(मीत्री मामिन-सिबिर्याक की कृति का भाषिक रूपांतर)
~> पुष्पा गुप्ता
पूर्व कथन : 1884 में लिखी गई कहानी ‘हिरनौटा’ के लेखक मीत्री मामिन-सिबिर्याक का जन्म उराल में हुआ और यहीं उन्होंने जीवन के अधिकांश वर्ष बिताए। उराल पहाड़ों और जंगलों का इलाक़ा है, जहां 18वीं सदी के आरम्भ में ज़ार प्योत्र प्रथम के ज़माने में रूसी सौदागरों ने लोहे के कारखाने बनाये थे। लेखक ने अपने संस्मरणों में लिखा था : “अभी तक मेरी आंखों के आगे लकड़ी का वह पुराना घर है, जिसकी पांच खिड़कियां चौक पर खुलती थीं।
उसकी खूबी यह थी कि एक ओर उसकी खिड़कियां यूरोप में खुलती थीं और दूसरी ओर – एशिया में। मेरे पिता मुझे दूर की पहाड़ियां दिखाते हुए बताया करते थे : ‘वह देखो, वे पहाड़ एशिया में हैं, हम यूरोप और एशिया की सीमा रेखा पर रहते हैं…’”
लेखक के पिता एक कारखाने के पादरी थे और कोई खास अमीर आदमी नहीं थे, लेकिन उन्हें किताबों का बड़ा शौक़ था। वह अपनी आमदनी का बड़ा भाग किताबें खरीदने पर खर्च करते थे। बेटे को पिता से यह साहित्य-प्रेम विरासत में मिला।
मामिन- सिबिर्याक उराल के सौदागरों, कारखानेदारों और आम लोगों के बारे में उपन्यास लिखते थे। उन दिनों उराल के आम लोग खानों और मिलों में मज़दूरी भी करते थे और साथ ही खेती भी। लेनिन ने मामिन-सिबिर्याक के बारे में कहा था : “इस लेखक की रचनाओं में हम उराल के लोगों के विशिष्ट जीवन, उनके रहन-सहन के सजीव दृश्य पाते हैं…”
मामिन- सिबिर्याक ने बच्चों के लिए लगभग 130 रचनाएं रचीं। इनमें सबसे प्रसिद्ध है जानवरों के बारे में कहानियों की पुस्तक : ‘सुनो कहानी, बिटिया रानी’। इसके अलावा ‘नदी किनारे शीत निवास’ और ‘हिरनौटा’ कहानियां भी बहुत लोकप्रिय हैं। इन रचनाओं में उराल की प्रकृति का काव्यमय चित्रण है और मेहनतकश रूसी व्यक्ति की उच्च नैतिकता उजागर की गई है।
1912 में साठ वर्ष की आयु में मामिन- सिबिर्याक का देहांत हुआ।
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बहुत दूर कहीं उराल पहाड़ों के उत्तरी भाग के घने जंगल में तीच्की नाम का एक गांव था। गांव में सिर्फ़ ग्यारह घर थे, या यों कहिए कि दस, क्योंकि ग्यारहवां घर सबसे अलग बिल्कुल जंगल के पास ही था। गांव के चारों ओर चीड़ आदि सदाबहार पेड़ों का वन ऊंची दीवार सा खड़ा था। फ़र वृक्षों की चोटियों के पीछे कुछ पहाड़ दिखाई देते थे। इन विशाल नीले-सुरमई पहाड़ों ने तीच्की को चारों ओर से अपने घेरे में बंद कर रखा था। सबसे पास था ‘झरनों का पहाड़’, जिसकी सफ़ेद चोटी खराब मौसम में धुंधले बादलों के पीछे छिप जाती थी। ‘झरनों के पहाड़’ से बहुत से सोते और झरने बहते थे। ऐसा ही एक झरना तीच्की तक आता था और सर्दी-गर्मी-बारहों महीने – लोग उसका ठंडा, ओस सा निर्मल जल पीते थे।
तीच्की में घर बेतरतीब बने हुए थे, जिसका जहां मन आया बना लिया। दो घर ऐन नदी के तट पर थे, एक पहाड़ की तेज़ ढलान पर और बाकी – नदी किनारे इधर-उधर बने हुए थे – तितर-बितर हो गई भेड़ों के समान। तीच्की में कोई गली भी नहीं थी, घरों के बीच बस एक पगडंडी चली गई थी। तीच्की वालों को गली की ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि उनके पास कोई घोड़ा-गाड़ी तक न थी, जिसे वे गली में चलाते। गर्मियों में यह गांव दुर्गम दलदलों और झाड़-झंखाड़ भरे जंगल से घिरा होता था, सो संकरी जंगली पगडंडियों से भी वहां मुश्किल से ही पहुंचा जा सकता था और वह भी सदा नहीं। बारिशों के दिनों में पहाड़ी नदियां उफनतीं और तीच्की के शिकारियों को तीन-तीन दिन तक पानी उतरने का इंतज़ार करना पड़ता।
तीच्की के सभी मर्द शिकार के धत्ती थे। सर्दियां हों या गर्मियां वे जंगल में ही घुसे रहते थे – अच्छा था कि जंगल भी बगल में ही था। हर मौसम का अपना शिकार होता था : जाड़ों में वे भालू, मार्टेन, भेड़िये और लोमड़ी का शिकार करते थे ; शरद में गिलहरी का, वसंत में जंगली बकरियों और गर्मियों में भांति-भांति के पक्षियों का शिकार करते थे। संक्षेप में, बारहों महीने उनको भारी काम करना होता था, जो अकसर ख़तरे से खाली नहीं होता था।
जंगल के बिल्कुल पास ही बने घर में बूढ़ा शिकारी येमेल्या अपने नन्हे पोते ग्रिशूक, के साथ रहता था। येमेल्या का लकड़ी के लट्ठों का बना घर ज़मीन में धंसा हुआ लगता था, उसमें बस एक ही खिड़की थी। छत की लकड़ियां कब की सड़ चुकी थीं, चिमनी ईंटों का ढेर बनकर रह गई थी। येमेल्या के घर के चारों ओर बाड़ नहीं थी, न ही फाटक था और न कोई कोठरी ही। घर के दरवाज़े पर बने लट्ठों के चबूतरे तले रात को भूखा लीस्को हूकता रहता था। लीस्को पूरे गांव का एक सबसे अच्छा शिकारी कुत्ता था। हर बार शिकार पर निकलने से पहले येमेल्या बेचारे लीस्को को तीन दिन तक भूखा रखता था, ताकि वह अच्छी तरह शिकार ढूंढ़े।
“दादा… दादा… अब तो हिरन हिरनौटों के साथ घूम रहे होंगे। है न, दादा…” एक दिन शाम को नन्हा ग्रिशूक दादा से पूछ रहा था। उसके मुंह से बोल मुश्किल से निकल रहे थे।
“हां बेटे, हिरनौटों के साथ घूम रहे हैं,” पेड़ की छाल से अपने लिए जूता बनाते हुए दादा ने जवाब दिया।
“दादा, हिरनौटा ले आओ, तो कितना अच्छा रहे, हैं दादा?”
“हां, हां, बेटे, लाएंगे। क्यों नहीं लाएंगे। गर्मियां आ गई हैं, अब हिरन हिरनौटों के साथ कुकुरमाछियों से बचने के लिए घने झुरमुटों में छिपेंगे। बस तभी मैं हिरनौटे का शिकार कर लाऊंगा। तुम थोड़ा सब्र रखो।”
लड़के ने कुछ जवाब नहीं दिया, बस एक ठंडी सांस भरी। ग्रिशूक सिर्फ़ छह बरस का था, पिछले दो महीनों से वह लकड़ी के तख्त पर हिरन की गर्म खाल ओढ़े पड़ा हुआ था। वसंत में, जब बर्फ पिघल रही थी, तभी उसे सर्दी लग गई थी और वह तब से ठीक ही नहीं हो पा रहा था। उसका सांवला चेहरा पीला पड़ गया था, लंबा हो गया था, आंखें बड़ी-बड़ी लगने लगी थीं, नाक तीखी हो गई थी। येमेल्या देख रहा था कि पोता दिन पर दिन घुलता जा रहा है, पर समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। जड़ी-बूटियों का काढ़ा बनाकर भी पिलाता रहा था, दो बार उसे हम्माम में भी ले गया था – पर बच्चे की हालत सुधर नहीं रहीं थी। ग्रिशूक खाता भी कुछ नहीं था। रोटी का टुकड़ा चबा लेता और बस। वसंत से बकरी का नमक लगा मांस बचा हुआ था, पर ग्रिशूक उसकी ओर देखना तक नहीं चाहता था।.
