अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

*कहानी : मनौती*

Share

       ~ सोनी तिवारी, वाराणसी

जैसे-जैसे रेलगाड़ी कानपुर की सीमा में प्रवेश करती जा रही थी, मेरा मन डूबता जा रहा था. कैसा होगा बुआ के घर का माहौल, छोटे भइया की बेटी पैदा होने के बाद? पिछली बार बड़े भइया का बेटा हुआ था, तो बुआ एकदम बौराई घूम रही थीं. कभी हलवाई को डपटती थीं, कभी भाभी को जाकर ममता भरी निगाहों से देख आती थीं और अपनी बड़ी पोती को चूमकर बीसों बार वही बात, “छोटा भइया आ गया हमारी सुम्मी का…”

हालांकि बुआ ने सुम्मी के जन्म पर भी इतनी ही ख़ुशी दिखाई थी, लेकिन मेरे मन में तो वो उनकी ‘मनौती वाली डायरी’ अटकी हुई थी, जो मैंने देख ली थी उनके पोते के जन्म के कुछ दिनों पहले… चुपचाप. अनगिनत मनौतियां और उनके आगे ✔ का निशान यानी पूरी हो गई. मैं मुस्कुराने लगी थी कि तभी अगले पन्ने पर लिखे शब्दों ने मुस्कुराहट रोक दी थी.

‘रामजी, अबकि पोता हो जाए, तो इस मंदिर में इतना प्रसाद, उस मंदिर की इतनी परिक्रमा… वहां पर इतने नारियल…’ मेरा मन खिन्न हो गया था. बुआजी से मुझे ये उम्मीद नहीं थी! उनको मैंने हमेशा आज की नारी के रूप में देखते हुए अपना आदर्श ही माना था और उनकी इतनी छोटी सोच?

उसके बाद छोटे भइया को जब बेटा हुआ, तब भी मैं उसी बात को सोचकर परेशान रही और अंततः गई नहीं थी. लेकिन इस बार छोटे भइया की बेटी का जन्म और बुआजी के सड़क पर गिरने की ख़बर एक साथ आई. कुछ भी हो, हैं तो बुआ ही, ये सब सुनकर मुझसे रुका ना गया.

“ड्राइवर को भेज देते भइया, आप क्यों आए? बधाई हो भइया, अब तो गुड़िया भी आ गई घर में…” स्टेशन पर भइया को देखकर आंखें भर आईं.

“बुआजी को ज़्यादा चोट तो नहीं आई ना?”

“मम्मी ठीक हैं मीतू. थोड़ी सूजन है पैरों में, आराम करने को कहा है डाक्टर ने.” भइया ने मेरे हाथ से अटैची लेते हुए कहा.

घर का माहौल उत्साह से भरा हुआ था. सजावट, हलवाई, सब कुछ बढ़िया… लेकिन मेरी कल्पना को निराश करता हुआ, ‘उंह! ये सब तो भइया लोग करवा रहे होंगे. उदासी तो वहां पसरी होगी. बुआ तो बिटिया होने के बाद मुंह सुजाए बैठी होंगी भाभी से भी, अपने रामजी से भी…’

भाभी और बच्ची से मिलकर मैं दनदनाती हुई सीढियां चढ़कर सीधे बुआजी के कमरे में पहुंची. सच में उदासी पसरी हुई थी.

“बुआ, सो रही हो क्या? बधाई हो पोती हुई है…” मैंने जान-बूझकर ‘पोती’ शब्द पर ज़ोर डाला. बुआ ने अनमने भाव से दरवाज़े की ओर देखा और मुझे देखते ही उनकी आंखें भर आईं.

“मुझसे बात मत कर… कितने सालों बाद आई है, याद भी है?.. मोहित को छुट्टी नहीं मिली ना?..” वो साड़ी के पल्लू से आंखे पोंछते हुए उठने लगीं, मैं आत्मग्लानि से भर गई.

सच में, ऐसा भी क्या नाराज़गी थी कि मैंने एकदम ही मुंह मोड़ लिया था.

“ये आएंगे बुआ, लेकिन सीधे फंक्शन में.. एक ही दिन की छुट्टी मिली है…” उनके चेहरे पर कुछ निशान थे, मैंने चेहरा सहलाते हुए कहा, “और ये सब क्या है? कहां गिर गईं, इतनी चोट लगवा आईं?”

बुआ दरवाज़े की ओर देखते हुए फुसफुसाईं, “बताना नहीं किसी को.. मंदिर के बाहर एक मोटरसाइकिल वाले से टक्कर हो गई थी. मैंने तो सबको बताया कि पांव फिसल गया था यहीं बाहर सड़क पर… इतनी हड़बड़ी थी उस दिन. फोन आया अस्पताल से, तुरंत गीता मंदिर भागे, फिर अस्पताल जाना था… क्या बताएं, बैठे बिठाए सिरदर्द हो गया. अच्छा, एक काम कर दरवाज़ा उड़काकर सामने आलमारी खोल, पेटीकोट के गट्ठर के नीचे एक लाल डायरी रखी होगी.. ला जल्दी.”

मैं आधी-अधूरी बात समझते हुए उठी और यंत्रवत वही ‘घातक डायरी’ लाकर मैंने उनके सामने रख दी.

“देख मीतू, मुझे तो क़ैद कर दिया है डाॅक्टर ने, तू ये सब पूरी कर दे… बोलना मत किसी से, सब हंसते हैं…” बुआ ने थोड़ा झेंपते हुए एक पन्ना मेरे आगे खोल दिया. पढ़ते हुए मेरी आंखें फैली जा रही थीं.. आंसू आए जा रहे थे.. मन धुला जा रहा था…

‘रामजी, जैसे आपने बड़े बेटे के बच्चों में एक भाई, एक बहन की जोड़ी बनाए रखी.. इस बार मेरी छोटी बहू को बिटिया दे दो, यहां भी परिवार पूरा कर दो. अगर इस बार पोती हो गई, तो इस मंदिर में दो किलो बूंदी… वहां पर इक्कीस नारियल… पांच गरीबों को कंबल… और ख़बर आते ही सबसे पहले गीता मंदिर में सवा किलो के पेड़े…”

ReplyForward
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें