स्कूली शिक्षा के दौरान मैं हमेशा औसत दर्ज़े का छात्र रहा। इसके पीछे यह कारण नहीं था कि मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। वास्तव में मुझे शुरू से यायावरी जीवन तथा पाठ्यक्रम से इतर साहित्य पढ़ने में विशेष रुचि थी। इसके पीछे अगर देखा जाय, तो मेरी मां की अधिक भूमिका थी। उन्होंने एक बड़े ज़मींदार परिवार में जन्म लिया था, लेकिन मेरे पिता एक औसत मध्यमवर्गीय परिवार से होने के बावज़ूद ट्रेड यूनियन राजनीति में सक्रिय थे। मेरी मां ने अपने बल पर बच्चों का पालन-पोषण किया। उनकी पढ़ाई-लिखाई में गहरी रुचि थी। जब उनका विवाह हुआ था, तब उनकी शैक्षणिक योग्यता केवल आठवीं कक्षा तक की ही थी। लेकिन उन्होंने विवाह के बाद अपने बच्चों तथा पूरे परिवार की देखभाल करते हुए ही हाईस्कूल से लेकर एम.ए. तक की पढ़ाई की और शिक्षण का प्रशिक्षण प्राप्त कर शिक्षिका के पद कार्यरत हो गईं।
अपने जीवन की तमाम कमियों और विसंगतियों के बावज़ूद मेरे पिता भी जनवादी चेतना से संपन्न थे। वे रूढ़ियों के ख़िलाफ़ थे तथा उन्होंने हम भाइयों को कभी भी कोई काम करने से नहीं रोका। जब मैं आठवीं कक्षा में था, उसी समय मेरी मां ने हिंदी में एम.ए. की परीक्षा पास की थी। उस समय उनके पाठ्यक्रम की राजेंद्र यादव द्वारा संपादित ‘हिंदी की श्रेष्ठ तेइस कहानियां’ और अमृत राय द्वारा संपादित ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियां’ मैंने करीब-करीब पूरी पढ़ ली थी। यहीं से मेरी अभिरुचि साहित्य पढ़ने में पैदा हुई।
वर्ष 1978 में मैंने हाईस्कूल की परीक्षा पास की। मेरे घर के निकट ही गोरखपुर के अलीनगर मोहल्ले में ‘राहुल सांकृत्यायन संस्थान’ के अंतर्गत एक पुस्तकालय तथा एक पुरातत्व संग्रहालय था। इस संस्थान की स्थापना अजय त्रिपाठी ने की थी, जिनके बारे में बताया जाता था कि वे बैंक में बड़े अधिकारी थे और नौकरी छोड़कर बौद्धभिक्खु बन गए। पुस्तक पढ़ने का लोभ रहता था। इस कारण मैं इस पुस्तकालय का स्थायी सदस्य बन गया तथा लगातार जाने लगा। पुस्तकालय की देख-रेख त्रिपाठी जी के बड़े पुत्र संजीव करते थे। वे मुझसे दो-तीन साल बड़े थे, लेकिन उनसे मेरे मित्रवत संबंध हो गए थे। उन्होंने बाकायदा पालि, सिंहली और संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया था तथा लंका जाकर बौद्ध धर्म की पढ़ाई भी की थी। उनसे अकसर बौद्ध धर्म पर चर्चाएं होती थीं। इसके अलावा मैंने वहां उपलब्ध राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित अनेकानेक साहित्य पढ़ डाला। उनमें सबसे महत्वपूर्ण चार भागों में विभक्त उनकी जीवन यात्रा ‘मेरी आत्मकथा’ थी, जिसमें उनके बौद्ध बनने से लेकर कई बार गुप्त रूप से तिब्बत जाने तथा वहां से रोमांचकारी तरीके से दुर्लभ पांडुलिपियों को भारत में लाने की कहानियां वर्णित हैं। इसके अलावा संस्थान में विभिन्न देशों के बौद्ध धर्म का अध्ययन करने वाले लोग आते रहते थे, जिनसे बातचीत करके मुझे गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म के बारे में जानने की इच्छा जागृत होने लगी।
इस बीच मैंने संजीव के साथ मिलकर एक काम किया। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक बुद्ध की स्मृतियां बिखरी पड़ी हैं, ऐसा हमें अनुमान था। हमने उन स्थलों को जानने-समझने और बौद्ध धर्म से जुड़े अवशेषों का संग्रह करना प्रारंभ किया। आज भी मगध और पूर्वांचल के इलाक़े के खेतों में जब कभी गहरी खुदाई या जुताई होती है तो बौद्ध धर्म से संबंधित पुरानी मूर्तियां और सिक्के आदि मिलते रहते हैं। हमने इनमें से ढेरों मूर्तियों-सिक्कों को संग्रहालय के लिए एकत्रित किया। इसके लिए हमलोगों ने चोरी भी की। इस संग्रह का एक बड़ा भाग आज भी गोरखपुर के राजकीय बौद्ध संग्रहालय में शोभा बढ़ा रहा है।
