जूली सचदेवा
“साली हरामजादी, हाथ तक रखने नहीं देती” भीखू ने नाली में थूका और तुरंत ही होंठों पर रिसती हुई पीक अपनी हथेली के पिछले भाग से साफ की।
“तुझे उसी में क्या हीरे जड़े दिखते हैं रे? किसी और को थाम ले” रामविलास ने सलाह दी। दोनों चाय की बन्द दुकान पर बैठे शराब लेने गए नरसिम्हा का इंतज़ार कर रहे थे।
दुकान के ठीक ऊपर एक कोठा था। उसमें कम ज्यादा मान कर आठ रंडिया तो थीं ही, एक अक्का भी थी। कब कौन-सी लड़की के कितने रेट हैं ये अक्का ही तय करती थी।
उन्हीं में से एक लड़की ‘इंशा’ का मिज़ाज़ बाकियों से बिलकुल अलग था। बड़ी-बड़ी बंगालनों जैसी आंखों वाली वो खूबसूरत हसीना किसी को देख भर ले तो उसकी ज़ुबान सूख जाती थी।
पर पिछले 2 साल पहले इंशा अचानक गायब हो गयी। उसके कद्रदानों ने ढुंढाई में ज़मीन आसमान एक कर दिया पर नहीं मिली।
फिर कोई छः महीने बाद अपने आप ही लौट आई। तब से आजतक किसी को हाथ नहीं लगाने देती खुद को।
“बस एक साठ के लपेटे का बुड्ढा आता है, उसी से मराती है साली, पता नहीं कितना माल लुटा देता है वो हरामी” रामविलास खैनी रगड़ते हुए बोला।
“इन रंडियों के नखरे भी न, साली को एक दिन ऐसा रगड़ दूंगा कि बुड्ढे को भूल जाएगी” भीखू की हिरस फिर निकली।
उसी वक़्त दौड़ता हुआ नरसिम्हा मनहूस खबर लेकर आया “भाईलोग, दारू नहीं मिल रही। सारे ठिकानों पे छापे पड़े हैं। कुछ टेम बन्द रहेंगे।”
“अबे घंटा, अब रेट बढ़ जाएगा और कुछ नहीं।” रामविलास उठने लगा “सब साले रंडी हैं, कोई जिस्म बेचता है तो कोई ज़मीर तो कोई शराब”
नरसिम्हा और रामविलास दोनों जाने को हुए पर भीखू न हिला।
“तुझे यही ठंड में मरना है?” रामविलास चिल्लाया
“हां” ठंडा सा जवाब मिला।
दुबारा किसी की कोई सवाल करने ही हिम्मत न हुई। दोनों ‘पागल है साला’ कहते चलते बने।
उस अंधेरी कोठरी से चाय के खोखे में भीखू दाढ़ी खुजाता इन्तेज़ार करता था। आज शुक्रवार था, आज तो आना ही था।
रात 11 बजे इंतेज़ार की घड़ी खत्म हुई।
एक हरी टोयोटा कैमरी कोठे से कुछ कदम दूर आकर रुकी। सफेद कुर्ते-पायजामे और जूते पहने ‘वो’ बुड्ढा निकला।
लालिमा लिए तेज चेहरा और आंख पर टिका एक गोल्डन फ्रेम का चश्मा। थोड़ा भारी बदन।
“साला शक्ल से कहाँ कोई ठरकी लगता है।” भीखू खुद ही से बड़बड़ाया।
बुड्ढे की चाल में हल्की सी लंगड़ाहट थी।
“हरामी सीधा चल नहीं पाता और दौड़ायेगा घोड़े”
बुड्ढा चाय की दुकान को पूरी तरह इग्नोर करता ऊपर पहुँचा।
भीखू नीचे बैठा वापस आने का इन्तेज़ार करता रहा।
‘इंशा’ पानी पिलाने लगी।
धीरेंद्र सेठ उर्फ सेठ साहब छोटे से कमरे के छोटे से सोफे पर बैठ गए। पानी पिया।
बाहर बैठा भीखू मन ही मन कल्पना करने लगा कि अब बुड्ढे ने उस कुतिया की चोली खोली होगी।
