छीनने की कोशिश की। अम्मा ने उसे भी धक्का देकर पीछे धकेल दिया। दो तीन वार और किए। रुक कर बोली, “बहन जी इस हरामी के पिल्ले से कह देणा….हर एक औरत छिनाल ना होवे है।” 7 (अम्मा ‐ ओमप्रकाश वाल्मीकि) अम्मा की आंखों में लाल सुर्ख डोरे अंगारों की तरह दिख रहे थे।
घर हो या बाहर स्त्री को मांस के लोथड़े के सिवाय हमारा समाज उसे नहीं देखता, मौका मिलते ही वह उस पर हमला बोल देता है तब वह न दलित स्त्री देखता है ना सवर्ण स्त्री। उसके सामने सिर्फ वह शरीर होती है जिसे वह हर कीमत पर पाना चाहता है, उसे भोगना चाहता है। दलित स्त्री के हाथ का पानी पीने में तो वह परहेज करता है, लेकिन उसके शरीर का भोग करने के लिए वह हमेशा लालायित रहता है। हर तरीके से वह उसकी अस्मत को लूटना चाहता है और लूटता है। जब वह उसका यौन शोषण करता है तब वह दलित ना होकर उसके शरीर को सुख देने वाली वस्तु होती है। ‘खानाबदोश’ कहानी में भी ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भट्टे में काम करने वाली स्त्री शोषण को किसनी और सुकिया के माध्यम से यथार्थ चित्रण करते हुए अभिव्यक्त किया है कि किस प्रकार से जब सूबेदार सिंह की नजर किसनी पर पड़ती है तो उसके शरीर का उपभोग करता है और जब उसका मन किसनी से भर जाता है, तब सुकिया के शरीर को पाना चाहता है और जब वह अपने गंदे इरादों में कामयाब नहीं हो पाता, तो वह सुकिया को विभिन्न तरीके से परेशान करता है
‘अम्मा’ कहानी में भी ऐसे ही सवर्ण समाज के पुरुष द्वारा दलित स्त्री के यौन शोषण को देखा जा सकता है कि किस प्रकार से स्त्री को देखते ही पुरुष की लार कैसे टपकने लगती है। वह एक स्त्री के प्रति ईमानदार नहीं रहता। मौका मिलते ही वह परायी स्त्री के शरीर को भोगना चाहता है, क्योंकि स्त्री उसके लिए मात्र वस्तु और शरीर को सुख पहुंचाने के सिवाय कुछ नहीं है। मौका मिलते ही वह उस पर शिकारी की तरह टूट पड़ता है और उसको अपने पंजे में जकड़ कर अपनी यौन पिपासा को शांत करना चाहता है, “वह उठा और पानी की बाल्टी अम्मा के सामने ले जाकर रख दी। मुस्कुराकर अम्मा को देखा। अम्मा ने पानी डालने के लिए हाथ का इशारा किया। विनोद ने टट्टी में पानी डालने की बजाय अम्मा की कमर में हाथ डालकर झटके से उसे अपनी ओर खींचा। अम्मा इस हरकत से हड़बड़ा गई। चीखकर बोली, क्या करते हो यह?….. छोड़ो। छूटने के लिए कसमसाने लगी। विनोद ने दबाव बढ़ा दिया कसकर अपने सीने से भींच लिया। अम्मा को लगा जैसे किसी आदमखोर ने उसे दबोच लिया है।”(अम्मा ‐ ओमप्रकाश वाल्मीकि)
हमारे समाज की विडंबना यह है कि स्त्री अगर अपने यौन शोषण के प्रति आवाज उठाती है या उसके बारे में अपने परिवार से बात करना चाहती है तो उसकी आवाज को हमेशा दबा दिया जाता है, उसके औरत होने की बात याद दिला दी जाती है, “मेरे बाप के खिलाफ एक भी लफ्ज बोली तो हाड़-गोड़ तोड़ के धर दूंगा। जिंदगी भर लूली लंगड़ी बणके घाट पर पड़ी रहेगी…औरत है तो औरत बणके रहे”(जिनावर-ओमप्रकाश वाल्मीकि)
