केन्द्र की सत्ता पर काबिज फासिस्ट संगठन आरएसएस के मुखौटा भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट समेत भारत की तमाम संवैधानिक संस्थाओं में अपने दलालों को बिठाकर अपना मुखौटा बना दिया है और जो मुखौटा बनने के लिए तैयार नहीं है, उसे एक-एक कर तमाम तरीकों से मार दिया जा रहा है या उसे लालच देकर या धमका कर मुखौटा बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है. इसी प्रकरण में अब सामने आया है तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी का मामला.
दरअसल, भाजपा के माथे पर गुजरात दंगा कलंक की भांति चमक रहा है, जिसे मिटाने के लिए वह गुजरात दंगा की परिघटना को ही इतिहास के पन्नो से मिटा देने की कोशिश कर रहा है. इसी सिलसिले में उसने एनसीईआरटी के पाठ्यक्रमों में भी गुजरात दंगों के अध्याय को खत्म कर दिया है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के यादाश्त से गुजरात दंगों की परिघटना को मिटा दिया जाये या संघियों के तरीकों से समझा जाये. इसी कोशिश की अगली कड़ी में सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से गुजरात दंगों का पटाक्षेप किया जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा पिछले आठ सालों में एक एक कर संघियों के उन तमाम कलंकों को धोने की कोशिश कर रहा है जिससे कहीं भी संघग के छबि पर दाग लगता हो. चाहे वह अयोध्या राम मंदिर का मसला हो या कोई और. और इस कोशिश में भगवा रंग में ढ़ल चुका यह सुप्रीम कोर्ट उन तमाम जनहित याचिका दाखिल करने वाले याचिकाकर्ताओं पर लगातार जुर्माना लगा रहा है, कोर्ट रुम में जलील कर रहा है और कोर्ट रुम से बाहर आकर मोदी-मोदी का जयघोष कर रहा है.
मोदी का जयघोष लगाने वाला यह सुप्रीम कोर्ट और उसका दल्ला जज का मन जब इस जुर्माना से भी नहीं भरा तब अब यह मोदी की दलाली में याचिकाकर्ताऔं पर मुकदमे दर्ज कर जेलों में बंद करने का नया अभियान चलाया है, जिसकी पहली शिकार बनी है तीस्ता सीतलवाड़, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जेल भेज दिया. इस पर प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक हिमांशु कुमार लिखते हैं –
तीस्ता सीतलवाड़ को गिरफ्तार कर लिया गया. वह गुजरात में हुए दंगों के पीड़ितों की तरफ से मुकदमें लड़ रही थी. सुप्रीम कोर्ट में इस दंगे से जुड़े एक मुकदमे के फैसले के समय जज साहब ने कमेंट किया कि एक्टिविस्टों के गतिविधि की भी जांच होनी चाहिए. तुरंत गुजरात पुलिस ने तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ एफआईआर लिखी और मुंबई स्थित उनके घर जाकर उन्हें उठा लिया.
इस मामले में क्या-क्या गड़बड़ है ? अगर कोई वकील मुकदमा हार जाता है तो क्या उसे जेल में डाल दिया जाता है ? तीस्ता सीतलवाड़ अगर किसी मुद्दे पर कोई केस लड़ रही थी और वे नहीं जीत पाई तो जज उस वकील को जेल में डाल देगा क्या ? एक वकील के पास अगर कोई जाकर कहता है कि मेरे घर के सदस्यों की हत्या हुई है आप मेरा मुकदमा लड़िए तो उस वकील का कर्तव्य है कि वह मुकदमा लड़ेगा.
दंगे किसने करवाए थे, सब जानते हैं. दो हज़ार लोग मारे गए थे, यह भी सब जानते हैं. कांग्रेस के सांसद एहसान जाफरी मारे गए थे, यह भी सब जानते हैं. आज दंगाई सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए हैं. इनके खिलाफ जो गवाही देता है, वह मारा जाता है, उसे डराया जाता है तो मुकदमा तो यह जीतेंगे ही. जज साहब को इन सत्ताधारी दंगाइयों से फायदा उठाना है तो जज साहब तो इनके हक में फैसला देंगे ही, इसमें वकील की कौन सी गलती है.