छाल के जूते बन चले थे। दादा सोच रहे थे : “देखो तो, क्या चाहता है – हिरनौटा… जैसे-तैसे हासिल करना ही होगा।”
येमेल्या सत्तर बरस का हो चला था – बाल सफ़ेद, कमर झुकी हुई, शरीर दुबला-पतला और लंबी-लंबी बांहें। येमेल्या के हाथों की उंगलियां मुश्किल से मुड़ती थीं, मानो वे काठ की बनी हों।
पर चलता वह फुर्ती से था और थोड़ा-बहुत शिकार भी कर लेता था। हां, बूढ़े की नज़र जवाब देने लग गई थी, खास तौर पर जाड़ों में जब धवल हिम झिलमिलाता था, हीरों की कनियों की तरह चमकता था, तब बूढ़े येमेल्या को बहुत तकलीफ़ होती थी। येमेल्या की आंखों की वजह से ही चिमनी ढह गई थी और छत सड़ गई थी और खुद भी वह अक्सर घर पर बैठा रहता था जबकि दूसरे लोग जंगल में होते थे।
बूढ़े के लिए चैन से घर पर आराम से रहने के दिन आ गए थे, पर कोई उसकी जगह संभालनेवाला नहीं था, ऊपर से ग्रिशूक को भी बस उसी का सहारा रह गया था, बूढ़े येमेल्या को उसकी देखभाल करनी थी… ग्रिशूक के बाप को तीन साल पहले ताप हुआ था, उसी में वह मर गया था। मां जाड़े की एक शाम को बेटे के साथ गांव से घर लौट रही थी, जब भेड़ियों ने उन्हें आ घेरा था। यह चमत्कार ही था कि बच्चा बच गया। मां की टांगों पर जब भेड़िये टूट पड़े थे, तो उसने बेटे को अपने शरीर से ढक लिया था और ग्रिशूक बच गया था।
बूढ़े दादा को पोते का पालन-पोषण करना पड़ा, ऊपर से यह बीमारी आ गई। मुसीबत कभी अकेली नहीं आती….!
(2)
जून महीने के आखिरी दिन थे। तीच्की में इन्हीं दिनों सबसे ज़्यादा गर्मी पड़ती थी। बूढ़े और बच्चे ही घरों पर रह गए थे। शिकारी जंगलों में हिरनों का शिकार करने जा चुके थे। येमेल्या के घर में बेचारा लीस्को तीन दिन से भूख से हूक रहा था, जैसे भेड़िये जाड़ों में हूकते हैं।
“लगता है, येमेल्या शिकार पर जा रहा है,” गांव में औरतें कह रही थीं।
यह सच था। सचमुच ही, थोड़ी देर में येमेल्या तोड़ेदार बंदूक हाथ में लिये घर से निकला, कुत्ते को खोला और जंगल की ओर चल दिया। वह छाल के नए जूते पहने था, कंधे पर झोला लटक रहा था, जिसमें रोटी थी। उसने फटा-पुराना कफ़्तान* (* लम्बे ओवरकोट जैसा पहनावा।) और सिर पर हिरन की खाल का कनटोप पहन रखा था। बूढ़ा कई बरसों से हल्की टोपी नहीं पहन रहा था, सर्दी-गर्मी में हिरन की खाल का कनटोप ही पहने रहता था जो उसके गंजे सिर की पाले से भी और गर्मी से भी अच्छी तरह रक्षा करता था।
“अच्छा ग्रिशूक बेटे, अब तुम मेरे आने तक ठीक हो जाओ,” येमेल्या ने चलते हुए पोते से कहा। “बुढ़िया मलान्या तुझे देख जाया करेगी, मैं जाकर तेरे लिए हिरनौटा लाता हूं।”
“दादा, हिरनौटा लाओगे न?”