वाल्मीकि जी ने जिनावर कहानी के माध्यम से समाज की उस सच्चाई का बयान किया है जिससे औरतें हमेशा इस मानसिकता से दो चार होती हैं। जब वह अपने घर में अपने ऊपर हो रहे यौन शोषण की बात परिवार के सदस्यों को बताती हैं तो उन पर ही विश्वास नहीं किया जाता और उनके ऊपर प्रश्नों की बौछार कर दी जाती है। उनके ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ उनका साथ न देकर बल्कि उसे ही बदचलन आदि कहकर नवाजा जाता है या फिर उसे उसकी नियति कहकर उसे चुप रहने की शिक्षा दी जाती है या यह कहा जाता है कि तेरे ही लछ्न ठीक नहीं होंगे। तेरी ही तरफ से कुछ पहल की गयी होगी। हमारा समाज आज भी यह मानता है कि पुरुष को उकसाने का काम सिर्फ स्त्री ही करती है। कोई पुरुष अगर अपनी बहू-बेटी या किसी और स्त्री का शोषण करता है तो उसकी पत्नी आर्थिक रूप से मजबूत ना होने के कारण या कम चेतना के कारण या घर की इज्जत या रिवाज का हवाला देकर उसको सहने की बात करती है। “इस घर का तो रिवाज ही है औरत सिर्फ इस्तेमाल की चीज है। इस घर में रिश्तो की मर्यादा का कोई मतलब ना है बहू। जिंदगी सुख चैन से काटनी है तो समझौता कर ले।” (जिनावर ‐ ओमप्रकाश वालमीकि)
आज भी हमारे परिवारों में औरतों का शोषण सबसे ज्यादा होता है। अगर एक औरत का दर्द दूसरी औरत समझकर उसके शोषण के खिलाफ आवाज उठाए तथा उसका डटकर मुकाबला करें तो शोषण की कुछ तस्वीरें हमारे समाज की बदल सकती हैं। किसी स्त्री के शरीर पर हाथ डालने से पहले उसको सौ बार सोचना पड़ेगा कि वह अकेली नहीं है, क्योंकि यह पुरुष नामक वहशी जानवर ज्यादातर उन्हीं पर हमला करते हैं जब वे उसको अकेला या कमजोर समझते हैं। जरूरत है हमें अपने अंदर की सोई हुई शक्ति और चेतना को जगाने की। अगर हम दूसरी औरत के ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाते हैं या उसका साथ देते हैं तो यह जानवर खुद-ब-खुद भाग खड़ा होगा।
हमारे समाज और परिवार की विडंबना यह है कि औरत को हमेशा चुप रहने की सलाह दी जाती है उसके काम छूटने के डर से या बदनामी के डर से कहा जाता है कि वह चुपचाप इनको सहते रहे अगर वह अपने ऊपर हो रहे यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाकर उसके काम को छोड़ देती है, तब भी परिवार में कोहराम मच जाता है, पुरुष को कभी भी दोष नहीं दिया जाता। ‘अम्मा’ कहानी में लेखक ने इसी मानसिकता का चित्रण किया है, “चौपड़ी को बीस रुपये में बेच देने की खबर जब अम्मा की सास को मिली, तो घर में कोहराम मच गया। सास ने चीख-चीखकर पूरा मोहल्ला सर पर उठा लिया, “अरी नासपिटी, करम जली मेरे मरने के बाद ही मनचाही कर लेती। इस चौपड़ी के बोत (बहुत) एहसान है म्हारे ऊपर। बखत-कु-बखत जिब भी जरूरत पड़े थी, मदद करी है उन्ने। इबते नहीं बरसों से वहां जाती थी…. वो खानदानी लोग हैं। म्हारे जैसे तो उनके जेब में पड़े हैं।” (अम्मा ‐ ओमप्रकाश वाल्मीकि)
