( कैथरीन मैन्सफील्ड की कृति का भाषिक रूपांतर )
~ पुष्पा गुप्ता
पूर्व कथन : कैथरीन मैन्सफील्ड ने बीसवीं शताब्दी की अंग्रेज़ी कहानी को एक नयी शैली दी। मनोवैज्ञानिक द्वन्द्वों-टकरावों पर केन्द्रित उनकी कहानियों में सूक्ष्म प्रेक्षण और आम लोगों के जीवन में प्रवेश करने की ऐसी कला दिखाई देती है जो चेखव की याद दिलाती है। कथानक और अन्त से मुक्त उनकी अधिकांश कहानियाँ आन्तरिक जीवन के विस्तार, भावनाओं की काव्यात्मकता और व्यक्तित्व के गोपन-अगोपन पहलुओं को उभारने की दृष्टि से अप्रतिम स्थान रखती हैं.
“इस जीवन को जियो, जूलियट। क्या शॉपेन अपनी आकांक्षाओं को, अपनी नैसर्गिक इच्छाओं को पूरा करने से डरा था? नहीं, इसीलिए वह इतना महान है। तुम ठीक उसी चीज को अपने से दूर क्यों कर रही हो जिसकी तुम्हें जरूरत है-परम्पराओं की वजह से? अपनी नैसर्गिकता को इस तरह बौना क्यों बनाती हो, क्यों अपना जीवन बरबाद करती हो?… तुमने उस सबसे आँखें मूँद ली हैं, कान बन्द कर लिये हैं जिसके लिए कोई इनसान जी सकता है…”
जीने के लिए यह उद्बोधन, परम्पराओं और रूढ़ियों का विरोध, यह विचार कि भविष्य अपनी इच्छाओं से भी बनता है, यह मैन्सफील्ड के लेखन का केन्द्रीय तत्व है। यहाँ जो बातें सपाट ढंग से कह दी गयी हैं, उसी सोच के धागों को कैथरीन ने अपनी कहानियों के ताने-बाने में करीने से बुना है।
______________________
उस साहित्यकार ने मंगलवार के मंगलवार अपने फ्लैट में सफाई करनेवाली बूढ़ी पार्कर माई के लिए दरवाजा खोला और उसके नाती के बारे में पूछा। पार्कर माई अँधेरे छोटे हॉल में खड़ी हो गई, उसने अपना हाथ बढ़ाया और उस शरीफ आदमी को दरवाजा बन्द करने में मदद करने लगी। उसने धीरे से जवाब दिया, “हमने कल उसे दफन कर दिया।”
“ओह! यह जानकर बेहद अफसोस हुआ,” साहित्यकार के लहजे से दुख झलक रहा था। वह आधा नाश्ता कर चुका था। वह एक फटीचर-सा गाउन पहने था और उसके एक हाथ में मुड़ा- तुड़ा अखबार था। लेकिन अब वह अजीब-सा महसूस करने लगा था। वह उसे कुछ और कहे बगैर अब अपने गरम सिटिंग-रूम में नहीं जा सकता था। यह सोच कर कि ये लोग जनाजा और कफन-दफन पर बड़ा ध्यान देते हैं, उसने नरम लहजे में पूछ लिया, “मैं उम्मीद करता हूँ कि कफन-दफन ठीक-ठाक से हो गया होगा।”
“माफ कीजिए, आपने कुछ पूछा,” पार्कर माई ने भर्राई आवाज में कहा।
बेचारी बूढ़ी! परेशान दिखती है। उसने कहा, “मुझे उम्मीद है कि-कि जनाजा अच्छे से हो गया होगा।” पार्कर माई ने कोई जवाब नहीं दिया। वह सिर झुकाए लड़खड़ाती हुई रसोईघर की तरफ चली गई। उसके एक हाथ में एक बोसीदा थैली थी जिसमें उसका सफाई का सामान, एक एप्रन और एक जोड़ा किरमिची जूते रखे थे। भद्र साहित्यकार ने अपनी भवें तानी और नाश्ते में जुट गया।
“मेरे ख्याल से अब वह उबर गई है, ” ब्रेड पर मार्मलेड लगाते हुए उसने कहा। पार्कर माई ने अपना बोसीदा जैकेट उतारा और दरवाजे के पीछे टाँग दिया। इसके बाद उसने एप्रन बाँधा और जूतियाँ उतारने के लिए बैठ गई। जूतियाँ पहनना या उन्हें उतारना कई साल से उसके लिए एक तकलीफदेह काम था। दरअसल, वह उस तकलीफ से इस कदर परिचित हो चुकी थी कि तस्मे खोलते ही उसका चेहरा खिंच जाता था और उस पर दर्द की लकीरें उभर आती थीं। जूते उतारने का काम पूरा करने के बाद उसने आह भरी और धीरे-धीरे अपने घुटने सहलाने लगी। “नानी! नानी!” उसका नन्हा नाती बटनवाले जूते पहने उसकी गोद में था। वह गली में खेलकर तुरन्त लौटा था।
