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AI के आने से पांच-दस साल में तबाही मच जाएगी-सुधीर मिश्रा

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ये मेरा मुल्क है, मेरे बाप का मुल्क है और मेरी आजादी कोई नहीं छीन सकता

एक्टर सुधीर मिश्रा इन दिनों सोनी लिव की वेब सीरीज ‘तनाव 2’ को लेकर सुर्खियां बटोर रहे हैं। उन्होंने बातचीत की और इस दौरान काफी कुछ बताया। उनसे जब पूछा गया कि क्या लगता है कि आजकल फिल्ममेकर्स को खुलकर बोलना मुश्किल हो गया है तो उन्होंने कहा कि उनकी आजादी कोई नहीं छीन सकता।

‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘धारावी’, ‘हजारों ख्वाहिशें’ जैसी फिल्मों से इंडस्ट्री को समृद्ध करने वाले निर्देशक सुधीर मिश्रा हिंदी सिनेमा का एक सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं। इन दिनों वह अपनी वेब सीरीज ‘तनाव 2’ को लेकर चर्चा में हैं। इसी सिलसिले में हुई एक खास मुलाकात के दौरान हमने उनके सफरनामे, वक्त के साथ कदमताल की चुनौती, अभिव्यक्ति के खतरों आदि पर चर्चा की:

आपको सिनेमा बनाते हुए चार दशक हो गए। इस दौरान फिल्मों की दुनिया सिंगल स्क्रीन से मल्टीप्लेक्स और अब ओटीटी तक कई स्तर पर बदली है। आप इस बदलते दौर के साथ कदमताल करने के लिए खुद को कैसे री-इंवेंट करते हैं?

वो फितरत होती है। मैं मैथमेटिशियन (गणितज्ञ) का बेटा हूं तो मेरी जिंदगी की ट्रेनिंग ही ऐसी है कि मेरे लिए हर चीज प्रोबेबिलिटी यानी संभावना है कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। कोई भी चीज आपके कंट्रोल में नहीं है। आपको दुनिया की इसी हलचल में एग्जिस्ट करना है, जहां कुछ ना कुछ होता रहेगा। नई-नई चीजें आएंगी। बस थोड़ा पढ़े-लिखे होने का फायदा ये होता है कि जो आगे होने वाला होता है, आपको उसका थोड़ा इल्म होता है। जैसे, दुनिया अब AI की तरफ जाएगी और अगले पांच-दस साल में तबाही मच जाएगी। सिनेमा ही री-इन्वेंट हो जाएगा। अब जबलपुर, जमशेदपुर में बैठा लड़का फिल्म बनाएगा और सीधे कान फिल्म फेस्टिवल में पहुंच जाएगा, क्योंकि वह वहां बैठे हुए भी दुनिया, जो कि बेस्ट टीचर है, उससे कनेक्टेड है। वह किसी टीचर पर निर्भर नहीं रहेगा। यह एक बदलाव है और अगर आपको सर्वाइव करना है तो इससे कदमताल करने के अलावा कोई चारा ही नहीं है। आपने कभी हिरण को अजगर के मुंह से निकलने के लिए छटपटाते हुए देखा है? वही बात है। मैं झटपटाता हूं और भाग के निकल लेता हूं क्योंकि मैं सर्वाइव करना चाहता हूं। मैं फिल्में बनाना चाहता हूं। मैं रिटायर नहीं होना चाहता। मैं मरना ही नहीं चाहता। मरूंगा, लेकिन मैं चाहता नहीं हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी एक आंख खुली रहे और महाभारत के संजय की तरह कोई बताता रहे कि दुनिया में क्या हो रहा है (हंसते हैं)।

आपकी फिल्म ‘धारावी’ हो या सीरीज ‘तनाव’, उनमें शहर भी एक अहम किरदार होता है। सीरीज के लिए कश्मीर में शूट का अनुभव कैसा रहा? क्या कुछ मुश्किलें भी आईं?

मुझे तो कश्मीर जितनी खूबसूरत और आसान जगह शूटिंग के लिए मिली ही नहीं। मैं हाल ही में लखनऊ-कानपुर जैसे इलाकों में शूट कर रहा था, जहां का मैं खुद हूं, वहां ज्यादा तकलीफ होती है। कश्मीर में कम होती है। कश्मीर में वैसे भी कोई तकलीफ हो तो आप शाम को पहाड़ पर घूमने निकल जाए, बस सारी दिक्कत खत्म हो जाती है। वो जगह ही आपको तनावमुक्त कर देती है। वहां के लोग कमाल हैं, खानपान कमाल है, मुझे तो बहुत अच्छा लगा।

यह सीरीज चर्चित इजराइली ड्रामा ‘फौदा’ का रीमेक है। एक अडाप्टेशन, जिसे पहले कोई बना चुका है, उसे दोबारा रचने में क्या आकर्षण होता है? क्या आपके सामने एक ढांचा है, कहानी पहले से हिट है तो एक सहूलियत रहती है?