चलिए तस्वीर का दूसरा रुख देखते हैं. देश में दमनकारी कानून टाटा, पोटा, मकोका, यूएपीए के अंतर्गत जितने लोग पकड़े जाते हैं उसमें से 98% मुसलमान और आदिवासी बाइज्जत बरी होते हैं. इस तरह तो इन निर्दोष लोगों को जेल में डालने वाले, झूठे मुकदमें बनाने वाले पुलिस अधिकारियों को जज द्वारा जेल में डाला जाना चाहिए ! लेकिन जज कभी भी बाइज्जत बरी हुए लोगों को फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ उनकी गिरफ्तारी का तो कोई आदेश नहीं देता. फिर कोई जज मोदी को क्लीन चिट देते समय तीस्ता सीतलवाड़ को जेल में डालने का हुक्म कैसे दे सकता है ?
इस तरह के अनेकों केस मैंने कोर्ट में डाले हुए हैं जिसमें आदिवासियों की पुलिस द्वारा हत्या हुई है. कल को अगर आदिवासी केस हार जाते हैं तो क्या आदिवासियों और मुझे जेल में डाल दिया जाएगा ? जज साहब तो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे किसी बड़े मासूम से फरिश्ते को फंसाने की किसी दुष्ट औरत ने साजिश की और फ़रिश्ते के बेकसूर साबित होने के जश्न में उस महिला को जेल में डाल कर जज साहब बहुत बड़े इंसाफ की नज़ीर पेश कर रहे हो ! तीस्ता सीतलवाड़ को जेल में डालने का हुक्म देकर जजों ने पूरी न्याय व्यवस्था अदालत लोकतंत्र और इंसानियत को शर्मिंदा किया है.
सुप्रीम कोर्ट किस कदर संघी मानसिकता के तहत असंवैधानिक तरीके से काम करता है, इस मामले में यह जानना महत्वपूर्ण है कि गुजरात दंगे पर याचिकाकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश दिया है वह चल रहे गर्मी की छुट्टी के दौरान दिया गया है. सामाजिक कार्यकर्ता भूषण सहाय लिखते है कि ‘हमारे सुप्रीमकोर्ट के कुछ न्यायाधीश आतंकवादी शासन के इतने गुलाम हो चुके हैं कि ज़ाकिया जाफ़री मामले (डायरी सं. 34207/2018) में संविधान के अनुच्छेद-145(4) की अवहेलना कर गर्मियों की छुट्टियों के दौरान निर्णय कर दिया !’
वहीं, सेवानिवृत आईपीएस अधिकारी विजय शंकर सिंह इसी प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर सवाल उठाते हुए एक आलेख लिखा है. इसमें वे लिखते है –
यह देश के न्यायिक इतिहास का संभवतः पहला मामला होगा जिसमें याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया और याचिकाकर्ता को उसके तुरंत बाद पुलिस ने हिरासत में ले लिया. याचिकाएं खारिज होती रहती हैं और याचिकाकर्ताओं पर जुर्माने भी लगा करते हैं, पर इधर याचिका खारिज हुई और उधर याचिकाकर्ता हिरासत में धर लिया गया. ऐसा पहली बार हुआ है. क्या यह एक संदेश के रूप में भी है कि बहुत अधिक याचिकाएं दायर नहीं की जानी चाहिए ?
जिस याचिका के खारिज होने के बाद यह गिरफ्तारी हुई है, वह याचिका थी, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी और 63 अन्य को 2002 के दंगों में गठित विशेष जांच दल की क्लीन चिट (जिसे गुजरात हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था) की अपील, जो सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता जकिया जाफरी ने दायर किया था. इस संबंध में कई याचिकाएं तीस्ता सीतलवाड ने भी दायर की थी.
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ जिसमें, जस्टिस ए. एम. खानविलकर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सी. टी. रविकुमार थे, ने यह याचिका खारिज कर दी और यह कहा कि, किसी साजिश का सुबूत एसआईटी को नहीं मिला है. साथ ही यह भी कहा कि, ‘जकिया जाफरी की याचिका बेबुनियाद है, और सुझाव दिया कि एसआईटी ने जिस झूठ का पर्दाफाश किया था, उसका दावा करके ‘असंतुष्ट (गुजरात) अधिकारियों द्वारा, एक साथ मिलकर सनसनी पैदा करने’ का प्रयास किया गया था.’ यानी गुजरात दंगे में षडयंत्र की बात कहना अदालत को नागवार लगा.