“अरे शैतान! देख तो तूने अपनी नानी के स्कर्ट की क्या गत बना दी।” लेकिन उसने नानी के गले में बाँहें डाल दीं और उसके गाल से अपना गाल रगड़ने लगा।
“नानी, मुझे एक अठन्नी दो,” उसने खुशामद की।
“चल, हट। नानी के पास एक अधेला भी नहीं है।”
“हुँह, तुम्हारे पास है।”
“नहीं, नहीं है।”
“हाँ, है। मुझे एक अठन्नी दो।”
वह पहले ही से चमड़े के अपने पुराने पर्स को टटोलने लगी थी।
“अच्छा, अपनी नानी को तुम क्या दोगे?”
वह हल्का-सा हँसा और नानी से चिपट गया। उसने महसूस किया कि नाती की पलकें उसके गाल से सटी हैं और फड़फड़ा रही हैं। “मेरे पास कुछ नहीं है,” वह फुसफुसाया…
बूढ़ी उठी। उसने गैस के चूल्हे से लोहे की केतली उठाई और उसे नल के नीचे रख दिया। ऐसा लग रहा था कि केतली में पानी गिरने से होनेवाला शोर उसके दर्द को कम कर रहा है। उसने बाल्टी को भी पानी से भर दिया।
उस रसोईघर की हालत का बयान करने के लिए पूरी एक किताब दरकार होगी हफ्ते के दौरान भद्र साहित्यकार खुद ही सारे काम करता। मतलब यह कि जैम की एक खाली शीशी इस्तेमाल की जा चुकी चाय की पत्तियों के लिए अलग कर दी गई थी, वह उस में पत्तियाँ डालता जाता। इस बीच वह बर्तन इस्तेमाल करता जाता और गन्दे बर्तनों को एक तरफ खिसकाता जाता। और जब इस्तेमाल के लिए एक भी साफ-सुथरा काँटा नहीं बचता तो एकाध काँटे को तौलिया से पोंछकर काम चलाने की कोशिश करता। वह अपने दोस्तों को बताता कि उसकी “व्यवस्था” बहुत आसान थी और वह समझ नहीं पाता कि लोग घरेलू काम को लेकर इतना हाय-तौबा क्यों मचाते हैं।
“सीधी-सी बात है, एक-एक कर सब कुछ गन्दा कर दो, फिर किसी बुढ़िया को पकड़ो जो हफ्ते में एक बार सफाई कर दे और सब कुछ ठीक-ठाक रहेगा।” नतीजतन रसोईघर एक विशाल कूड़ेदान दिखता था। रसोई का फर्श डबलरोटी के टुकड़ों, खाली लिफाफों और अधजली सिगरेटों से पटा पड़ा था। पार्कर माई को उससे कोई नाराजगी नहीं थी। उसे उस भद्र साहित्यकार पर रहम आता था कि उस बेचारे की देखभाल करनेवाला कोई नहीं है। रसोई के धुएँ से काली पड़ चुकी खिड़की से उदास विशाल आकाश दिखाई देता था और जब भी वहाँ बादल होते तो वे पुराने-से दिखते, जिनके किनारे मसक गए हों और जगह-जगह सुराख हो गए हों, या फिर चाय के धब्बे हों।
पानी गरम हो रहा था। इस बीच पार्कर माई ने फर्श पर झाडू लगाना शुरू कर दिया। झाडू लगाते हुए उसने सोचा, “मुझे क्या मिला? कितनी सख्त जिन्दगी है मेरी।”
पड़ोसी तक उसके बारे में यही बात कहते थे। कई बार अपने बोसीदा बैग के साथ लड़खड़ाते हुए जब वह घर लौटती तो उन्हें यह कहते हुए सुनती। किसी कोने में खड़े या रेलिंग से टिके लोग कह रहे होते, “पार्कर माई की जिन्दगी कितनी कठिन है!” और उनकी यह बात इतनी सच थी कि उसे इस बात पर कोई गर्व नहीं था। यह कुछ इसी तरह की बात थी कि कोई कहे कि वह बेसमेंट बैक में 27 नम्बर में रहती है। कितनी मुश्किल है जिन्दगी….