“कहा तो बेटे, ले आऊंगा।”
“पीला-पीला हिरनौटा?”
“हां, बच्चे, पीला-पीला …”
“अच्छा, मैं तुम्हारी बाट जोहूंगा… देखना, गोली चलाओगे, तो निशाना न चूकना…”
येमेल्या कई दिनों से हिरनों के शिकार पर जाने की सोच रहा था, लेकिन पोते को अकेले नहीं छोड़ना चाहता था। मगर अब उसकी हालत कुछ सुधरी लगती थी, सो बूढ़े ने क़िस्मत आज़माने का फ़ैसला किया था। और बूढ़ी मलान्या भी ग्रिशूक की देखभाल करने को तैयार हो गई थी – घर पर अकेले बैठे रहने से यही अच्छा था।
जंगल येमेल्या के लिए घर के समान ही था। वह जंगल को जानता भी कैसे नहीं, जबकि सारी उम्र वह बंदूक और कुत्ते के साथ जंगल में घूमता रहा था। चारों ओर सौ मील तक वह सारी पगडंडियां, सारी निशानियां जानता था।
अब जून के अंत में जंगल बड़ा ही सुहावना लग रहा था। तरह-तरह की घास और बूटियों में रंग-बिरंगे फूल खिल रहे थे, हवा में भीनी-भीनी महक थी और आकाश में गर्मियों का स्निग्ध सूरज चमक रहा था, जंगल और घास पर, कलकल बहती नदी और दूर के पहाड़ों पर प्रकाश बरसा रहा था।
हां, जिधर नज़र जाती, वहीं मनभावना दृश्य नज़र आता था। येमेल्या कई बार रुका – सांस लेने को और इधर-उधर देखकर आंखों से सुख पाने को।
जिस पगडंडी पर वह जा रहा था, वह सांप की तरह बल खाती, बड़े-बड़े पत्थरों और चट्टानों के तेज़ उभारों से बचकर निकलती हुई पहाड़ पर चली गई थी। बड़े-बड़े पेड़ काटे जा चुके थे, रास्ते के आस-पास भोज के नए पेड़ और मधु लवंग की झाड़ियां उग रही थीं, रोवान वृक्षों के हरे छत्र फैले हुए थे। जहां-तहां नए फ़र वृक्षों के घने झुरमुट भी थे – रास्ते के पास ही उनकी हरी बाड़ बनी होती, पंजेनुमा, झबरीली टहनियां फैली होतीं। पहाड़ के बीच तक पहुंचकर एक जगह से दूर के पहाड़ों और तीच्की का खुला नज़ारा दिखता था। गांव गहरी, तंग घाटी के तल पर खोया हुआ था। किसानों के घर यहां से काले धब्बों से लगते थे। येमेल्या आंखों को धूप से बचाते हुए देर तक अपने घर को देखता रहा और पोते के बारे में सोचता रहा।
पहाड़ से उतरकर जब वे फ़र वृक्षों के घने जंगल में घुसे तो येमेल्या ने कहा : “चल, लीस्को, ढूंढ़!”