अभी मैं एक सीरीज ‘समर 77’ पर काम कर रहा हूं जो बिल्कुल ही ओरिजिनल है। उसे हमने ही लिखा है, जो यथार्थ पर आधारित है। सच कहूं तो मुझे अडाप्टेशन कभी-कभी ज्यादा मुश्किल लगता है। जो चीज बन चुकी है, उसे फिर से अपने माहौल में नए सिरे से ढालना, वो भी उसी कहानी की सीमाओं में, कभी-कभी मुश्किल खेल हो जाता है। जबकि, ओरिजिनल में आपको पूरी आजादी होती है कि आप जहां चाहो, बह जाओ। यहां सीमाओं के अंदर खेल करना होता है पर कुछ आसानी भी होती है कि प्लॉट लगभग एक ही होता है। हालांकि, हमने काफी चीजें बदली भी हैं।

आपकी फिल्मों में एक सामाजिक-राजनीतिक सुर रहता है। वे एक हस्तक्षेप करने की कोशिश करती हैं। आपने सीमाओं की बात की, आपको लगता है कि आज के समय में फिल्मकारों के लिए खुलकर बोलना भी मुश्किल हो गया है?

मेरे लिए नहीं है मुश्किल। मैं साफ कहता हूं कि मैं सेंसेशनलिस्ट (सनसनी पैदा करने वाला) नहीं हूं। मैं किसी को बुरी तरह आहत नहीं करना चाहता। मैं किसी की बेइज्जती नहीं करना चाहता। मैं अपने वक्त में जो मुझे कहना है, वो कहूंगा। ये मेरे बाप का मुल्क है, मेरा मुल्क है। मैं यहां से कभी भी जा सकता था, पर नहीं गया। अब मेरी आजादी आप मुझसे नहीं छीन सकते। 2014 के बाद बहुत से नामी विदेशी न्यूजपेपर मेरे पास आए कि आप बोलो, मगर मैंने कहा कि मैं बाहर के पेपर में अपने मुल्क की बुराई नहीं करूंगा। ट्विटर पर सो कॉल्ड रैडिकल लोग लिखते रहते हैं, मैंने कभी नहीं लिखा। मैं अपने मुल्क में बैठकर जो कहानी सुनाना चाहूंगा, सुनाऊंगा। वैसे, अपनी कहानी सुनाना पहले भी मुश्किल था, अब भी मुश्किल है (हंसते हैं), मगर मैं दुबक कर बैठ गया तो युवा पीढ़ी को कौन हौसला देगा। थोड़ी सीमाएं हमेशा रहती हैं, कलाकार का काम उसे मोड़कर रास्ता बनाना है और कभी-कभी सीमाएं फायदेमंद भी साबित होती हैं। आप ईरानी सिनेमा देखें, सीमाएं हैं तो आप सीधे-सीधे नहीं कह रहे हैं, इसलिए और कमाल कह रहे हैं। अगर सीधे-सीधे कह पाते तो शायद वो बात नहीं कह पाते।

आपकी ‘हजारों ख्वाहिशें’ ऐसी के सीक्वल का जिक्र भी अक्सर छिड़ता है। आप शायद उस पर काम भी कर रहे थे। उस ओर क्या तरक्की है?

क्या है कि एक फिल्म जो बन चुकी होती है, जिसका एक सफर होता है, उस पर आप एक खराब फिल्म बना दें कि ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी फिर से’ तो वह जायज नहीं है। देखिए, अब मैं वो मैं नहीं हूं। बाकी लोग भी वो नहीं है। वे सब बदल चुके हैं, उनकी महत्वाकांक्षाएं, सपने, परिस्थितियां सब बदल चुकी हैं तो जब तक कोई ऐसा कमाल का ख्याल ना आ जाए, आप अपने उस बच्चे को बचाना चाहते हैं। मेरा मानना है कि वो जो बच्चा है, उसका ख्याल रखना चाहिए, उसकी याद को बिगाड़ो मत।

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