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कहानी : डस्टबिन

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      पुष्पा गुप्ता 

“नहीं, भला कचरा भी कोई संभालकर रखता है क्या?” 

   नीरा को आश्‍चर्य हुआ उनके इस प्रश्‍न पर. “तो जया जैसे लोगों की नकारात्मक बातों के कचरे को क्यों संभालकर रखती हो? ये मन, ये शरीर हमारा घर है. इसे स्वच्छ और स्वस्थ रखना हमारा सबसे पहला कर्त्तव्य है, लेकिन देख रही हूं कि तुम पूरी तरह से इस कर्त्तव्य की अनदेखी कर रही हो और कचरे की दुर्गंध से अपने तन-मन को रोगग्रस्त करती जा रही हो.”

    मौसी ने टेबल पर रखी दवाइयों को देखते हुए कहा.

      नीरा ने बाबूजी और मांजी को नाश्ता दिया और टेबल पर बैठकर नवीन की प्रतीक्षा करने लगी. ऑफिस का समय होता जा रहा है और नवीन न जाने किससे बातें करने में लगे हुए हैं. नीरा ने दो-तीन बार आवाज़ भी दी, लेकिन नवीन तो बाहरवाले कमरे में फोन पर ही बातें करने में लगे थे. आख़िर 10 मिनट बाद नवीन नाश्ते के लिए डायनिंग टेबल पर आए. उनका चेहरा ख़ुशी से चमक रहा था.

“किसका फोन था. बड़े ख़ुश लग रहे हो?” प्लेट में नाश्ता लगाते हुए नीरा ने पूछा.

    “विजया मौसी का. यहां अंदर नेटवर्क की प्रॉब्लम होने की वजह से आवाज़ कट रही थी, इसलिए बाहर जाकर बात कर रहा था.” नवीन ने जवाब दिया.

   “क्या कह रही थीं विजया दीदी? मुझसे बात नहीं की उन्होंने?” जया ने पूछा.

   “8 तारीख़ को आ रही हैं यहां?” नवीन ने उत्साह से बताया.

“क्या सचमुच? अरे वाह, कितना मज़ा आएगा.” नीरा भी दुगुने उत्साह से भरकर बोली.

बाबूजी भी ख़ुश लग रहे थे. विजया दीदी को वे मांजी जयाजी की नहीं, बल्कि अपनी ही बहन मानते थे. नीरा का उत्साह देखकर मांजी को ज़रा भी अच्छा नहीं लगा. वे मुंह बनाकर बोलीं, “अपनी सास तो सुहाती नहीं और सास की बहन के आने की ख़बर सुनकर देखो चेहरा कैसा खिल गया. अपनों की भावनाओं का सम्मान नहीं और दूसरों की आवभगत करके अच्छा बनने का प्रपंच.”

   मांजी का कटु स्वर सुनकर नीरा अंदर तक आहत हो गई. नवीन और बाबूजी के सामने वह सासू मां का अपमान करना नहीं चाहती थी, इसलिए हमेशा की तरह प्रकट रूप में स़िर्फ इतना ही बोली, “दूसरा कौन मांजी, विजया मौसी भी तो अपनी ही हैं.”

    नवीन नाश्ता करके लंच लेकर ऑफिस चले गए और नीरा मांजी-बाबूजी को चाय देकर अपना कप लेकर कमरे में आ गई. उसकी सास ज़बान की बहुत कड़वी थीं. हमेशा सीधी बात का भी उल्टा मतलब निकालकर चुभती हुई बात कहना उनका स्वभाव ही था. नीरा को नाश्ते के समय कही उनकी बात रह-रहकर दुखी कर रही थी. जब से ब्याहकर इस घर में आई थी, तब से वह सास-ससुर की माता-पिता समान सेवा कर रही है.

    लेकिन उस पर भी यह तोहमत कि घरवालों की भावनाओं की कद्र नहीं है और बाहरवालों के सामने अच्छा बनने के लिए…

      13 बरसों की कर्त्तव्यपरायणता और निष्ठा का ऐसा प्रतिफल… उसकी आंखों में आंसू आ गए. मन में 13 वर्षों से जमा दर्द अब नासूर बनता जा रहा है. सास के ऐसे स्वभाव के कारण वह मन ही मन घुटती रहती है. वैसे गृहस्थी, दोनों बच्चों की पढ़ाई,

नाते-रिश्तेदार कहां-किस जगह थोड़ा-बहुत तनाव नहीं होता. कभी मायके के रिश्तेदारों के बीच खटपट से, तो कभी ससुराल में हुई बातों से. इन सबके बीच सास के ताने नीरा को अवसाद की स्थिति तक पहुंचा देते. नवीन ऑफिस के काम में ही इतना व्यस्त रहते कि उन्हें रोज़-रोज़ ये बातें बताकर वह परेशान नहीं करना चाहती. 