हमलोगों की एक खोज कोपिया गांव की थी। वर्तमान संत कबीरनगर जिले में घाघरा नदी के किनारे यह गांव स्थित है। उसके बारे में मान्यता यह है कि गौतम बुद्ध जब गृहत्याग करके सत्य की खोज के लिए घर से निकले थे, तब इसी जगह उन्होंने अपने राजसी वस्त्रों का त्याग किया था। यहां पर एक विशाल टीला है, जिसे लोग कोट कहते हैं। गांव में कोई अगर अपना नया घर बनवाता है, तो इस किले से निकली ईंटों को अपने घर में सुरक्षा कवच मानकर लगवाता है। हर बरसात के मौसम में इस टीले से ढेरों छोटी-बड़ी मिट्टी और पत्थर की मूर्तियां और मिट्टी-पत्थर के मनके-सिक्के आदि पुरातात्विक सामग्रियां मिलती रहती हैं।
हमारे राहुल सांकृत्यायन संस्थान में उन दिनों एक आयकर अधिकारी बी.एन. चौरसिया आते थे। कोपिया उनका ही गांव था। वे हमलोगों को यह जगह दिखाने के लिए ले गए। हमलोग लगातार वहां आते-जाते रहे तथा हमने अनेक पुरातात्विक सामग्रियों का संग्रह भी किया। गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर बी.एन. पाठक, जो उस समय देश के एक बड़े पुरातत्ववेत्ता भी थे, को लेकर भी हम वहां गए। उन्होंने प्रारंभिक जांच-पड़ताल करके बताया कि बौद्ध साहित्य में एक ऐसी ही जगह का वर्णन आता है। संभव है कि यह जगह वही हो। यहां पर अगर गहराई से उत्खनन करवाया जाय तो इस स्थान पर कई सभ्यताओं और कालखंडों के प्रमाण मिल सकते हैं।
प्रोफेसर पाठक के यहां जाने के बाद यह स्थल चर्चा में आया तथा अनेक लोगों ने यहां जाने के लिए मुझसे संपर्क किया, जिनमें एक डेक्कन यूनिवर्सिटी पूना, महाराष्ट्र के प्रोफेसर आलोक कुमार कानूनगो भी थे, जो दिसंबर, 2011 में यहां पर आए थे। बाद में वे लगातार यहां आते-जाते रहे। उन्होंने शोध करके बताया कि हज़ारों वर्ष पहले यहां पर शीशा बनता था तथा कच्चे शीशे का कारोबार भी होता था। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी। इससे यह सिद्ध होता था कि प्राचीन भारत में शीशा पहली बार यहां बनाया गया। उन्होंने इस विषय पर एक किताब ‘ग्लास इन एसियंट इंडिया एक्सीवेशन ऐट कोपिया’ लिखी। जिसमें उन्होंने उल्लेख किया है कि इस जगह पर शीशे का निर्माण और कारोबार होता था। दुखद है कि यह महत्वपूर्ण स्थल आज भी सरकार की घोर उपेक्षा का शिकार है। वर्ष 2007 में पुरातत्व विभाग ने यहां पर एक बोर्ड ज़रूर लगवाया था, लेकिन उत्खनन का कार्य अभी तक प्रारंभ नहीं हुआ है। धीरे-धीरे यह टीला भी नदी की कटान के कारण विलुप्त होने के कगार पर आ गया। कोपिया की खोज में मेरा और संजीव का योगदान था, लेकिन हमने कभी भी श्रेय नहीं लिया।
इसके अतिरिक्त इस इलाके में और भी महत्वपूर्ण बौद्ध धर्म से संबंधित क्षेत्र हैं, जिसका हम लोगों ने अध्ययन किया। गोरखपुर के बगल में महाराजगंज के इलाके में एक गांव देवदह है, जिसके बारे में बताया जाता है कि यह गौतम बुद्ध का ननिहाल था। वर्तमान में यह महाराजगंज के नौतनवा तहसील के बनरसिया कला और बनरसिया खुर्द में बंटा हुआ है। 