वाल्मीकि जी सिर्फ स्त्री के यौन शोषण का ही चित्रण नहीं करते, बल्कि स्त्री पर समाज द्वारा परिवार द्वारा हो रहे विभिन्न रूपों को भी चित्रित करते हैं। स्त्री इस पुरुष सत्तात्मक समाज में बच्चा जनने तथा पुरुष के शरीर की भूख मिटाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। अगर वह बच्चा ना दे सके तो समाज तथा परिवार में उसकी कोई अहमियत नहीं रह जाती। उसके ऊपर विभिन्न प्रकार के जुल्म किए जाते हैं। लगता है जैसे सारा दोष स्त्री का ही है। ‘ग्रहण’ कहानी में लेखक ने स्त्री के इसी शोषण तथा दर्द का चित्रण किया है। “अरे नासपीट्टे ऐसे रूप रंग का क्या अचार गेरना है, जो एक चिड़िया का बच्चा भी ना जन सके।”
“चौधरी के खाते-पीते घर में एक तनाव पसर गया था चुपके-चुपके। आज पड़ोसी की औरतों को भी बातचीत के लिए विषय मिल गया था। “अरे बेचारी की किस्मत खराब है। इतना रूप रंग दिया….. पर कोख खाली ही दी।”(ग्रहण- ओमप्रकाश वाल्मीकि) हमारे भारतीय समाज में जैसे स्त्री की पहचान ही तब बनती है जब वह बच्चा जने वह भी लड़का उसकी अपनी अस्मिता की जैसे बेटे के जन्म के ऊपर निर्भर होती है “सोहणी है तो क्या हुआ….. एक बच्चा तो जन के दिखावे, मन्ने तो साद्दी के नवें महन्ने में ही सास की गोद में बेट्टा दे दिया था। लेरी लाल सिंभाल। फेर न कहियो की पोता नी दिया। इन जुमलों के साथ सिर मिलाकर बैठी औरतों के कहकहे घर-आंगनों में गूंजने लगे थे।” (ग्रहण- ओमप्रकाश वाल्मीकि)
अगर कोई स्त्री शादी के कुछ महीनों के बाद गर्भ से नहीं होती या बच्चे को जन्म नहीं देती तो पति, सास और परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा उसकी सिर्फ अवहेलना होती है। सारा प्रेम कुछ महीनों बाद या कुछ सालों बाद बच्चा ना देने के कारण समाप्त हो जाता है। “चौधराइन के मुंह से बहू के लिए आशीषें नहीं, गालियां फूटने लगी थीं। बिरम भी ऊब गया था, सोने-सी देह अब लिजलिजी लगने लगी थी। उसे भी लगता था बहू में कुछ खोट है। खेती-बाड़ी से थका हारा आता, चुपचाप सो जाता। बहू जब तक सोने के कमरे में पहुंचती व गहरी नींद में होता।” (ग्रहण- ओमप्रकाश वाल्मीकि)
आज भी हमारे भारतीय समाज में जब किसी स्त्री को बच्चा नहीं होता तो इसका दोष सबसे पहले स्त्री को ही दिया जाता है। पुरुष के ऊपर तो इसकी आंच भी नहीं आती, उसे कभी भी दोषी करार नहीं दिया जाता। हम देखते हैं कि सबसे पहले डॉक्टरी जांच औरत की होती है किसी पुरुष की नहीं। पुरुष कभी यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कभी कोई उसके पुरुषत्व पर उंगली उठाए, पिता ना बनने के दोष को वह कभी अपने ऊपर नहीं लेता। अगर स्त्री उससे यह बात कहती है, तो समाज द्वारा बनी बनाई पुरुषत्व की भावना उसके अंदर जाग जाती है, वह अपनी इस कमी को स्वीकार ही नहीं करता। “एक दिन जी कड़ा करके उसने बिरम से कहा भी था।” “आप भी मुझे ही दोषी मान रहे हैं…. एक बार शहर के किसी बड़े डॉक्टर के पास तो चलो, सुना है डॉक्टर लोग बता देते हैं खोट किसमें है…….।”(ग्रहण- ओमप्रकाश वाल्मीकि) उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि बिरम का एक झन्नाटेदार थप्पड़ बहू के गाल पर पड़ा। बहू की आंखों में तारे नाच गए। वह न रोई, न चिल्लाई, चुपचाप फटी-फटी आंखों से बिरम के इस रूप को देखती रही। उसे वे क्षण याद आने लगे जब शादी के शुरू के दिनों में वह उस के सीने में सिर गड़ाए छोटे बच्चे की तरह घंटों पड़ा रहा था।” ( ग्रहण- ओमप्रकाश वाल्मीकि) बहू की तंद्रा को एक झटका लगा, जब बिरम चिल्लाया, “साली मुझ में खोट निकाल रही है….. टुकड़े-टुकड़े करके जमीन में गाड़ दूंगा ….जा दफा हो जा मेरे सामने से।” (ग्रहण- ओमप्रकाश वाल्मीकि)
