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सर्वोच्च सत्ता सबके लिए संभव 

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     डॉ. विकास मानव 

निश्चित ही, सभी को परमात्मा मिल सकता है। क्योंकि परमात्मा कोई ऐसी बात नहीं है जैसे : काव्य, गणित, पेंटिंग या कुछ और। एक आदमी टेलेंटेड है, प्रतिभाशाली है, चित्र बनाता है; दूसरा आदमी प्रतिभाशाली है गणित में; तीसरा आदमी प्रतिभाशाली है काव्य में; चौथा आदमी विज्ञान में; पांचवां आदमी इंजिनीरिंग में; कोई और किसी दिशा में। ये सारी हमारी विशिष्ट- विशिष्ट प्रतिभाएं हैं। 

     परमात्मा कोई प्रतिभा की बात नहीं है, परमात्मा तो वैसा है- हमारा स्वरूप। जैसे हम सब श्वाश लेते हैं और कोई  यह नहीं कह सकता कि क्या सभी लोगों को श्वास लेना संभव है? बुद्धिमान भी, गैर बुद्धिमान भी श्वास ले रहे हैं, यह कैसे संभव है? और बुद्धिमान भी प्रेम कर रहे हैं और गैर-बुद्धिमान भी प्रेम कर रहे हैं. 

यह कैसे संभव है?

     जैसे प्रेम सबके प्राणों का स्वर है, जैसे श्वास सबके जीवन का अंग है, तो ये तो ऊपरी चीज़ें हैं, परमात्मा तो सबके जीवन का केन्द्र है। हम उसे जानें या न जानें, लेकिन वह है।हम सबके भीतर जो जीवन है वही तो परमात्मा है। तो वह तो सबको उपलब्ध है, पहली बात।

सवाल रह गया: क्या उसे सभी जान सकते हैं?

     उसे जान सकते हैं। कम से कम एक बात तो ऐसी रहने दें जिसमें कोई वर्ग न हो, जिसमें शुद्र और ब्राह्मण न हों, जिसमें चूजन फ्यू, कुछ चुने हुए लोग और कुछ दरिद्र न हों, कुछ संपत्तिशाली न हों और कोई गरीब न हों। कम से कम एक चीज़ तो क्लासलेस रहने दें।

      सब जगह तो वर्ग हैं, क्लासेस हैं, कम से कम परमात्मा को तो वर्ग-विहीन, उसको तो कम से कम वर्ग विहीन रहने दें। और मुझे ऐसा  लगता है, कम से कम वही तो एक सत्य है जो वर्ग-विहीन है; जिसमें प्रतिभा का सवाल नहीं है बहुत; जिसमें आप बड़े इंजीनियर हैं, यह सवाल नहीं है; कि आप बड़े गणितज्ञ हैं; यह सवाल नहीं है।

    नहीं, आप जीवित हैं और इस जीवन में डूबने को उत्सुक हैं, इस जीवन को जानने की प्यास है, इतना काफी है, इतना काफी है।

    परमात्मा तो उपलब्ध है, प्यास चाहिए, तो अभी, इसी क्षण किसी को भी मिल जाए।परमात्मा कोई विशिष्ट प्रतिभा की बात नहीं है; सभी को उपलब्ध हो सकता है। बल्कि अक्सर तो, जो लोग किसी भांति की प्रतिभा के धनी होते हैं, उनको परमात्मा को पाने में कठिनाई हो जाती है। क्योंकि वे अपनी प्रतिभा को ही अपना परमात्मा बना लेते हैं, क्योंकि वे अपनी प्रतिभा के इर्द-गिर्द ही जीने लगते हैं और उनके अहंकार की तुष्टि उस प्रतिभा के कारण ही होने लगती है।

       इसलिए अक्सर उनकी तो प्यास ही जीवन के मूल को खोजने की नहीं हो पाती; या होती भी है तो बहुत धीमी हो पाती है।

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