जब वह 16 साल की हुई तो वह स्ट्रैटफोर्ड से लन्दन चली आई और बावर्चिन का काम करने लगी। हाँ, वह स्ट्रैटफोर्ड-ऑन-एवन में पैदा हुई थी। शेक्सपीयर, जनाब? नहीं। लोग उससे हमेशा शेक्सपीयर के बारे में पूछा करते। लेकिन थिएटर जाने से पहले उसने शेक्सपीयर का नाम तक नहीं सुना था।
उसके दिलो-दिमाग में स्ट्रैटफोर्ड की कोई याद बाकी नहीं थी सिवाय इसके कि “ रात में चूल्हे के पास बैठकर चिमनी से तारे देखे जा सकते थे,” और “माँ हमेशा सुअर का मांस छत से लटकाकर रखती थी।” और वहाँ सामने के दरवाजे के नजदीक कुछ था, शायद कोई झाड़ी थी और हमेशा उसमें से बहुत अच्छी खुशबू आया करती थी। लेकिन वह झाड़ी बहुत अजीब शक्ल की थी। उसे उसकी बस एक या दो बार उस वक्त याद आई जब वह अस्पताल में भर्ती थी।
जहाँ उसने पहली बार काम किया, वह बेहद खौफनाक जगह थी। उसे बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं थी। वह प्रार्थना के लिए सुबह और शाम को छोड़कर कभी ऊपर नहीं गई। हमेशा उस तहखाने में ही रहना पड़ता था। बावर्चिन एक निर्मम औरत थी। वह उसकी चिट्ठियाँ छीन लेती और पार्कर माई से पहले उन्हें खुद पढ़ती और उन्हें आग में फेंक देती क्योंकि ये चिट्ठियाँ उसे सपनों की दुनिया में ले जातीं…और गुबरैले! क्या आप यकीन करेंगे? वह जब तक लन्दन नहीं आई थी, उसने काला गुबरैला नहीं देखा था। यहाँ माई हमेशा हँस देती। काला गुबरैला नहीं देखा! यह तो ऐसा ही है जैसे किसी ने अपने पैर नहीं देखे हों।
उस परिवार के बाद वह एक डाक्टर के घर में नौकरानी रही। और वहाँ दो साल दिन-रात खटने के बाद उसने शादी कर ली। उसका पति नानबाई था।
“वह नानबाई थे, मिसेज पार्कर!” भद्र साहित्यकार कहता। वह कभी-कभार अपनी किताबों के अम्बार को एक तरफ सरका देता और उसकी तरफ भी थोड़ा ध्यान देता जिसे जिन्दगी कहते हैं। “नानबाई के साथ शादी करने का तो अपना ही मजा होगा।”
मिसेज पार्कर के चेहरे पर यकीन नहीं झलक रहा था
“इतना साफ-सुथरा काम,” भद्र पुरुष ने कहा।
मिसेज पार्कर के चेहरे पर सहमति की झलक नहीं थी।
“आपको ग्राहकों को ताजा डबलरोटियाँ देना अच्छा नहीं लगता?”
