प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता
बहुत दिन हुए, मोहल्ले में विधर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। गहन मुद्रा में बैठे पाण्डेय जी सोच रहे थे। अन्य शाखा प्रान्त के लोग उनका कभी-कभी मज़ाक भी उड़ाने लगे थे। वे कहते “पाण्डेय जी आपके इलाक़े में तो इन मुल्लों की संख्या बढ़ती जा रही है। लगता है आपको पण्डिताईनी से फ़ुरसत नहीं मिल रही।” यही ख़्याल उन्हें बार-बार कुरेद रहा था। रविवार के दिन काम-धन्धें से फ़ारिग़ होकर कुर्सी पर बैठे वह इसी चिन्तन में मगन थे। पाण्डेय जी अब 50 के होने को आये हैं, बड़े से अपार्टमेण्ट में रह रहे हैं। बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत हैं। इनका एक बच्चा अभी विदेश में सेटल हो चुका है, दूसरा बैंगलोर की एक बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। बचपन में ही पाण्डेय जी शाखा से जुड़ गये थे। आज वह शाखा के उत्तर-पश्चिमी ज़िला के संघचालक हैं। जवानी में उन्होंने बाबरी मस्ज़िद के आन्दोलन में भी भाग लिया था। जब भी कहीं उन्हें वक्ता के तौर पर बुलाया (ऐसे मौक़े कम ही आते हैं) जाता है तो बाबरी मस्ज़िद ध्वंस को वह अपनी ज़िन्दगी का सबसे सुन्दर अनुभव बताते हैं। कई सालों से वह अपने ज़िले के संघचालक हैं। संघचालक बनने के बाद इलाक़े में शाखा के काम को काफ़ी बढ़ाया था। आज भी रोज़ सुबह वह चार बजे उठकर शाखा में जाते हैं।
पूरे देश में उनके बन्धुओं द्वारा किये जा रहे कार्य को लेकर वह काफ़ी उद्वेलित रहते हैं और अपने इलाक़े में भी वह इसी तरह का कुछ काम करना चाहते हैं, पर उनकी योजनाएँ कई बार विफल हो चुकी हैं। इससे शाखा में उनकी साख पर बट्टा लग चुका है। इसलिए वह चिन्ता में थे। इतना सोचने पर भी उनके दिमाग़ में कोई योजना नहीं आ रही थी कि कैसे अपने इलाक़े से विधर्मियों को भगाया जाये। वह इन्हें विधर्मी ही बोलते थे, उनका कहना था कि मुल्ला या मुसलमान बोलकर अपनी ज़ुबान ख़राब करना नहीं चाहते।
खैर तो इसी तरह बीत रहा था पाण्डेय जी का रविवार। चिन्तन करते-करते अब उन्हें नींद आने लगी थी। इसलिए वह अब बिस्तर पर जाकर चिन्तन करने लगे और चिन्तन करते-करते सो गये। तभी अचानक उनका फ़ोन बजा और उन्होंने फ़ोन उठाया। कुछ सेकेण्ड बाद उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी। अपनी आँखों को मीचते हुए वह फ़ोन पर बतिया रहे थे। उन्हें लग रहा था कि कहीं ये सपना तो नहीं! “ठीक है मैं अभी आता हूँ।” बोलकर उन्होंने फ़ोन रख दिया।
उनके चेहरे की हल्की मुस्कान और फैल गयी। वह बिस्तर से उठे और अपना पाजामा उतारकर आलमारी से खाकी निक्कर निकाली। वह अब भी खाकी निक्कर पहनते थे, जबकि शाखा में अन्य लोग खाकी फ़ुल पैण्ट पहनकर आने लगे थे। उनका मानना था कि पुरानी चीज़ों में बदलाव नहीं लाना चाहिए। मुंजेजी ने कुछ सोच-समझ कर ही हॉफ़ निक्कर को चुना होगा, इसे फ़ुल करने का क्या फ़ायदा! बाक़ी एक बात और थी, जो वह किसी को बताते नहीं थे या बताने से डरते थे, उन्हें बवासीर था इसलिए भी वह निक्कर पहन कर जाते थे, जिससे उन्हें तकलीफ़ न हो।
तो जल्दी-जल्दी पाण्डेय जी तैयार होकर निकले और अपने घर के नज़दीक पार्क में पहुँचे जहाँ रोज़ शाखा लगती थी।
वहाँ पहले से ही वर्मा जी, त्रिपाठी जी, बंसल जी पहुँचे हुए थे। तीनों खाकी फुल पैण्ट और सफ़ेद शर्ट पहने हुए थे। वर्मा जी स्कूल अध्यापक हैं। त्रिपाठी जी की अपनी मिठाई की बड़ी दुकान है और बंसल जी की अपनी फैक्ट्री है। तीनों आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे और पाण्डेय जी को आते देख अचानक से सावधान मुद्रा में खड़े हो गये।