     बाहरवालों से या मायकेवालों से सास की बातें करके वह अपने ही घर की इज़्ज़त ख़राब नहीं करना चाहती. लेकिन इन सबका विपरीत असर उसके स्वास्थ्य पर पड़ रहा था. कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब वह कुंठित होकर अकेले में रोती न हो, पर न सास को पलटकर जवाब देने जैसी धृष्टता कर पाती, न उनकी बातों को ही भूल पाती.

    दोपहर के खाने के समय भी मांजी का मुंह फूला ही था. बाबूजी बेचारे भी चुपचाप खाना खा रहे थे, उन्हें भी अब आदत हो गई थी, सो वे अधिकतर चुप ही रहते. उस पर भी मांजी चिढ़ जातीं कि उन्हें तो कोई परवाह ही नहीं है उनकी.

    तीन बजे जब दोनों बच्चे शानू और मीठी स्कूल से लौटे, तब उनकी धमाचौकड़ी से घर का माहौल बदला. अपने पोते-पोती से तो मांजी को भी बहुत प्यार था. दोनों उनकी आंखों के तारे थे. नीरा को बस यही एक सुकून था कि कम से कम सास उसके बच्चों पर तो जान छिड़कती हैं.

रात में वह मौसी के बारे में सोचने लगी. कितना फ़र्क़ है दो सगी बहनों में. विजया मौसी कितनी शौकीन, खाने-कपड़े से लेकर पकाने-खिलाने और हर बात में सुरुचिपूर्ण व सकारात्मक सोच का अविरल झरना हो जैसे… और उसकी सास, नीरा का मन कड़वा हो गया फिर से. वह मन को दूसरी तरफ़ लगाकर सोने की कोशिश करने लगी. बहुत कम ही साथ रह पाई है वह मौसी के, लेकिन जितना भी रही है, घर-परिवार के उत्सवों में, उनके व्यक्तित्व की ख़ूबियों से बहुत प्रभावित हुई है. 

     मन में हर बार ही एक टीस उठती- काश! मौसी ही उसकी सास होतीं, तो जीवन और गृहस्थी दोनों ही कितने सुंदर होते. गृहस्थी में दिनभर सबसे अधिक पाला तो सास से ही पड़ता है न. उसी रिश्ते में यदि समन्वय न हो, तो जीवन बोझिल हो जाता है.

     नीरा मौसी के स्वागत में कुछ ख़ास करना चाहती थी, लेकिन मांजी की तरफ़ देखकर उसकी हिम्मत नहीं हुई. सोचा मौसी के आ जाने के बाद ही विशेष व्यंजन बनाएगी. उनके सामने तो मांजी भी कुछ बोल नहीं पाएंगी. और वो दिन भी आ पहुंचा, जब मौसी आनेवाली थीं. आज नीरा ने दुगुनी गति से काम किया, ताकि उनके आने के बाद चैन से बैठकर बातें कर सके. नवीन जब उनको लेकर आए, तो घरभर में उमंग की लहर दौड़ गई. यहां तक कि मांजी भी ख़ुश लग रही थीं.

     चाय की चुस्कियों के बीच सफ़र और एक-दूसरे के हालचाल लिए गए. कुछ इधर-उधर की बातें हो रही थीं, तब तक नीरा ने फटाफट बाकी काम निपटाकर मौसी का मनपसंद सूजी का हलवा बना दिया.

    जब सब खाना खाने बैठे, तो हलवा देखते ही मौसी ख़ुश हो गईं. झट एक चम्मच मुंह में डालकर बोलीं, “वाह! मज़ा आ गया. कितना स्वादिष्ट. तुम्हें याद था कि मुझे हलवा पसंद है.”

नीरा प्रसन्न होकर कुछ कहने जा ही रही थी कि मांजी मुंह बनाकर बोलीं, “हां, आपकी पसंद याद है इसे, लेकिन मेरी नहीं. हलवा मुझे भी बहुत पसंद है, पर मजाल है कि मेरे लिए कभी बनाया हो इसने.”

    नीरा का चेहरा उतर गया. जाने कितनी बार हलवा बनाया होगा उसने, लेकिन आज तक तो कभी मांजी ने कहा नहीं कि उन्हें पसंद है. तभी मौसी बोल पड़ीं, “ जो चीज़ मन से पसंद होती है न जया, तो देखते ही चेहरे पर ख़ुशी छा जाती है. मुंह से अपने आप तारीफ़ों के पुल बंध जाते हैं. अब तुमने कभी कहा ही नहीं होगा बहू को कि ‘वाह हलवा कितना स्वादिष्ट बना है, मुझे बहुत पसंद है…’ तो उसे कैसे पता चले. चलो अब आज ख़ूब तारीफ़ करो हलवे की, तब देखना वह हर हफ़्ते बनाया करेगी.” मौसी ने जया की चुटकी ली, तो बाबूजी खांसने के बहाने मुंह दूसरी तरफ़ करके खुलकर मुस्कुराए और नीरा ने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोकी, जबकि मांजी बुरी तरह खिसिया गईं.