लेखक ने ‘ग्रहण’ कहानी के माध्यम से पुरुष मानसिकता की पोल खोली है कि पुरुष कभी भी अपने ऊपर दोष नहीं लेता। उनको लगता है कि अगर वह डॉक्टरी जांच कराता है, तो वह उसके पुरुषत्व पर चोट है, वह यह कभी भी नहीं बर्दाश्त कर सकता कि वह नामर्द है, चाहे वह इसके लिए स्त्री को ही दोष दे या उसका मानसिक और शारीरिक शोषण करें। ओमप्रकाश वाल्मीकि यह चित्रण करने से नहीं चूकते कि अगर औरत पर बांझ होने का आरोप लगा है तो वह किसी प्रकार से इस आरोप का खंडन करें और समाज तथा परिवार में अपनी साख बचाए, “बहू ने अपना सिर रमेसर की छाती पर सटाते हुए फुसफुसाकर कहा, “अनाज की चिंता ना करो …. बस, एक बार….. मुझे एक बेटा चाहिए….. उसके बदले जो कहोगे….. दूंगी।” (ग्रहण- ओमप्रकाश वाल्मीकि)
हम कह सकते हैं कि वाल्मीकि जी की कहानियों तथा आत्मकथा में सिर्फ दलित चिंतन ही नहीं है बल्कि स्त्री शोषण, अत्याचार आदि पर भी उनकी लेखनी उतनी ही पैनी है, जितनी दलित शोषण और चिंतन को लेकर। अपनी कहानियों के माध्यम से वाल्मीकि जी ने समाज तथा परिवार में हो रहे स्त्री शोषण का बहुत ही बारीकी से चित्रण किया है। समय-समय पर ये स्त्रियां अपने शोषण के खिलाफ आवाज भी उठाती हैं। इनकी कहानियों में स्त्री पात्रों तथा उनके शोषण को पढ़कर ऐसा लगता है कि ये स्त्री चरित्र सिर्फ वाल्मीकि की कहानियों का ही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, बल्कि हमारे समाज के ज्यादातर स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। जो हमेशा इस समस्या से टकराती है। यह समस्या हमारे समाज में कोढ़ की तरह है जो दिन पर दिन घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। हम 21वीं सदी के प्रांगण में प्रवेश तो कर गये हैं लेकिन स्त्री के प्रति हमारा जो नजरिया है वह आज भी पुरातन वाला है। आज भी स्त्री सिर्फ वस्तु के रूप में देखी जाती है आज भी वह भोग का साधन मात्र है। उसकी अपनी अस्मिता आज भी खतरे में है। आज भी उसकी सोच पर पहरे लगाये जाते हैं। आज भी वह स्वतंत्र रूप से अपना निर्णय नहीं ले सकती। अगर वह अपनी सोच रखती है तो अनगिनत आरोपों का सामना उसे करना पड़ता है। शुचिता जैसे प्रश्नों से उसे बारबार टकराना पड़ता है। स्त्रियों की इन्हीं समस्यायों से वाल्मीकि जी टकराते हुए इसका नग्न चित्रण अपनी कहानियों में बहुत ही शिद्दत के साथ उठाते हैं। वाल्मीकि जी द्वारा स्त्रियों का अंदर और बाहर ये जो शोषण है उसको उन्होंने जितनी बारीकी के साथ उठाया है और इसको मूल समस्या के रूप में अपनी कहानियों में प्रस्तुत किया है वह बेजोड़ है। उनकी यही प्रखरता दलित साहित्य को एक नया आयाम देती है और अपने समकालीन साहित्यकारों की पंक्ति से अलग करती है और एक विशिष्ट साहित्यकार के रूप में स्थापित करती है।
(डॉ. नीलम, दिल्ली विश्वविद्धयालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)