मुकदमें का विस्तृत विवरण इस प्रकार है. 28 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के कुछ डिब्बों में आगजनी की गई और इस घटना में लगभग 65 व्यक्ति जल कर मर गए. कहा जाता है कि ये सभी कारसेवक थे जो अयोध्या से गुजरात वापस लौट रहे थे. उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उसी के बाद गुजरात के कुछ शहरों में भयानक साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे. यह दंगे लंबे समय तक चले.
इसी में यह आरोप लगा कि सरकार ने दंगों को रोकने के लिए उचित कदम समय से नहीं उठाए और जन-धन की व्यापक हानि होती रही. यही वह दंगा था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने अहमदाबाद का दौरा किया था और मुख्यमंत्री को राजधर्म का पालन करने की सलाह दी थी. उसी दंगों की जांच के लिए एक एसआईटी का गठन किया गया, जिसने दंगे के षडयंत्र की जांच में राज्य सरकार के उच्चतम स्तर पर किसी की लिप्तता के सुबूत नहीं पाए. एसआईटी की उसी जांच को जकिया जाफरी और तीस्ता सीतलवाड ने गुजरात हाईकोर्ट में चुनौती दी और वहां से जब उनकी याचिका खारिज हो गई तो, उसकी अपील सुप्रीम कोर्ट में की गई, जहां से यह याचिकाएं फिर खारिज कर दी गई.
यह एक स्थापित न्यायिक प्रक्रिया है कि कोई भी व्यक्ति अपनी अपील कानून के अनुसार उच्चतर न्यायालयों में कर सकता है और सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च न्यायिक पीठ है, जहां उस मामले का अंतिम निपटारा होता है. इस केस में भी यही हुआ. पर इस केस में वह भी हुआ जो आज तक किसी भी केस में नहीं हुआ है कि याचिकाकर्ता को याचिका के खारिज करने के बाद गिरफ्तार कर लिया जाय. यह न्याय का एक अजीब और गरीब पहलू दोनों है. अपील को खारिज करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि –
‘केवल राज्य प्रशासन की निष्क्रियता या विफलता के आधार पर साजिश का आसानी से अनुमान नहीं लगाया जा सकता है.’
आगे कहा गया है कि –
‘राज्य प्रशासन के एक वर्ग के कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या विफलता राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा पूर्व नियोजित आपराधिक साजिश का अनुमान लगाने या इसे राज्य प्रायोजित अपराध (हिंसा) के रूप में परिभाषित करने का आधार नहीं हो सकती है.
एसआईटी ने पाया था कि दोषी अधिकारियों की निष्क्रियता और लापरवाही को, उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई शुरू करने के लिए, उचित स्तर संज्ञान लिया गया है.’
अब आगे पढ़िए –
‘इस तरह की निष्क्रियता या लापरवाही, एक आपराधिक साजिश रचने का आधार नहीं बन सकती है. इसके लिए अपराध के कृत्य या योजना में किसी की भागीदारी स्पष्ट रूप से सामने आनी चाहिए. एसआईटी इन मुकदमों की जांच करने के लिए नहीं बनाई गई थी. बल्कि, राज्य प्रशासन की गंभीर विफलताओं और उच्चतम स्तर पर संगठित साजिश की जांच करने के लिए इस न्यायालय द्वारा बनाई गई थी.’
यह कहना है, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी और सीटी रविकुमार की पीठ द्वारा दिये गए फैसले में.
अदालत की उपरोक्त टिप्पणी, याचिकाकर्ता जकिया जाफरी के एडवोकेट, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल द्वारा उठाए गए तर्कों के संदर्भ में है. कपिल सिब्बल ने कहा था –
‘दंगाइयों को नियंत्रित करने के लिए उचित कार्रवाई करने में राज्य प्रशासन और पुलिस मशीनरी की विफलता थी और सांप्रदायिक बिल्ड-अप के बारे में खुफिया जानकारी की अनदेखी की गई थी.’
साजिश के बिंदु पर पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि –
‘बड़े आपराधिक साजिश का मामला बनाने के लिए, राज्य भर में संबंधित अवधि के दौरान किए गए अपराध (अपराधों) के लिए, संबंधित व्यक्तियों के दिमाग में क्या चल रहा है, इन सबमें, साज़िश का लिंक स्थापित करना आवश्यक है.’
इस संदर्भ में कहा गया है कि –
‘इस प्रकार की कोई कड़ी अदालत के सामने नहीं आ रही है. इस न्यायालय के निर्देशों के तहत एक ही एसआईटी द्वारा जांचे गए नौ मामलों में से किसी में भी ऐसा खुलासा और साज़िश स्थापित नहीं किया गया था.’
पीठ ने दोहराया कि –
‘संबंधित अधिकारियों द्वारा की गई निष्क्रियता या प्रभावी उपायों का अभाव, राज्य के अधिकारियों की ओर से की गई आपराधिक साजिश नहीं मानी जा सकती है. खुफिया एजेंसियों के संदेशों पर कार्रवाई करने में विफलता को आपराधिक साजिश का कार्य नहीं माना जा सकता है, जब तक कि सम्बन्धित लोगों की बैठक में, क्या सोचा गया था, के संबंध में ज़रूरी साज़िश के लिंक प्रदान करने के लिए सामग्री न हो और राज्य भर में सामूहिक हिंसा फैलाने की योजना को प्रभावित करने के लिए जानबूझकर कोई कार्य न किया जाये.’
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी कहा कि –
‘गोधरा ट्रेन कांड के बाद की घटनाएं ‘त्वरित प्रतिक्रिया’ में हुईं और अगले ही दिन, 28 फरवरी, 2002 को सेना के अतिरिक्त टुकड़ी की मांग कर दी गई और अशांत क्षेत्रों में कर्फ्यू लगा दिया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार सार्वजनिक आश्वासन दिया था कि दोषियों को दंडित किया जाएगा. राज्य सरकार द्वारा सही समय पर किए गए इस तरह के सुधारात्मक उपायों के आलोक में और तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा बार-बार सार्वजनिक आश्वासन दिया गया कि दोषियों को उनके अपराध के लिए दंडित किया जाएगा, और शांति बनाए रखी जाएगी, में साज़िश के सुबूत स्पष्ट नहीं होते हैं.
नामजद अपराधियों के मन मस्तिष्क में उच्चतम स्तर पर साजिश रचने के बारे में संदेह का उपजना मुश्किल है. न्याय की बात करने वाले महानुभाव, अपने वातानुकूलित कार्यालय के एक आरामदायक वातावरण में बैठकर ऐसी भयावह स्थिति के दौरान विभिन्न स्तरों पर राज्य प्रशासन की विफलताओं के तार, जोड़ने में सफल हो सकते हैं. यहां तक कि जमीनी हकीकत को कम जानते हुए या, यहां तक कि जमीनी हकीकत का जिक्र करते हुये, लगातार प्रयास करने में सफल हो सकते हैं. लेकिन, राज्य भर में सामूहिक हिंसा के बाद सामने आने वाली स्वाभाविक रूप से अशांति की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए क्या प्रयास किया गया, इसे भी देखा जाना चाहिये. थोड़े समय के लिए प्रशासनिक मशीनरी का बिखराव, संवैधानिक तंत्र के टूटने का मामला नहीं कहा जा सकता है.’
कोर्ट ने कहा कि,
‘आपातकाल के समय में राज्य प्रशासन का बिखर जाना कोई ऐसी घटना नहीं है, जिसे सब न जानते हों और COVID महामारी के दौरान, दबाव में चरमरा रही स्वास्थ्य सुविधाएं, सबसे अच्छी सुविधाओं वाली सरकारों में भी देखी गई.’
फिर कोर्ट ने पूछा,
‘क्या इसे आपराधिक साजिश रचने का मामला कहा जा सकता है ?
इसी प्रकार,
‘कम अवधि के लिए, कानून-व्यवस्था के सिस्टम का टूटना, कानून के शासन या संवैधानिक संकट के ध्वस्त होने का प्रमाण नहीं कहा जा सकता है. इसे अलग तरह से कहें तो, अल्पकालिक प्रशासनिक विफलता को, कानून-व्यवस्था बनाए रखने की विफलता नहीं मानी जा सकती है. संविधान के अनुच्छेद 356 में सन्निहित सिद्धांतों के संदर्भ में संवैधानिक तंत्र की विफलता का मामला देखा जा सकता है. कानून-व्यवस्था की स्थिति को विफल करने में की स्थिति को, राज्य प्रायोजित ध्वंस, मानने के बारे में कोई न कोई विश्वसनीय सबूत होना चाहिए.’