     दोपहर में जब बच्चे घर आए, तो मौसी के लाए उपहार पाकर और कहानियां सुनकर बहुत ख़ुश हुए. शाम सब घूमने गए और खाना भी बाहर खाकर आए. सुबह नीरा चाय-नाश्ते की तैयारी करने रसोई में गई, तो मौसी भी साथ आकर मदद करवाने लगीं.

“अरे मौसी, आप रहने दीजिए, मैं कर लूंगी. आप मांजी के साथ बैठिए.” नीरा संकोच से बोली.

    “तुम यह क्या कह रही हो दीदी. नीरा कर लेगी. घर पर तो रोज़ ही खटती रहती हो, यहां तो ज़रा आराम से बैठो.” तभी मांजी भी आ गईं.

    “वह रसोई ही तो है, जहां खाने के साथ मधुर रिश्ते भी पकते हैं हम महिलाओं के बीच. अब देखो मिलकर काम फटाफट आसानी से हो जाता है, साथ ही बातचीत होने से आत्मीयता भी बढ़ती है. प्रेम भी मज़बूत होता है. आओ, तुम भी यहां आ जाओ- एक पंथ और कई काज. तीनों साथ में बातें करते हैं और काम भी. लो यह आलू छीलकर काट दो, फिर सलाद बना देना.” मौसी ने मांजी की तरफ़ आलू और सलाद की सब्ज़ियां बढ़ा दीं.

वे हक्की-बक्की रह गईं, लेकिन कोई बहाना न सूझने से चुपचाप काम करने लगीं और बातचीत में शामिल हो गईं, जबकि मौसी ने पूरे समय माहौल को ख़ुशगवार बनाए रखा.

   “मुझे आपसे कढ़ाई सीखनी है. बड़ा मन है एक चादर और तकिए के लिहाफ़ बनाने का.” नीरा ने कहा.

   “तो आज ही दोपहर को चलो चादर और धागे ले आते हैं.” मौसी उत्साह से बोलीं. और बच्चों को खाना खिलाकर नीरा मौसी के साथ बाज़ार गई. दोनों ने ख़ूब देख-परखकर एक सुंदर-सी चादर ली. कढ़ाई के धागे लिए. मुट्ठीभर धागों में भी कितने सुंदर रंग समाहित होते हैं अगर मन प्रसन्न हो तो.

दो दिन बाद दोपहर में नीरा मौसी के पास बैठकर चादर पर कढ़ाई सीख रही थी कि मौसी ने अचानक ही स्नेह से पूछा, “क्या बात है नीरा, पिछली बार से तेरी सेहत भी गिर गई है और बहुत परेशान, घुटी-घुटी भी लग रही है. सब ठीक है ना?”

“बाकी सब तो ठीक है मौसी, पर मांजी के स्वभाव से ही बहुत दुखी हो गई हूं. देखिए न रोज़ ही कुछ न कुछ ऐसी बात बोलती हैं कि…” नीरा की आंखें भर आईं.

    “हां, मुझे लगा ही था कि तुम जया की बातों को दिल से लगा लेती हो और उन्हीं को सोचकर अंदर ही अंदर घुटती रहती हो.” मौसी गंभीरता से बोलीं. फिर अचानक ही पूछा, “अच्छा ये बताओ जब घर में कचरा फैल जाए, तो तुम क्या करती हो?”

   नीरा उनके इस प्रश्‍न से अचकचा गई, फिर बोली, “झाड़ू से साफ़ कर देती हूं.”

“और साफ़ करके फेंकती कहां हो?”

“डस्टबिन में.”

“अच्छा संभालकर तो नहीं रखती न?” मौसी ने एक और अटपटा प्रश्‍न पूछा.

“नहीं, भला कचरा भी कोई संभालकर रखता है क्या?” नीरा को आश्‍चर्य हुआ उनके इस प्रश्‍न पर.

   “तो जया जैसे लोगों की नकारात्मक बातों के कचरे को क्यों संभालकर रखती हो? ये मन, ये शरीर हमारा घर है. इसे स्वच्छ और स्वस्थ रखना हमारा सबसे पहला कर्त्तव्य है, लेकिन देख रही हूं कि तुम पूरी तरह से इस कर्त्तव्य की अनदेखी कर रही हो और कचरे की दुर्गंध से अपने तन-मन को रोगग्रस्त करती जा रही हो.” मौसी ने टेबल पर रखी दवाइयों को देखते हुए कहा.