1978 में पुरातत्व विभाग ने यहां पर 88.8 एकड़ भूमि संरक्षित कर दी थी और यहां पर किसी प्रकार के निर्माण और खनन पर रोक लगा दी थी। लेकिन बाद के समय में संरक्षित भूमि में बीस किसानों के नाम पट्टा और चकबंदी कर दी गई। ऐसे में अब टीले के नाम पर मात्र 1.04 एकड़ ज़मीन ही बची है। देवदह गौतम बुद्ध की मां महामाया और मौसी महापजापती गौतमी तथा पत्नी यशोधरा की जन्मस्थली मानी जाती है। पालि साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है। सम्राट हर्ष के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने महत्वपूर्ण बौद्धस्थलों का भ्रमण किया था। इस क्रम में उन्होंने देवदह की यात्रा भी की थी। 1991 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पटना इकाई द्वारा यहां खनन करवाया गया और रिपोर्ट में यहां के स्तूप को गुप्तकाल (240/275–550 ईस्वी) से पहले का बताया गया।
हम पाते हैं कि पूरे पूर्वांचल का समूचा इलाका बौद्धकालीन इतिहास की दृष्टि से अत्यंत ही महत्वपूर्ण है, लेकिन सरकार की उदासीनता और संरक्षण के अभाव में यह गौरवशाली इतिहास लुप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। इसके अलावा इस इलाके में अनेक हिंदू मंदिर ऐसे हैं, जिनमें स्थापित मूर्तियां मूलतः बौद्ध धर्म की हैं, जिन्हें हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों में बदल दिया गया है। इसमें एक महत्वपूर्ण मंदिर बुढ़िया माई का स्थान है। गोरखपुर से करीब बीस किलोमीटर दूर कुशीनगर के रास्ते में कुसमही जंगल में स्थित इस मंदिर की इस इलाके में बहुत प्रतिष्ठा है। यहां रखी गई प्रतिमा को दुर्गा का अवतार माना जाता है। नवरात्र में यहां एक बड़ा मेला भी लगता है। यहां बच्चों का मुंडन संस्कार आदि भी करवाया जाता है। इस मंदिर में एक प्राचीन देवी की मूर्ति है, जिसे एक बार हमलोगों ने पुजारी को कुछ पैसे देकर पूजा करने के नाम पर उसे साफ़ करवाया, तो पाया कि वह गौतमबुद्ध की माता महामाया की मूर्ति है, जिसमें वे बालरूप गौतम बुद्ध के साथ हैं। इसमें पालि भाषा में एक लेख भी है, जिसे हम पढ़ न सके। अपने इस प्रयास के दौरान इस पूरे इलाके में हमलोगों ने ऐसे अनेक मंदिरों को देखा।
खैर, 1980 में मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करके गोरखपुर विश्वविद्यालय में स्नातक में एडमिशन ले लिया था। मेरा विषय कभी प्राचीन इतिहास नहीं रहा। मैं मूलतः समाजशास्त्र का विद्यार्थी था, लेकिन बौद्ध धर्म में गहरी रुचि होने के कारण ही मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक के बौद्ध स्थलों का दौरा किया।
राहुल सांकृत्यायन संस्थान में लंका से आए भंते असित आते थे। सिंहली में शायद उनका लंबा नाम था, लेकिन गोरखपुर में लोग उनको इसी संक्षिप्त नाम से पुकारते थे। उनके बारे लोग बताते थे कि वे एक बड़े उद्योगपति परिवार से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन सब कुछ छोड़कर वे बौद्ध भिक्खु बन गए। उनसे मेरी बहुत बातें होती थीं। उन्हीं से मुझे पता लगा कि बौद्धधर्म की तीन शाखाएं– हीनयान, महायान और वज्रयान हैं। इसके अतिरिक्त जापान-दक्षिण कोरिया आदि देशों में बौद्ध धर्म की कुछ अन्य शाखाएं भी हैं, जिन्हें जेन या ताओ कहते हैं।
वास्तव में पुराने धर्म के मिश्रण से ये धर्म बने। इन विभिन्न शाखाओं की पूजा-पद्धतियां तथा साधना की विधियां भिन्न-भिन्न थीं। हीनयान के लोग मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, लेकिन स्तूप परिक्रमा और दीया जलाना आदि करते हैं। इसके विपरीत महायान में गौतम बुद्ध की प्रतिमा का पूजन होता है। वज्रयान बिलकुल अलग है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
बौद्ध धर्म के सभी शाखाओं में आपस में उतना ही मतभेद है जितना कि मुस्लिम धर्म के शिया-सुन्नी या ईसाई संप्रदाय के प्रोटेस्टेंट और कैथलिकों में। भंते असित से मुझे पता लगा कि डॉ. आंबेडकर ने लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था तथा उन्हें लंका के ही बौद्ध भिक्खुओं ने दीक्षा दी थी। भंते की बात से मैं काफी प्रभावित होता था और मैंने निश्चय किया कि मैं बौद्ध धर्म ग्रहण करूंगा।
गोरखपुर से करीब सौ किलोमीटर दूर सिद्धार्थनगर जिला है। पहले यह उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की तहसील नौगढ़ थी। नौगढ़ तहसील एक समय में अपने काला नमक चावल के लिए बहुत प्रसिद्ध था। वर्ष 1971 से 1973 के बीच में इसी नौगढ़ तहसील के पिपरहवा और गनवरिया गांव में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने उत्खनन करवाया था। तब यहां के प्राचीन टीले की खुदाई में एक स्तूप मिला था, जिसके अंदर एक अस्थिकलश मिला। इसके बारे में ऐसा माना जाता है कि ये गौतम बुद्ध के अस्थि अवशेष हैं। वर्तमान में यह अस्थिकलश नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में है। यहां पर उत्खनन में मिट्टी की बनी कुछ मोहरें भी मिलीं, जिसके ऊपर कपिलवस्तु विहार मुद्रित है। इन्हीं सबके आधार पर यह निश्चित किया गया कि यह शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु है। यहां गौतम बुद्ध ने लंबे समय तक निवास किया। यद्यपि लुंबिनी से 29 किलोमीटर पश्चिम में तिलौराकोट, नेपाल, को पहले कपिलवस्तु बताया जाता था। वैसे यह विवाद आज भी यथावत क़ायम है।
वर्ष 1980 मैं जब हमलोग (मैं, संजीव, चौरसिया जी और भंते जी) यहां पर आए थे, तब सिद्धार्थनगर जिला नहीं बना था। दोनों गांव पिपरहवा व गनवरिया बिलकुल उजाड़ थे। उत्खनन के बाद स्तूप वैसे ही खुले स्थान पर बिना किसी सुरक्षा के छोड़ दिया गया था। यहीं पिपरहवा गांव में भंते असित एक कुटी बनाकर रहते थे तथा गांव के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देते थे, जिसके कारण उन्हें इस इलाके में लोकप्रियता प्राप्त थी। यहीं पर उन्होंने स्तूप के निकट हमलोगों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। वहां हमलोग दो दिन रहे। पिपरहवा से करीब 20 किलोमीटर दूर नेपाल में लुंबिनी है। पहले यह इलाका अत्यंत ही दुर्गम था, जिसके उल्लेख और साक्ष्य बौद्ध साहित्य में भी मिलते हैं। आज पिपरहवा और गनवरिया गांव दोनों बहुत बदल गए हैं। यहां पर विश्वविद्यालय, होटल और बौद्ध संग्रहालय भी बना दिए गए हैं।
लेकिन जब हमलोगों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी तब पिपरहवा से हमलोग रिक्शे से लुंबिनी (नेपाल) पहुंचे, जो गौतमबुद्ध की जन्मस्थली है। आज यह एक बड़ा अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन स्थल बन गया है। बड़े होटल, बौद्ध संग्रहालय, पक्की सड़कें और यातायात के साधन सब कुछ उपलब्ध हैं। लेकिन उस समय वहां कुछ भी नहीं था। गौतम बुद्ध की जन्मस्थली पर एक छोटा-सा मंदिर था, जिसे माथा कुंवर मंदिर कहते थे। एक टूटा हुआ अशोक स्तंभ था, जिसके ऊपर लिखी हुई लिपि से ही यह मालूम हुआ कि यह गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी है। यहां पर दो-तीन नवनिर्मित मंदिर भी थे, जिसमें एक श्रीलंका का मंदिर और