लीस्कों को दो बार कहने की ज़रूरत नहीं थी। वह अपना काम अच्छी तरह जानता था। अपनी नुकीली थूथनी से ज़मीन सूंघता हुआ वह हरे झुरमुट में खो गया। थोड़ी देर को ही पीले चकत्तोंवाली उसकी पीठ नज़र आई।
शिकार शुरू हो गया था।
भीमकाय फ़र वृक्षों की नुकीली चोटियां आसमान तक उठी लगती थीं। झबरीली टहनियां एक दूसरे में गुंथी हुई थीं और उनसे शिकारी के सिर के ऊपर अभेद्य छत बनी हुई थी, जिसमें से कहीं-कहीं ही सूरज की किरण इठलाती चली आती थी और पीली सी काई पर सुनहरा चकत्ता बना देती थी या पर्णांग की चौड़ी पत्ती को चमका देती थी। ऐसे जंगल में घास नहीं उगती, येमेल्या कालीन जैसी नरम काई पर चला जा रहा था।
कुछेक घंटों तक शिकारी इस जंगल में भटकता रहा। लीस्को तो मानो धरती में समा गया था। बस, कभी-कभार ही पांव तले टहनी चटक जाती या कोई चटकीला कठफोड़वा एक पेड़ से उड़कर दूसरे पर जा बैठता। येमेल्या बड़े ध्यान से चारों ओर सब कुछ देख रहा था : कहीं कोई निशानी तो नहीं है, हिरन अपने सींगों से कोई टहनी तो नहीं तोड़ गया, काई पर कहीं खुरों के निशान तो नहीं। जंगल में कहीं-कहीं काई के बीच ज़मीन उभरी हुई थी और इन उभारों पर घास उगती थी। येमेल्या देख रहा था कि यह घास कहीं नुची हुई है कि नहीं। अंधेरा घिरने लगा था। बूढ़े को थकावट महसूस होने लगी थी। रात काटने का भी कोई इंतज़ाम करना था। “शायद हिरनों को दूसरे शिकारियों ने डरा दिया है,” येमेल्या सोच रहा था। पर तभी लीस्को के किकियाने की हल्की सी आवाज़ सुनाई दी, और आगे कहीं टहनियां चटकीं। येमेल्या फ़र के तने से सटककर खड़ा हो गया और इंतज़ार करने लगा।
यह हिरन ही था। दस सींगों वाला सुंदर हिरन, सभी वन्य पशुओं में सबसे भव्य जीव। लो, उसने अपने सींगों को पीठ से लगा लिया और ध्यान से सुनने लगा, हवा को सूंघने लगा, ताकि पलक झपकते ही बिजली की तरह हरे झुरमुट में ग़ायब हो जाए।
बूढ़े येमेल्या ने हिरन को देख लिया, पर वह बहुत दूर था : गोली वहां तक नहीं पहुंचेगी। लीस्को झुरमुट में लेटा हुआ, सांस रोके गोली चलने का इंतज़ार कर रहा था ; उसके नथुनों में हिरन की गंध थी।
गोली चली और हिरन तीर की तरह भाग उठा। येमेल्या का निशाना चूक गया था, लीस्को भूख के मारे हूक उठा। बेचारे कुत्ते को हिरन के भूने मांस की गंध आ रही थी, बड़ी सी हड्डी दिखाई दे रही थी, जो मालिक उसे देगा, लेकिन इसके बजाय उसे भूखे पेट सोना पड़ रहा था। बहुत ही बुरी बात थी।
“चलो, मौज लेने दो उसे… हमें तो हिरनौटा पाना है…सुना तूने, लीस्को?” रात को सौ साला फ़र वृक्ष के नीचे आग के पास बैठे हुए येमेल्या कह रहा था।
कुत्ता अपनी नुकीली थूथनी अगले पंजों पर रखे दुम हिला रहा था। उसके भाग में आज बस रोटी का सूखा टुकड़ा ही लिखा था, जो येमेल्या ने उसे दिया।
(3)