“देखिए, जनाब,” मिसेज पार्कर ने कहा। “मैं दुकान में ज्यादा समय नहीं रहती थी। हमारे तेरह बच्चे हुए और उनमें से सात को हमें दफनाना पड़ा। आप कह सकते हैं कि हम अस्पताल की दौड़ लगाते रहे।”
“हाँ, मिसेज पार्कर, आपने यह सब किया होगा।” भद्र साहित्यकार बोला। वह सिहर उठा और फिर से कलम उठा ली।
हाँ सात चले गए। और जब बाकी छह छोटे ही थे, उसका पति दारू पीकर बीमार पड़ गया। डाक्टर ने उस वक्त बताया था कि उसके फेफड़े में आटा घुस गया है। उसका पति अस्पताल के बेड पर सिर तक अपनी कमीज उठाए बैठा था और डाक्टर ने उसकी पीठ पर अपनी उँगली से एक दायरा बनाया।
“मिसेज पार्कर, अगर हम यहाँ आपरेशन कर इसे खोलें,” डाक्टर ने कहा, “तो तुम देखोगी कि उसका फेफड़ा सफेद पाउडर से भरा पड़ा है। साँस लो, मेरे दोस्त।” मिसेज पार्कर कभी यकीन के साथ यह नहीं कह सकी कि उसने सचमुच देखा था या उसे भ्रम हुआ था कि उसके मुर्दा पति के होंठों से ढेर सारा सफेद पाउडर निकला था।
उसे अपने छह नन्हे बच्चों को पालने में और खुद को खड़ा करने में सख्त संघर्ष करना पड़ा। यह भयानक था! और जब बच्चे स्कूल जाने की उम्र के हो गए तो उसकी ननद उसकी मदद करने उसके यहाँ आ गई। उसके आए हुए दो महीने भी नहीं गुजरे होंगे कि वह सीढ़ियों से फिसलकर गिर गई। उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट लगी। घायल ननद बच्चों से भी बदतर थी। वह खूब चीखती-चिल्लाती। मिसेज पार्कर पाँच साल तक उसकी तीमारदारी करती रही। और फिर बेटी मौडी गलत राह पर चल पड़ी और अपनी बहन एलिस को भी अपने साथ ले गई। उसके दो बेटे परदेस कमाने चले गए और छोटा जिम सेना के साथ हिन्दुस्तान चला गया। सबसे छोटी एथेल ने एक नाकारा वेटर से शादी कर ली जिसकी मौत रसौली फटने से उसी साल हुई जिस साल नन्हा लेनी पैदा हुआ था। और अब नन्हा लेनी- मेरा नाती…
गन्दी प्यालियों और गन्दी तश्तरियों का पूरा अम्बार धोया और सुखाया जा चुका था। स्याह पड़ चुके चाकुओं को आलू के टुकड़े से साफ किया गया था और कार्क के टुकड़े से चमका दिया गया था। मेज को धो-पोंछ दिया गया था और ड्रेसर और सिंक भी साफ हो चुके थे जिनमें मछली की हड्डियाँ तैर रही थीं…
वह कभी हट्टा-कट्टा और मजबूत बच्चा नहीं था, शुरू से ही नहीं था। वह उन खूबसूरत बच्चों में था जिन्हें उनके नाजुक नक्शो-निगार की वजह से लोग लड़की समझ लिया करते हैं। चाँदी की-सी चमकदार जुल्फों की लटें, नीली आँखें और नाक की एक तरफ हीरे की शक्ल का एक चकत्ता। उस बच्चे को पालने के लिए उसने और एथेल ने क्या-क्या न जतन किए! अखबार पढ़कर तरह-तरह के नुस्खे नन्हे बच्चे पर आजमाए गए! हर इतवार को एथेल बुलन्द आवाज में अखबार पढ़ती जबकि पार्कर माई सफाई का अपना काम निबटाती।
“हाँ जनाब – आपकी जानकारी के लिए बस एक लाईन लिख रहा हूँ कि मेरा नन्हा मिर्टिल लगभग मर चुका था… चार बोतल के बाद… नौ हफ्तों में वजन आठ पाउंड बढ़ गया, और यह सिलसिला अब भी जारी है। “
और उसके बाद अलमारी से अंडे की शक्लवाला दवात निकाला जाता और फिर खत लिखा जाता, और अगली सुबह काम पर जाते वक्त माई उसे पोस्ट कर आती। लेकिन कुछ काम नहीं आया। किसी भी चीज से नन्हे लेनी का वजन नहीं बढ़ा। कब्रिस्तान ले जाने के समय भी उसका रंग नहीं बदला। बस में खूब झटके लगने से भी कभी उसकी भूख नहीं बढ़ी।
लेकिन वह पहले ही दिन से नानी का बच्चा था…
चूल्हे से उठकर कमर सीधी करते हुए मैली खिड़की की तरफ कदम बढ़ाती पार्कर माई ने पूछा, “किसके बच्चे हो तुम?” और एक हल्की-सी आवाज इतनी गर्मजोशी से और इतने करीब से आई कि उसे लगा कि उसका गला रुँध रहा है। उसे लगा कि वह आवाज उसके दिल के नीचे उसकी छाती में हो और कह रही हो, “मैं नानी का बेता हूँ!”