धर्मशाला था। दूसरा एक थाई मंदिर तथा तीसरा एक तिब्बती मंदिर भी था। तीनों ही बौद्ध धर्म की तीनों प्रमुख शाखाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। इन मंदिरों के भ्रमण से मुझे ज्ञात हुआ कि तीनों ही मंदिरों की साधना तथा पूजा पद्धति अलग-अलग है। सबसे आश्चर्यजनक मुझे तिब्बती मंदिर लगा, जहां पर अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां थीं। दीवारों पर राक्षसों-दानवों जैसी आकृतियां बनी हुई थीं। वहां के लामा ने मुझे अनेक आश्चर्यजनक बातें बताईं। जैसे कि योगबल से लामा उड़ सकते हैं। बिना खाए-पीए लगातार साधना भी कर सकते हैं। इन बातों में कितनी सच्चाई है, मुझे नहीं मालूम। लेकिन बाद में मैंने कई विदेशियों के तिब्बत के यात्रा संस्मरण पढ़ें, जिन्होंने भी ऐसी ही बातों का उल्लेख किया है। जो भी हो आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ये बातें भ्रामक प्रतीत होती हैं। लेकिन तिब्बत के बौद्ध धर्म ने वहां के प्राचीन कबीलाई समाज के जादू-टोने वाले धर्म को अपने में विलय करके एक नए धर्म का स्वरूप धारण कर लिया था, जो बौद्ध धर्म की तीसरी शाखा वज्रयान के रूप में प्रचलित हुई। वर्ष 1959 में चीन के तिब्बत पर क़ब्ज़े के बाद वहां के सर्वोच्च नेता दलाई लामा अपने लाखों अनुयायियों के साथ भागकर भारत आ गए तथा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में बस गए। इस प्रकार वह जगह इस तीसरी शाखा का प्रमुख केंद्र बन गया। आज भी बौद्ध धर्म के इस शाखा को मानने वाले बड़ी संख्या में हिमाचल प्रदेश, लद्दाख, सिक्किम, नेपाल और भूटान तक में फैले हुए हैं।
लुंबिनी में विभिन्न शाखाओं के बौद्धों से मिलने के बाद मुझे यह महसूस हुआ कि कोई भी विचार जब धर्म में परिवर्तित होता है, तब वह अपने मौलिक प्रगतिशील विचारों से हटकर कर्मकांडों में फंस जाता है। बौद्ध धर्म के साथ भी ऐसा ही हुआ। इसमें भी हिंदू धर्म की तरह मूर्तिपूजा, स्तूपपूजा जैसी बुराइयां घर कर गईं।
गोरखपुर जब वापस लौटा तब मेरी मुलाकात डाॅ. लाल बहादुर वर्मा से हुई, जो गोरखपुर विश्वविद्यालय में मध्यकालीन इतिहास के प्रोफेसर थे तथा समाजवादी विचारधारा से जुड़े हुए थे। एक बार बौद्ध धर्म के विषय में बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि “सभी नए धर्मों– बौद्ध, ईसाईयत और इस्लाम की इतिहास में प्रगतिशील भूमिका रही है, लेकिन बाद के दौर में जब इनमें कर्मकांड ही प्रधान हो गए, तब ये प्रतिक्रियावाद के गढ़ बन गए। आज जिस तरह से दुनिया भर में धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है, शायद इसकी कल्पना उनलोगों ने भी नहीं की होगी, जिन्होंने धर्म का प्रवर्तन किया।”
भले ही इसके बाद मैंने लंका जाकर बौद्ध भिक्षु बनने का विचार छोड़ दिया हो, लेकिन आज भी मैं गौतम बुद्ध को भारतीय आधुनिकता का सबसे बड़ा प्रवर्तक मानता हूं। विशेष रूप से उनके हर विचार को अपने तर्क-विवेक, बुद्धि से तय करने की बात हो या फिर अपना दीपक स्वयं बनने की। गौतम बुद्ध ने यह भी कहा था कि “विचार रूपी नाव को मैंने नदी (बाधा) पार करने के लिए चुना है, न कि सिर पर लादकर चलने के लिए।”
अगर मैं समाजवाद की ओर उन्मुख हुआ तो इसमें बुद्ध के विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। मुझे लगता है कि आज भी भारत में व्यवस्था परिवर्तन का कोई भी बड़ा आंदोलन बुद्ध के प्रगतिशील विचारों को समाहित किए बिना संभव नहीं है।