    नीरा के कढ़ाई करते हाथ रुक गए, “तो क्या करूं मौसी. वे बड़ी हैं, उल्टा जवाब देने का मन नहीं करता और भूल भी नहीं पाती.”

   “तो क्या सारा जीवन उस कचरे की दुर्गंध में विषाक्त कर लोगी. याद रखो, तुम्हारा मन और जीवन जैसे-जैसे विषाक्त होता जाएगा, उसका असर नवीन और बच्चों पर भी पड़ेगा. बेहतर है रोज़ का कचरा उसी समय साफ़ कर लिया जाए.” मौसी सुई में धागा डालते हुए बोलीं.

“तो इस समस्या का हल क्या है?” नीरा उदास स्वर में बोली.

“डस्टबिन.” मौसी बोलीं.

“डस्टबिन? मैं समझी नहीं.” नीरा असमंजस में थी.

“हां, जैसे घर के कचरे को फेंकने के लिए हम डस्टबिन रखते हैं, वैसे ही मन को साफ़ रखने के लिए मन के एक कोने में एक डस्टबिन रखना चाहिए. लोगों के अपशब्दों, तानों, नकारात्मक टिप्पणियों के कचरे को मन में जमा करते जाने का कोई अर्थ नहीं है. जीवन अत्यंत बोझिल हो जाएगा. अच्छा है उसे तुरंत उठाकर उस डस्टबिन में डाल दिया जाए.” मौसी ने समझाया.

    नीरा रुककर सोचने लगी, ‘क्या सचमुच इससे तनाव कम हो जाएगा.’ उसके चेहरे पर उम्मीद की एक किरण झिलमिलाने लगी.

“बस यही, यह जो तेरे प्यारे से चेहरे पर अभी-अभी एक आशापूर्ण उजाला, एक मुस्कुराहट आई थी न, इसी झाड़ू से साफ़ करना. देखना, वो कचरा साफ़ होते ही तनाव, अवसाद, घुटन की दुर्गंध तुरंत गायब हो जाएगी.” मौसी मुस्कुराते हुई बोलीं.

    “जीवन में हर परिस्थिति और हर मनुष्य का स्वभाव हमारी इच्छानुसार नहीं होता, तो कहां तक हम झगड़ते रहें या फिर अपना जीवन ख़राब करते रहें. तो हर एक व्यक्ति को अपने मन के एक कोने में डस्टबिन ज़रूर रखना चाहिए, ताकि अवांछित बातों से छुटकारा पाया जा सके, ताकि रिश्ते भी सुगमता से चलते रहें और जीवन भी.”

   “अरे वाह मौसी, आपने तो क्या अद्भुत उपाय सुझाया है जीवन में शांति बनाए रखने का.” नीरा खुलकर मुस्कुराई.

   “तो बस फिर आज ही अपने मन के एक कोने में डस्टबिन रखो, कचरा उसमें फेंको और अच्छा साथ लेकर आगे बढ़ो.” मौसी भी खुलकर हंस दीं.

   “और अगली बार जब मैं यहां आऊं, तो ये दवाइयों का ढेर नहीं मिलना चाहिए और मुझे वही पुरानी हंसमुख प्यारी नीरा वापस मिलनी चाहिए.”

  “ज़रूर मौसी.” नीरा ने स्नेहभरे आदर से कहा.

चार दिनों में ही नीरा का चेहरा खिल गया था. जब भी मांजी कोई कड़वी बात करतीं, मौसी अर्थपूर्ण ढंग से नीरा की तरफ़ देखती और नीरा झट मुस्कुरा देती. नवीन भी नीरा को पहले की तरह ख़ुश देखकर प्रसन्न थे. जब विजया मौसी वापस घर जाने लगीं, तो नीरा ने उनके पैर छुए. आशीर्वाद देते हुए बोलीं, “अब मेरी इस हंसमुख, तनावरहित नीरा को कभी खोने मत देना और कचरा डस्टबिन में फेंकना मत भूलना.”

   “नहीं मौसी, कभी नहीं भूलूंगी. अब वो डस्टबिन हमेशा के लिए रख लिया है.” नीरा मुस्कुराते हुए बोली.

   “कैसा कचरा? कैसा डस्टबिन? दोनों क्या बोल रही हो?” मांजी ने आश्‍चर्य से पूछा.

   “कुछ नहीं वो हम दोनों का आपस का सीक्रेट है.” कहते हुए नीरा और मौसी खिलखिलाकर हंस दीं.

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