“क्या हुआ! अचानक आपने इतनी हड़बड़ी में क्यों बुलाया? क्या मुद्दा हाथ लग गया है आपके बंसल जी!” थोड़ा ठहर कर साँस लेते हुए पाण्डेय जी बोले।
“पाण्डेय जी! देश भर में तो इन विधर्मियों ने उत्पात मचा ही रखा है और अब इन्होंने हमारे मोहल्ले में भी हाहाकार मचा दिया है। इन्होंने आज हमारे दस स्वयंसेवकों को चाकू से गोद कर घायल कर दिया।” बंसल जी ने सब एक साँस के कह दिया।
अचानक पाण्डेय जी की आँखों में चमक आ गयी। हल्की-हल्की चल रही हवाओं को वह अपने चेहरे पर महसूस कर रहे थे। वह समझ गये कि उन्हें शाखा में अपनी साख स्थापित का मौक़ा मिल गया। अब वह भी अपने मोहल्ले से विधर्मियों को भागकर एक मिसाल पेश करेंगे। कई विचार एक साथ उनके दिमाग़ में चल रहे थे और उन्हें खुशी का अनुभव हो रहा था। अपने पर संयम रखते हुए अपनी खुशी को अपने अन्दर ही रखा और तीनों के सामने अपने चेहरे को सख़्त बनाते हुए वह बोले: “बन्धुओं! अब वक़्त आ गया है इन विधर्मियों को सबक़ सिखाने का।
ये साले हमारे देश में रह कर हर जगह हमारे बन्धुओं को मार ही रहे हैं और अब ये हमारे मोहल्ले तक में घुस गये। अब इनका सफ़ाया करना ही होगा।”
तीनों ने एक साथ सहमति में सर हिलाया। फिर से पाण्डेय जी ने बोलना शुरू किया। “बंसल जी ज़िले के सभी स्वयंसेवकों को इकठ्ठा करके तुरन्त बैठक कीजिए, सबको बता दीजिए कि कल से ही हम लोग इन विधर्मियों को भगाने की शुरुआत कर देंगे। उन्हें यह भी बताएँ कि धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठाने का वक़्त आ गया है। कल हम पूरे मोहल्ले में रैली निकालेंगे और विधर्मियों को चेतावनी देंगे। नाला पार के मोहल्ले के लड़कों को भी रैली के लिए बोल देना, ज़रूरत पड़ी तो उन्हें कुछ पैसे भी दे देना।
ये काम आपको करना है वर्मा जी। त्रिपाठी जी आपको तलवारों का इन्तज़ाम करना है, ताकि इनमें भय पैदा किया जा सके।” दुबारा तीनों ने सहमति में सर हिलाया। “चलिये अब जल्दी-जल्दी चलते हैं। काफ़ी काम करना है।” “जय श्री राम!” पाण्डेय जी ने तीनों को बोला और वहाँ से निकल गये।
पार्क से निकलते ही पाण्डेय जी की खुशी उनके चेहरे पर भी आ गयी। अब वह खुलकर खुश हो सकते थे। अब शाखा में उनकी साख बढ़ जायेगी।
उन दस स्वयंसेवकों ने चाकू से घायल होकर पाण्डेय जी की चिन्ता ही दूर कर दी और उन्हें मुद्दा मिल गया। पर इसके लिए उन्हें धन्यवाद देने का समय पाण्डेय जी के पास नहीं था, उन्होंने सोचा विधर्मियों को मोहल्ले से भगाकर ही उन्हें मिला जायेगा। तेज़ क़दम बढ़ाते हुए पाण्डेय जी घर को लौट गये।
रात हो गयी। बिस्तर पर लेटे-लेटे पाण्डेय जी करवट बदल रहे थे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। कल की कल्पना करके वह बेहद खुश हो रहे थे। सोचते-सोचते उन्होंने यहाँ तक सोच लिया कि क्या पता इसके लिए भागवत जी उन्हें नागपुर बुलायें व उन्हें सम्मानित भी करें। अचानक उनके इस सपने में खलल पड़ी। उनका फ़ोन बज उठा।
उन्होंने फ़ोन उठाया और उसके कुछ पल बाद ही उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ गयी। होंठ सिकुड़ कर छोटे हो गये और हिलने लगे। फ़ोन बंसल जी का था। बंसल जी ने बताया कि चाकू मारने वाले विधर्मी नहीं बल्कि अपने ही धर्म के लोग थे। इस ख़बर पर पाण्डेय जी को विश्वास नहीं हो रहा था। अपनी सारी योजनाओं को इस तरह बर्बाद होने नहीं दे सकते थे। वह यक़ीन ही नहीं कर पा रहे थे कि स्वयंसेवकों को अपने ही धर्म वालों ने चाकू मार दिया। वह तुरन्त उठे और कार निकाली और अस्पताल की ओर चल दिये।
अस्पताल पहुँच कर वह उन घायल दस स्वयंसेवकों के बेड के पास पहुँचे। किसी के सर पर, किसी के हाथ या पैर पर पट्टियाँ बँधी हुई थी। सबकेb घाव गहरे और ताज़ा लग रहे थे। पाण्डेय जी ने सब पर नज़र डाली, सबके सब कद-काठी में हट्टे-तगड़े लग रहे थे। पाण्डेय जी ने सोचा कि क्या पता बहुत लोगो ने इनपर हमला किया हो, उनमें से एक न एक तो विधर्मी मिल ही जायेगा।
उन स्वयंसेवकों में से एक की नींद खुली। वह पाण्डेय जी को इतनी रात में देखकर चौंक गया। उसने पाण्डेय जी का नाम पहले सुना हुआ था, और आज वह उससे मिलने के लिए उसके सामने खड़े थे। सुबह से कई शाखाओं के कई नेता उनसे आकर मिल चुके थे, पर पाण्डेय जी को देखकर उसे विशेष खुशी महसूस हुई। पाण्डेय जी ने उसके बगल में बैठते हुए उसका नाम पूछा।
उसने अपना नाम अभिषेक बताया। उसके सर पर पट्टी बँधी हुई थी जो आँख के थोड़ा ऊपर तक जाती थी।
“कैसे हुआ ये सब, क्या मुल्लों ने तुम लोगो की ये हालत की?”
पाण्डेय जी ने औपचारिकताओं को ख़त्म करते हुए पूछा।
“क्या बताऊँ पाण्डेय जी! पहले हमें भी यही लगा कि मुल्लों ने अटैक किया है, पर जैसे ही हम सँभले तो हमारे सामने चौधरी साहब और उनके बेटे थे। वह लगातार हमपर अन्धाधुन्ध चाकू घुमा रहे थे। हम इधर-उधर भागकर छिपने की कोशिश कर रहे थे पर दोनों लोग हाथ धोकर हमारे पीछे ही पड़ गये।”
“चौधरी साहब कौन! वहीं जिन्होंने चुनाव में पार्टी को चन्दा दिया था?” पाण्डेय जी ने उत्सुकता से पूछा।
“हाँ! वही थे।”
बीच में ही रोकते हुए पाण्डेय जी ने पूछा “ऐसा क्या कर दिया था तुम लोगो ने कि वह तुम्हारे पीछे पड़ गये?”
“पाण्डेय जी! असल में बात यह है कि उस मन्दिर में जहाँ घटना हुई, उसे चौधरी साहब ने बनवाया है ताकि ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके रखा जा सके। हम लोगों ने भी मन्दिर बनवाने में उनकी की मदद की थी। फिर हम लोगों ने यहाँ हर मंगलवार को कीर्तन करना शुरू कर दिया, उसमें एक समय बाद काफ़ी लोग आने लगे। लोगों के आने से चौधरी साहब को लगा कि इससे उनकी ज़मीन ख़तरे में पड़ जायेगी, तो उन्होंने हमें यहाँ कीर्तन करने से मना कर दिया। उन्होंने कई बार मना किया पर हम नहीं माने और फिर आज उन्होंने सीधा हमपर जानलेवा हमला कर दिया।”
ये सब सुनकर पाण्डेय जी बिल्कुल निराश हो चुके थे। उनकी बची-खुची सम्भावनाएँ मिट्टी में मिल गयीं। पाण्डेय जी बिना कुछ बोले उठकर जाने लगे। कुछ क़दम चलने के बाद रुके और पीछे मुड़कर बोले: “वो दो लोग थे और तुम दस, तब भी उन्होंने तुम्हारा ये हाल कर दिया?”
“पाण्डेय जी! भारत माता की क़सम खाकर कहता हूँ कि हमारी वीरता में कोई कमी नहीं है। वो तो चौधरी साहब अपने धर्म के है इसलिए हमने कुछ नहीं कहा, अगर मुल्ले होते है, उनकी तो हम ऐसी-तैसी कर देते।” दर्द से कहराते हुए स्वयंसेवक बोला।
पाण्डेय जी बिना कुछ बोले मुँह लटकाये वहाँ से चले गये। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। उनके दिमाग़ में बस यही चल रहा था कि अब शाखा में साख कैसे बचेगी! क्या शाखा में उनके वह सुनहरे दिन वापस आयेंगे! अगले दिन वह शाखा में क्या मुँह दिखायेंगे! यही सोचते-सोचते वो घर पहुँच कर सो गये। अगले दिन सुबह शाखा में नहीं गये और 8 बजे उठकर सीधा दफ़्तर चले गये।
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