“आपका पैर कैसा है? पिछले हफ़्ते कितनी ज़ोर से पलंग लग गया था आपके”
“अब ठीक है, सब तुम्हारी वजह से” सेठ साहब मुस्कुराए
“हम शर्मिंदा हैं” इंशा ने आंखें नीची कर लीं और सोफे पर ही बैठ गयी।
“बुड्ढा साला बड़ी हद आधे घण्टे में तो फारिग हो ही जायेगा। कितनी जान होगी कमीने में” बाहर बैठा भीखू अपना खून जलाने लगा। खुद से बड़बड़ाने लगा।
सेठ साहब ने इंशा के बालों में लगा क्लिप खोल दिया। बाल बलखाती बेलों से बिखर गए।
फिर उसके सिर पर हाथ रखा और माथा चूम लिया।
इंशा बिना कुछ बोले पास आई और सीने से लग गयी। सेठ साहब ने फिर हाथ फिराया।
दोनों कुछ वक़्त तक यूँही बैठे रहे। फिर इंशा ही अलग हुई और बोली “आराम से बिस्तर पर बैठ जाइए न, तकल्लुफ कैसा।”
“नहीं बच्चे” सेठ साहब मुस्कुराए और आत्मीयता से बोले “तुम्हें देख लिया बस यही बहुत है।” कुर्ते की जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाला और सोफे के हैंडल पर रखना चाहा।
“इसे अपने पास ही रखिए, कह देते हैं हम” इंशा भड़की
“हर बार क्यों चिल्लाती हो मुझपर”
“आपकी हरकतों की वजह से, हमें नहीं चाहिए आपकी खैरात” इंशा ने लिफ़ाफ़ा वापस थमा दिया
“पागल” सेठ साहब ज़रा सा मुस्कुराए “ख़ैरात नहीं ये हक़ है तुम्हारा मुझपर। मेरे बनाने वाले ने कर्ज़ दिया है मुझे। वही चुका रहा हूँ।”
“ये कोई बात न हुई सेठ साहब, आप हमें छूते भी नहीं और पैसा फेंक जाते हैं। देखिए उठा लीजिए उसे वर्ना पिछले हफ़्ते की तरह इस हफ़्ते भी कहीं आपके पैर में मोच न आ जाए।”
सेठ साहब फिर मुस्कुराये “देखो बच्चे, तुम मेरे जीने का सहारा हो, मेरे जीने की वजह हो, अगर तुम चाहती हो कि मैं यहाँ आना ही बंद कर दूं तो यूं समझो तुम मेरे जीने की वजह ख़त्म कर रही हो” सेठ साहब उठे और जाने लगे
“अच्छा सुनिए” वो सकुचा के बोली “कम से कम कुछ देर तो रुक जाइए, ये न लगे कि….” वो आगे न बोल सकी।
भीखू ठिठुरता रहा। कोसता रहा। ‘जाने क्या खूबी है इस छिनाल में, इससे जी ही नहीं हटता’
कुछ देर बार उसे कोठे से उतरता बुड्ढा दिखाई दिया।
भीखू दबे पांव उसकी गाड़ी की तरफ लपका और गाड़ी की आड़ में आ गया।
बुड्ढे ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला ही था कि भीखू ने उसे गर्दन से थाम लिया
“हरामी साले, कितना रोकड़ा लुटा के आया उस छिनाल पर, बता? बता वर्ना ये ठरकीपने की आखिरी रात होगी।
“छोड़…छोड़ मुझे” बुड्ढा तड़पा
“भौंक बुड्ढे, बता कितने पैसे में बिकी वो?”
बुड्ढे ने एक झटके से गर्दन छुड़ाई। भीखू ने उसके पेट पर लात मारकर उसे दोहरा कर दिया।
“क्या चाहते हो मुझसे, मैंने कुछ भी दिया हो, इससे तुम्हें क्या मतलब?”