तभी कदमों की आहट आई और साहित्यकार सैर के लिबास में नमूदार हुआ। “मिसेज पार्कर, मैं बाहर जा रहा हूँ।”
“जी अच्छा, जनाब।”
“और तुम्हारा आधा पाउंड कलमवाली ट्रे में रखा है।”
“शुक्रिया, जनाब।”
“हाँ, एक बात और,” साहित्यकार ने तेजी से कहा, “पिछली बार जब तुम यहाँ थी, तुमने कोको फेंका नहीं था-या फेंका था?”
“नहीं, जनाब।”
“अजीब बात है! मैं कसम खा सकता हूँ कि मैंने टिन में चाय के चम्मच भर कोको छोड़ दिया था।” वह अचानक रुक गया। उसने नरमी से मगर दृढ़ लहजे में कहा, “तुम जब भी कोई चीज फेंकोगी, मुझे बता दोगी-है ना मिसेज पार्कर?” और वह इस यकीन के साथ खुश-खुश वहाँ से चला गया कि उसने पार्कर माई को जता दिया है कि वह लापरवाह दिखता है, लेकिन है वह किसी औरत की तरह चौकन्ना और चौकस।
दरवाजा बन्द होने की आवाज आई। पार्कर माई ने अपने ब्रश और कपड़े उठाए और बेडरूम में चली गई। लेकिन जब वह बिस्तर ठीक करने लगी और थपथपाकर बिस्तर की शिकनें दुरुस्त करने लगी तो नन्हे लेनी की याद उसे तड़पाने लगी। आखिर क्यों उस नन्ही सी जान को इतनी तकलीफें झेलनी पड़ीं? यह बात ऐसी थी जो उसकी समझ से बाहर थी। आखिर क्यों किसी फरिश्ते जैसी नन्ही सी जान को एक-एक साँस के लिए तड़पना और जूझना पड़ा? किसी बच्चे को इस तरह तड़पाने का कोई मतलब नहीं था।
..लेनी की छोटी-सी छाती के बक्से से कुछ ऐसी आवाज आई जैसे वहाँ कुछ उबल रहा हो। उसकी छाती में किसी चीज का एक बड़ा-सा टुकड़ा अटका पड़ा बलबल कर रहा था जिससे वह निजात नहीं पा रहा था। जब वह खाँसा तो उसके माथे पर पसीना आ गया; उसकी आँखें उबल पड़ीं और हाथ थरथराने लगे और वह बड़ा-सा टुकड़ा इस तरह बलबल करने लगा जैसे सॉसपैन में आलू का टुकड़ा उछलता है। लेकिन इन सबसे भयानक बात यह थी कि जब वह खाँस नहीं पाता तो वह तकिए का सहारा लेकर बैठ जाता और कभी कुछ नहीं बोलता या जवाब देता और ऐसा लगता मानो वह कुछ सुन ही नहीं रहा हो। वह सिर्फ आहत-सा तकता रहता।
पार्कर माई उसके सुर्ख कानों से नम बालों के गुच्छे हटाते हुए बोली, “मेरे अजीज, तुम्हारी गरीब बूढ़ी नानी की उसमें कोई गलती नहीं है।” लेकिन लेनी ने अपना सिर घुमा लिया और दूसरी तरफ देखने लगा। वह उसकी बातों से बेहद आहत था। उसने अपना सिर झुका लिया और एक किनारे देखने लगा जैसे उसे यकीन नहीं आ रहा हो कि उसकी नानी ऐसा कर सकती है।
लेकिन आखिरकार…पार्कर माई ने चादर बिस्तर पर बिछा दी। नहीं, अब वह इस बारे में कुछ सोच नहीं सकती थी। बहुत हो चुका-उसकी जिन्दगी में बर्दाश्त करने के लिए बहुत कुछ था। उसने उनको अब तक बर्दाश्त किया था, उसने दिल ही दिल सब कुछ सहा था। वह कभी रोती हुई नहीं दिखी थी। किसी ने उसे रोते हुए नहीं देखा था। उसके बच्चों तक ने भी कभी उसे रोते-बिलखते नहीं देखा था। उसने गर्व-भरा अपना सिर हमेशा बुलन्द रखा था। लेकिन अब! लेनी चला गया- उसके पास क्या बचा है? उसके पास कुछ नहीं है। वही उसकी जिन्दगी का हासिल था और अब उसे भी छीन लिया गया। आखिर मेरे ही साथ यह सब क्यों होता है? वह सोचने लगी? “आखिर मैंने क्या किया?” बूढ़ी पार्कर माई बोली। “आखिर मैंने क्या किया?”