सुप्रीम कोर्ट ने 27 फरवरी को तत्कालीन मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक के संबंध में संजीव भट्ट आईपीएस, गुजरात के तत्कालीन मंत्री हरेन पंड्या, तत्कालीन एडीजीपी आरबी श्रीकुमार द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज कर दिया और कहा कि –
‘हम प्रतिवादी-राज्य के तर्क में बल पाते हैं कि श्री संजीव भट्ट, श्री हरेन पंड्या और श्री आर. बी. श्रीकुमार की गवाही केवल मुद्दों में सनसनीखेज और राजनीतिकरण करने के लिए थी. जिन व्यक्तियों को उक्त बैठक की जानकारी नहीं थी, जहां कथित तौर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा कथित तौर पर बयान दिए गए थे, उन्होंने खुद को चश्मदीद गवाह होने का झूठा दावा किया और एसआईटी द्वारा गहन जांच के बाद, यह स्पष्ट हो गया कि बैठक में उपस्थित होने का उनका दावा मिथ्या था. इस तरह के झूठे दावे पर, उच्चतम स्तर पर बड़े आपराधिक साजिश रचने का ढांचा खड़ा किया गया है जो, ताश के पत्तों की तरह ढह गया.’
एसआईटी जांच की सराहना करते हुए अदालत ने कहा कि –
‘हम एसआईटी अधिकारियों की टीम द्वारा चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में किए गए अथक कार्य के लिए अपनी प्रशंसा व्यक्त करते हैं और फिर भी, हम पाते हैं कि उन्होंने इस जांच में मेहनत की है.’
2002 के गुजरात दंगों के दौरान गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड में मारे गए कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी ने गुजरात उच्च न्यायालय के अक्टूबर 2017 के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की थी, जिसने एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया था. हालांकि, गुजरात उच्च न्यायालय ने जकिया जाफरी को पुनः जांच की मांग करने की स्वतंत्रता दे दी थी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आगे की जांच के लिए भी कोई सामग्री नहीं है और एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट को वैसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए जैसे वह है, और कुछ नहीं.
‘आगे की जांच का सवाल उच्चतम स्तर पर बड़े षड्यंत्र के आरोप के संबंध में नई सामग्री/सूचना की उपलब्धता पर ही उठता, जो इस मामले में सामने नहीं आ रहा है. इसलिए, एसआईटी द्वारा प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट, इसे और कुछ किए बिना स्वीकार किया जाना चाहिए.’
अदालत ने यह कहा है कि
‘यदि प्रशासनिक मशीनरी बिखरती भी है तो उसे किसी साजिश का अंश नहीं माना जा सकता जब तक कि साजिशकर्ता का दिमाग पढ़ न लिया जाय.’
अदालत यहां मेंसेरिया की बात कह रही है. मेंसेरियां का निर्धारण कृत्यों से भी किया जाता है क्योंकि किसी के दिमाग में क्या चल रहा है यह उसके कृत्यों से ही स्पष्ट हो सकेगा. गुजरात में जिस तरह से लम्बे समय तक दंगा चला, सेना बुलाई गई पर सेना को ड्यूटी पर देर से उतारा गया, जैसा कि यह भी एक आरोप है, जकिया जाफरी के पति एहसान जाफरी की मुख्यमंत्री से हुई बातचीत और उसके बाद भी उन्हें सुरक्षा तत्काल न उपलब्ध कराने के आरोप जैसा कि जकिया जाफरी बार-बार कह रही हैं, आदि खबरें तब भी अखबारों में छपी थीं और अब फिर वे प्रकाशित हो रही हैं, तो उन खबरों को देखते हुए किसी के भी मन में साजिश का संशय स्वाभाविक रूप से उठेगा.
गुजरात दंगों पर ऐसा नहीं है कि केवल गुजरात या भारत के ही अखबारों और मीडिया में यह सब छप और दिखाया जा रहा था बल्कि विश्व मीडिया में यह सब बराबर सुर्खियों में छाया रहा. लेकिन एसआईटी, साजिश के कोण को साबित नहीं कर पाई और जो एसआईटी ने किया उसे सुप्रीम कोर्ट ने भी जस का तस स्वीकार कर लिया और यह याचिका खारिज कर दी.
