अग्नि आलोक
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अर्थात्…कुछ भी हो सकता है

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अर्थात् कुछ भी हो सकता है
इन दिनों मौसम में कुछ गर्मी है
और कुछ सर्दी भी
तुम इसे बसंत कह सकते हो
अर्थात्, तुम आशावादी हो
मैं इसे गटर से निकल कर
फुटपाथ पर सोने का मौसम कहता हूं
अर्थात्, मैं ज़रा उधड़ी हुई, गंदे बिस्तर से
बाहर निकलने की छटपटाहट में हूं
वो बिस्तर
जो अपनी लाख गंदगियों और दुर्गंध के वावजूद
ओढ़ लेता था मेरी रातों को
गलियों में गश्त लगाते
बूटों की आवाज़ सो जाने के बाद

सड़क हर तरफ़ उग आते हैं युद्ध भूमि में
कल तक, जो मेरा घर था
खेत खलिहान थे
किसी जनरल को पसंद आ गया
अपने टैंकों के वास्ते रास्ते की ख़ातिर

दर ब दर हुआ एक परिवार
सिमट जाता है
कोई दस साल पहले रोपे हुए
एक नीम के नीचे बने बंकर में
उस घर का मुखिया अफ़सोस करता है कि
काश उसने रोपा होता नीम कोई
पचास साल पहले
या, उसके पिता ने रोपा होता इसे
उससे भी पहले

अर्थात्
आदमी शिरकत करता है
अपने आज में
कुछ अफ़सोस के साथ
और अधूरा रह जाता है
घुन लगे फूल की तरह

जो भी हो
मैं इसे बसंत मानकर
गा नहीं सकता फूहड़ गीत

मैं रेशम का कीड़ा
मर जाता हूं अपनी खोल में
बुनते हुए रेशम
इस दरम्यान
आसमान साफ़ हो जाता है
रात भर की बर्फ़बारी के बाद
चीड़ के बुद्धिस्ट जंगल में
खिली हुई धूप
हमारे पैरों तले पिघला रही है बर्फ़

अर्थात्
हम सिर्फ़ एक आबनूसी सिल्वेट से निकल कर
उड़ने को तैयार हैं
धनक के रंगों के साथ

  • सुब्रतो चटर्जी
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