और जब उसके मुँह से ये लफ्ज निकले, उसके हाथ से ब्रश छूटकर जमीन पर गिर पड़ा। तभी उसे अहसास हुआ कि वह बावर्चीखाने में है। वह इतनी परेशानहाल थी कि उसने अपना हैट उठाया, जैकेट पहना और फ्लैट से कुछ इस तरह बाहर निकली जैसे वह नींद में चल रही हो। उसे इस बात का कुछ भी पता नहीं था कि वह क्या कर रही है। वह ऐसे इनसान की तरह थी जो घटनाओं से इतना दहशतजदा हो जाए कि बेमकसद इधर-उधर चलना शुरू कर दे-जैसे इस तरह चलते चले जाने से वह बच निकलेगा…
बाहर सड़क पर ठंड थी। हवा बर्फ की तरह जिस्म में चुभ रही थी। लोग तेज, बहुत तेज रफ्तार से लपक रहे थे। मर्द इस तरह चल रहे थे जैसे कैंची और औरतें बिल्ली की तरह चल रही थीं। कोई किसी को नहीं पहचान रहा था-कोई किसी पर ध्यान नहीं दे रहा था। अगर वह फूट पड़ती, अगर आखिर में, इतने सालों के बाद वह रोना शुरू करती तो खुद को इस जेलखाने में पाती।
लेकिन रो पड़ने का ख्याल आते ही लगा जैसे नन्हा लेनी नानी की बाँहों में आ गया हो। आह, मेरे अजीज, यही तो वह करना चाहती है। नानी माँ रोना चाहती है। अगर अब वह रोना चाहेगी तो वह लम्बे समय तक रोती रहेगी। उसके रोने के लिए बेशुमार वजहें हैं- उसकी पहली नौकरी और जालिम बावर्चिन से लेकर डाक्टर के यहाँ जाने तक, अपने सात नन्हे बच्चों के लिए, अपने पति की मौत पर, पाल-पोस कर बड़ी की गई औलादों के घर छोड़कर चले जाने पर और तकलीफों के उस सिलसिले पर जो लेनी तक पहुँचा। लेकिन इतनी सारी दुख तकलीफों पर ठीक से और पूरी तरह आँसू बहाने के लिए लम्बे समय की जरूरत होगी। बहरहाल, उसके लिए भी वक्त आ चुका है। उसे अब यह करना ही चाहिए। वह अब उसे और टाल नहीं सकती; अब वह और इन्तजार नहीं कर सकती… पर आखिर कहाँ जाए वह?
“पार्कर माई की जिन्दगी बहुत मुश्किलों से गुजरी है।” हाँ, बेशक मुश्किल जिन्दगी है! उसकी ठुड्डी कँपकँपाने लगी; अब वह ज्यादा समय नहीं गँवा सकती। लेकिन वह जाए कहाँ? कहाँ जाए वह?
वह घर नहीं जा सकती; वहाँ एथेल है। उसका रोना एथेल को डरा देगा, कमजोर कर देगा। वह कहीं किसी बेंच पर नहीं बैठ सकती, लोग उसके सामने सवालों की झड़ी लगा देंगे। वह सम्भवतः लौटकर उस भद्र पुरुष के फ्लैट पर भी नहीं जा सकती, अजनबियों के घरों में उसे रोने का कोई अधिकार नहीं है। अगर वह कहीं किसी जगह सीढ़ियों पर बैठ गई तो पुलिसवाले उससे जवाब तलब करेंगे।
उफ, कहीं कोई जगह नहीं है जहाँ वह छिप सके और अकेले में मनचाहे समय तक रुक सके, जहाँ कोई उसे परेशान नहीं करे और कोई उसकी वजह से परेशान नहीं हो। आखिर इस दुनिया में क्या कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ वह रो सके?
पार्कर माई खड़ी थी, इधर-उधर ताकती हुई। बर्फीली हवाएँ उसके एप्रन में गुब्बारा बना दे रही थीं। और फिर बारिश भी होने लगी। वहाँ कोई जगह नहीं थी।