तीन दिन तक येमेल्या जंगल में भटकता रहा और सब बेकार : हिरनौटे के साथ हिरन उसकी नज़र में नहीं आए। बूढ़े को लग रहा था कि उसमें अब और हिम्मत नहीं रही, मगर खाली हाथ घर लौटने का साहस भी वह नहीं कर पा रहा था। लीस्को बिल्कुल उदास हो गया था और दुबला पड़ गया था हालांकि इस बीच दो-एक छोटे-छोटे खरगोश उसने पकड़ लिए थे।
तीसरी रात भी उन्हें जंगल में आग के पास काटनी पड़ रही थी। सपने में भी बूढ़े येमेल्या को पीला सा हिरनौटा दिखता था, जैसा ग्रिशूक ने लाने को कहा था ; बूढ़ा देर तक निशाना बांधता रहता, पर हर बार हिरन भाग निकलता। लीस्को को भी शायद हिरन दिख रहे थे, क्योंकि वह कई बार किकियाया था और भौंकने लगा था।
चौथे दिन जब शिकारी और कुत्ता बिल्कुल निढाल हो गए थे, अचानक ही उन्हें हिरन और हिरनौटे के निशान मिल गए। वे पहाड़ की ढलान पर फ़र के घने झुरमुट में थे। सबसे पहले तो लीस्को ने वह जगह ढूंढ़ी, जहां हिरन ने रात काटी थी और फिर घास में खोई खुरी भी सूंघ निकाली।
“हिरनी और हिरनौटा हैं,” घास पर छोटे और बड़े खुरन्यास देखते हुए येमेल्या सोच रहा था। “आज सुबह यहीं थे… लीस्को, ढूंढ़ भैया, ढूंढ़…”
चिलचिलाती धूप थी, हवा में तपस थी। कुत्ता जीभ बाहर निकाले झाड़ियां और घास सूंघ रहा था; येमेल्या मुश्किल से टांगें घसीट रहा था। अचानक जानी-पहचानी चटक और सरसराहट सुनाई दी। लीस्को घास पर सपाट हो गया, ज़रा भी हिल-डुल नहीं रहा था। येमेल्या के कानों में पोते के शब्द गूंज रहे थे : “दादा, हिरनौटा लाना… पीला हिरनौटा हो। वह रही हिरनी। कितनी सुंदर थी हिरनी। वह जंगल के सिरे पर खड़ी थी और सहमी सी सीधे येमेल्या की ओर देख रही थी। कीड़े-मकोड़ों का झुंड उसके ऊपर मंडरा रहा था, जिससे वह रह-रहकर सिहर उठती थी
“नहीं, तू मुझे धोखा नहीं दे पाएगी,” येमेल्या अपने घात स्थान से बाहर निकलते हुए सोच रहा था।
हिरनी काफ़ी पहले ही शिकारी की गंध पा चुकी थी, पर वह निडर होकर उसकी हरकतों को देखे जा रही थी।
“मुझे हिरनौटे से दूर ले जाना चाहती है,” रेंग-रेंगकर उसके पास पहुंचते हुए येमेल्या के मन में आया।
बूढ़ा निशाना बांधना ही चाहता था कि हिरनी सावधानी से थोड़ी दूर भाग गई और फिर खड़ी हो गई। येमेल्या फिर अपनी बंदूक के साथ रेंगने लगा।
फिर वह हौले-हौले हिरनी के पास पहुंचा और फिर से ज्यों ही उसने गोली चलानी चाही, हिरनी भाग खड़ी हुई।
कई घंटों तक येमेल्या बड़े धीरज से हिरनी का पीछा करता रहा। वह बुदबुदा रहा था : “नहीं तू हिरनौटे से दूर नहीं जा पाएगी।”
मनुष्य और पशु का यह द्वंद्व सांझ ढले तक चलता रहा। शिकारी को छिपे बैठे हिरनौटे से दूर ले जाने की चेष्टा में मां ने दस बार अपनी जान खतरे में डाली। बूढ़े येमेल्या को अपने शिकार की इस निडरता पर गुस्सा भी आ रहा था और हैरानी भी हो रही थी। आखिर बचकर तो वह जा नहीं पाएगी कितनी बार उसने इस तरह अपनी बलि दे रही मां को मारा था! लीस्को परछाईं की भांति अपने मालिक के पीछे-पीछे रेंग रहा था, और जब हिरन नज़रों से बिल्कुल ओझल हो गया, तो हौले से अपनी गर्म नाक उसकी टांग पर मारी।