सबसे अधिक हैरानी की बात है कि गुजरात पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा, क्लीन चिट की पुष्टि करने के एक दिन बाद तीस्ता सीतलवाड़ को हिरासत में ले लिया है और वह गुजरात दंगों के पीछे कथित बड़ी साजिश की जांच की मांग करने वाली याचिकाकर्ताओं में से एक थी. उनके साथ ही आर. बी. श्रीकुमार जो दंगे के समय गुजरात के डीजीपी थे, को भी गिरफ्तार किया गया है. इनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी गुजरात दंगों की साजिश के मामले में सबूत गढ़ने और झूठी कार्यवाही शुरू करने के आरोपों पर है.
गुजरात पुलिस की शिकायत में तीस्ता सीतलवाड, सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी आर. बी. श्रीकुमार और जेल की सजा भुगत रहे पूर्व आईपीएस (गुजरात) संजीव भट्ट का नाम जालसाजी (468,471), झूठे सबूत देने (194), साजिश (120 बी), झूठे रिकॉर्ड बनाने (218) का आरोप है. गुजरात पुलिस की शिकायत में कहा गया है –
‘पर्दे के पीछे की आपराधिक साजिश और अन्य व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों की मिलीभगत से विभिन्न गंभीर अपराधों के लिए वित्तीय और अन्य लाभों का पता लगाने के लिए यह कार्यवाही की गई है.’
यहां विजय शंकर सिंह की बातें खत्म हो जाती है. अब तीस्ता सीतलवाड़ के बारे में जानते हैं. सत्येन्द्र पी. एस. बताते हैं कि ये वही तीस्ता सेतलवाड़ हैं जिनके बाबा एमसी सेतलवाड़ देश के पहले अटॉर्नी जनरल थे. ये वही तीस्ता सेतलवाड़ हैं जिनके परबाबा चिमणलाल हरिलाल सेतलवाड ने जालियावाला बाग में 400 हिंदुस्तानियों को मार देने वाले जनरल डायर के खिलाफ ब्रिटिश अदालत में मुकदमा लड़ा और डायर को कोर्ट मार्शल कराया, उसे डिमोट कराया. इनके परबाबा डा. भीमराव आंबेडकर के बहिष्कृत हितकारिणी सभा के फॉऊंडिंग प्रेसिडेंट थे.
ये वही तीस्ता हैं जो दंगों में मारे गए सैकड़ों हिंदुओं के न्याय की लड़ाई ही नहीं लड़तीं, बल्कि दर्जनों की शिक्षा दीक्षा का काम भी देखती हैं. मुम्बई बम ब्लास्ट 1993 में मारे गए ‘हिंदुओ’ की लड़ाई भी तीस्ता ही लड़ीं, सरकार से मदद दिलाई. उन्हें ये सावरकर के समर्थक गुंडे हिन्दू नहीं मानते क्योंकि ब्लास्ट में मरने वाले ठेले खोमचे वाले और आम नागरिक थे.
पूरा परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी आम लोगों की लड़ाई लड़ता रहा है. तीस्ता के पिता भी जाने माने बैरिस्टर थे और जनहित के मुद्दों पर लड़ने के लिए जाने जाते हैं. ये लोग देश भक्ति का ढोंग नहीं करते, इनकी तीन पीढ़ी आम लोगों के लिए गोरे अंग्रेजों से लड़ी है और स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी काले अंग्रेजों से लड़ रही है.
समस्या यह है कि इस समय गद्दारों और वादा माफ गवाह बनने वाले सावरकर के भक्तों की सरकार है. अंग्रेजों के पेंशन पर पलने वालों की मानस औलादों, भीख मांगकर, मन्दिर के नाम पर चंदा मांगकर जिंदगी बिताने वालों को लगता है कि हर कोई सिर्फ पैसे के लिए काम करता है. हर किसी को डराया जा सकता है.