“मतलब है, अब बक वर्ना तेरी लाश इसी कोठे के नीचे गाड़ता हूँ।”
सड़क तकरीबन सुनसान थी। इक्का-दुक्का आवाजाही हो भी रही थी तो उस कोठे के सदके। सर्दी ही इतनी थी कि कोई ‘बेवजह’ घर से निकलना नहीं चाहता था।
बुड्ढा हांफ के बोला “मेरे शादी से पहले भी किसी से नाजायज़ संबंध थे। मैं उस वक़्त इतना हिम्मती नहीं था कि उसको अपना पाता, इसलिए मैंने….”
“उसे छोड़ दिया? मरने के लिए?” भीखू ने नफरत से देखा
“छोड़ा तो नहीं, उसके रहने खाने का इंतज़ाम कर दिया, पर एक दिन उसने बताया कि वो पेट से है….”
भीखू ने बीच में टोका “कहीं इंशा तेरी नाजायज़ औलाद तो नहीं?”
“नहीं! मैं उस बच्चे को अपना नहीं सकता था पर वो ये बात समझी नहीं, उसने…उसने अजन्मी बच्ची के साथ खुद को फांसी लगा ली”
भेखू बिलकुल चुप!
तबसे आत्मा पर बोझ है। ये अकेली नहीं है, ऐसे कई और कोठों में, बार में, सिग्नल नाके पर, कई लड़कियां है जिनको मैं अपना पश्चयताप का ज़रिया बनाए हूँ। बाकी मैंने कभी किसी को गलत इरादे से हाथ भी नहीं लगाया।”
भीखू के अंदर कहीं एक सुकून ने घर बनाया।
साथ ही उसे अजीब भी लगा, स्साली हर हफ़्ते मोटा माल कमाती है, ख़र्च कहीं करती नहीं तो जाता कहाँ है?
“…ये बात इंशा को भी नहीं पता है। अगर तुम उससे मिलते जुलते हो तो उसे बताना मत”
भीखू जैसे सोते से जागा। वो क्या बताता कि इंशा तो उन जैसों को देखना भी पसंद नहीं करती।
बुड्ढे के जाने के बाद वो काफ़ी देर तक उसी चाय के खोखे में बैठा रहा। उसकी कब आंख लगी उसे पता न चला।
ठिठुरन से उसकी आंख खुली। वो बिना ओढ़े-लपेटे सो रहा था। वो घर जाने के लिए उठा ही कि उसे कोठे से छुपते-उतरते इंशा दिखाई दी। नीम अंधेरा था, लगता था सुबह होने में एक घण्टा बचा हो।
एक पल को उसे लगा मानो कोई सपना देख रहा हो।
इंशा संभलती-देखती उतर रही थी। उसका चेहरा खुला था। बाकी सारा जिस्म बुर्खे में था।
आखिरी सीढ़ी उतरते ही चेहरा भी हिजाबी हो गया।
अज्ञात भावना से प्रेरित होकर भीखू उसका पीछा करने लगा। गलियों-गलियों होती वो एक दबे कुचले घर के सामने रुकी। इक पल को पलटी तो भीखू तुरंत आड़ लेकर छुप गया। फिर इंशा ने पैराहन में से ही कहीं से चाबी बरामद की और ताला खोलने लगी।
भीखू को ये मौका अच्छा लगा, वो इस वक़्त उससे वो सारी बातें पूछ सकता था जो उसके ज़हन में बजे जा रही थीं।
“आज फंसी है साली रांड, आज कहाँ जाएगी बचके”
दरवाज़ा खुला।
इंशा अंदर घुसी।
भीखू दबें पांव दहलीज तक पहुंचा।
अंदर से किसी के रोने की आवाज़ भीखू के कानों में पड़ी।
भीखू ने अंदर झांका तो देखा इंशा एक नन्हें से बच्चे को अपना दूध पिलाने लगी।
भीखू अवाक खड़ा रहा।
उसे महसूस हुआ जैसे वो वहीं खड़े-खड़े मर गया हो।