बूढ़े ने पलटकर देखा और फ़ौरन नीचे झुक गया। उससे कोई बीस गज़ दूर मधु लवंग की झाड़ी तले वही पीला हिरनौटा खड़ा था, जिसकी खोज में वह तीन दिन से भटक रहा था। बड़ा प्यारा हिरनौटा था, कुछ ही हफ़्तों का – पीले-पीले रोयें और पतली टांगें, सुंदर सिर पीछे को उठा हुआ था, और जब वह ऊपर की टहनी को पकड़ना चाहता तो अपनी लचीली गरदन खींचता।
शिकारी के हृदय की धड़कन मानो थम गई थी, उसने बंदूक का घोड़ा चढ़ाया और नन्हे, असहाय जीव के सिर का निशाना साधा…
बस एक क्षण और, और नन्हा हिरनौटा अंतिम चीख के साथ घास पर लुढ़क जाता, पर इसी क्षण बूढ़े शिकारी को याद हो आया कि कितनी वीरता के साथ इसकी मां इसकी रक्षा कर रही थी, यह भी याद हो आया कि कैसे उसके ग्रिशूक की मां ने अपनी जान देकर बेटे को भेड़ियों का निवाला होने से बचाया था। बूढ़े येमेल्या के दिल पर सहसा एक चोट सी लगी, और उसने बंदूक नीची कर ली। हिरनौटा पहले की ही तरह झाड़ी के पास टहल रहा था, पत्तियां नोच रहा था और ज़रा सी आहट सुनने को चौकन्ना था। येमेल्या ने जल्दी से खड़े होकर सीटी बजाई नन्हा हिरनौटा बिजली की तरह झाड़ियों में ग़ायब हो गया।
“वाह रे, कैसे दौड़ता है,” बूढ़ा कह रहा था और कुछ सोचते हुए मुस्करा रहा था। “तीर सा उड़ गया… देखा, लीस्को, भाग गया हमारा हिरनौटा! ठीक है, अभी तो उसे बड़ा होना है… देख तो, कितना फुर्तीला है!”
बूढ़ा देर तक एक ही जगह पर खड़ा खड़ा मुस्कराता रहा, हिरनौटे को याद करता रहा।
दूसरे दिन येमेल्या अपने घर लौटा।
“दादा हिरनौटा लाए?” ग्रिशूक ने पूछा, जो बड़ी बेसब्री से दादा के लौटने का इंतज़ार करता रहा था।
“नहीं, ग्रिशूक, पर मैंने देखा था उसे!”
“पीला था?”
“हां, पीला-पीला, और थूथनी काली। झाड़ी के नीचे खड़ा पत्तियां नोच रहा था… मैंने निशाना साधा…”
“और चूक गए?”
“नहीं, ग्रिशूक : मुझे तरस आ गया नन्हे हिरनौटे पर, हिरनी पर। मैंने सीटी बजाई और बस हिरनौटा चौकड़ियां भरता झाड़ियों में ग़ायब हो गया। भाग गया, कमबख्त…”
बूढ़ा येमेल्या बड़ी देर तक पोते को यह बताता रहा कि कैसे वह तीन दिन तक जंगल में हिरनौटे को खोजता रहा था और कैसे वह उससे बचकर भाग निकला। लड़का सुनता रहा और बूढ़े दादा के साथ जी खोलकर हंसता रहा।
“मैं तुम्हारे लिए जंगली मुर्गा लाया हूं, ग्रिशूक,” कहानी खत्म करते हुए येमेल्या दादा ने कहा। “इसे मैं न मारता, तो भेड़िये खा जाते।”
जंगली मुर्गे को छील-छालकर साफ़ किया गया और पतीले में डाल दिया गया। लड़के ने खुशी-खुशी शोरबा पिया। सोने से पहले उसने कई बार दादा से पूछा : “दादा, हिरनौटा भाग गया?”
“हां, बेटे, भाग गया”
“पीला था?”
“हां, सारा पीला-पीला था, बस थूथनी और खुर काले थे।
यह सब सुनते-सुनते ही बच्चा सो गया और सारी रात उसे सपने में नन्हा सा पीला-पीला हिरनौटा दिखाई देता रहा, जो जंगल में अपनी मां के साथ घूम रहा था; बूढ़ा भी अलावघर पर सो रहा था और नींद में मुस्करा रहा था।