मोदी – फासिस्ट अधिनायकवाद का नया नायक
प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं – जो लोग सोशल मीडिया से लेकर मोदी की रैलियों तक मोदी-मोदी का नारा लगाते रहते हैं, वे सोचें कि मोदी में नारे के अलावा क्या है ? वह जब बोलता है तो स्कूली बच्चों की तरह बोलता है, कपड़े पहनता है फैशन डिजायनरों के मॉडल की तरह, दावे करता है तो भोंदुओं की तरह, इतिहास पर बोलता है तो इतिहास-अज्ञानी की तरह. मोदी में अभी तक पीएम के सामान्य लक्षणों, संस्कारों, आदतों और भाषण की भाषा का बोध पैदा नहीं हुआ है.
मोदी सरकार के लिए भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपराएं बेकार की चीज हैं. असल है देश की महानता का नकली नशा. उसके लिए शांति, सद्भाव महत्वपूर्ण नहीं है. उसके लिए तो विकास महत्वपूर्ण है. वह मानती है शांति खोकर, सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करके भी विकास को पैदा किया जाय. जाहिर है इससे अशांति फैलेगी और यही चीज मोदी को अशांति का नायक बनाती है.
मोदी की समझ है स्वतंत्रता महत्वपूर्ण नहीं है, विकास महत्वपूर्ण है. स्वतंत्रता और उससे जुड़े सभी पैरामीटरों को मोदी सरकार एक सिरे से ठुकरा रही है और यही वह बिंदु है, जहां से उसके अंदर मौजूद फासिज्म की पोल खुलती है.
फासिस्ट विचारकों की तरह संघियों का मानना है नागरिकों को अपनी आत्मा को स्वतंत्रता और नागरिक चेतना के हवाले नहीं करना चाहिए, बल्कि कुटुम्ब, राज्य और ईश्वर के हवाले कर देना चाहिए. संघी लोग नागरिक चेतना और लोकतंत्र की शक्ति में विश्वास नहीं करते बल्कि थोथी नैतिकता और लाठी की ताकत में विश्वास करते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की अधिनायकवादी खूबी है- तर्क-वितर्क नहीं आज्ञा पालन करो. इस मनोदशा के कारण समूचे मंत्रीमंडल और सांसदों को भेड़-बकरी की तरह आज्ञापालन करने की दिशा में ठेल दिया गया है. क्रमशः मोदी भक्तों और संघियों में यह भावना विकास कर गयी है कि मोदी जो कहता है सही कहता है, आंख बंद करके मानो. तर्क-वितर्क मत करो. लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं विकास में बाधक है, तेजगति से काम करने में बाधक हैं, अतः उनको मत मानो. सोचो मत काम करो.
धर्मनिरपेक्ष दलों-व्यक्तियों की अनदेखी करो, उन पर हो रहे हमलों की अनदेखी करो. राफेल डील से लेकर लैंड बिल तक मोदी का यह नजरिया साफ तौर पर दिखाई दे रहा है.-
मोदी तानाशाही के 15 लक्ष्य –
- पूर्व शासकों को कलंकित करो,
- स्वाधीनता आंदोलन की विरासत को भ्रष्ट या कलंकित बनाओ,
- हमेशा अतिरंजित बोलो,
- विज्ञान की बजाय पोंगापंथियों के ज्ञान को प्रतिष्ठित करो,
- भ्रष्टाचार में लिप्त अफसरों को संरक्षण दो,
- सार्वजनिकतंत्र का तेजी से निजीकरण करो,
- विपक्ष को नेस्तनाबूद करो,
- विपक्ष के बारे में झूठ का बाजार हमेशा गर्म रखो,
- अल्पसंख्यकों पर शारीरिक-वैचारिक-राजनीतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक हमले तेज करो,
- मतदान को मखौल बनाओ.
- युवाओं को उन्मादी नारों में मशगूल रखो,
- खबरों और सूचनाओं को आरोपों-प्रत्यारोपों के जरिए अपदस्थ करो,
- भ्रमित करने के लिए रंग-बिरंगी भीड़ जमा रखो, लेकिन मूल लक्ष्य सामने रखो, बार-बार कहो हिन्दुत्व महान है, जो इसका विरोध करे उस पर कानूनी-राजनीतिक-सामाजिक और नेट हमले तेज करो,
- धनवानों से चंदे वसूलो, व्यापारियों को मुनाफाखोरी की खुली छूट दो.
- पालतू न्यायपालिका का निर्माण करो.