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राजनीतिक पार्टियों के लिए अपनों से पार पाना ही है सबसे बड़ी चुनौती

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किसी भी राज्य में जब चुनाव हो रहा होता है तो एक आम आदमी के लिए उस राज्य के चुनावी माहौल का अंदाजा लगाने के जो मानक होते हैं, वे यही होते हैं कि किस पार्टी की रैली में कितनी भीड़ जुट रही है, कौन सा मुद्दा किस पर भारी पड़ रहा है और कौन किस दल को अपने साथ जोड़कर जातीय समीकरणों को दुरुस्त कर रहा है? यूपी, पंजाब, उत्तराखंड सहित उन पांच राज्यों में भी आम आदमी के लिए यही मानक बने हुए हैं जहां अगले महीने के आखिर तक चुनावी अधिसूचना जारी होने की संभावना है। लेकिन बात अगर राजनीतिक दलों के नजरिए से की जाए, खासतौर पर बीजेपी और कांग्रेस के तो चुनावी राज्यों में उनकी चुनौती दो स्तरीय हैं। पहली चुनौती जनधारणा को अपने हक में करने की है। जनधारणा के जरिए ही मुकाबले में बने रहा जा सकता है और जनधारणा ही मुकाबले से बाहर भी कर देती है। दूसरी चुनौती इन राज्यों में पार्टी के अंदर चल रही खेमेबाजी से पार पाने की है।

यह चुनौती पहली चुनौती से कहीं ज्यादा बड़ी है क्योंकि अगर वे इस चुनौती से पार नहीं पा पाए तो उनका बना-बनाया खेल बिगड़ सकता है। ऐसा भी नहीं कि राजनीतिक दल इससे वाकिफ नहीं हैं। वे हालात से अच्छी तरह बाखबर हैं। यही वजह है कि जनधारणा को अपने पक्ष में करने के लिए पर्दे के सामने जो कुछ चल रहा है, उससे कहीं ज्यादा पर्दे के पीछे हो रहा है, अपनों से मिलने वाली चुनौती से मुकाबिल होने के लिए।

BJP के लिए अहम हैं UP-UK
जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें से एक (पंजाब) को छोड़कर बाकी चार राज्य बीजेपी शासित हैं। इनमें से दो- यूपी और उत्तराखंड में सत्ता वापसी करना बीजेपी की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है और संयोग यह कि इन्हीं दो राज्यों में बीजेपी के सामने आंतरिक चुनौती सबसे ज्यादा है। बात अगर यूपी की हो तो पहली नजर में मोदी और योगी की जोड़ी बहुत ताकतवर और प्रभावशाली दिखती है लेकिन केशव प्रसाद मौर्य फैक्टर को किसी भी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। केशव प्रसाद मौर्य 2017 में सीएम पद की रेस में पिछड़ने के बाद हार मानने को तैयार नहीं हैं। अभी तक उनका एक भी बयान ऐसा नहीं आया है, जिसमें उन्होंने यह कहा हो कि योगी ही 2022 में भी सीएम होंगे। उनसे आखिरी बार जब मीडिया ने सवाल पूछा था कि 2022 का चुनाव किसके चेहरे पर लड़ेंगे तो उनका जवाब था- कमल के। मथुरा से लेकर लुंगी और जालीदार गोल टोपी वाले उनके बयान से यह संकेत भी मिलता है कि वह अपनी छवि ‘फायर ब्रांड हिंदू नेता’ की गढकर पार्टी के अंदर अपनी स्थिति को और मजबूत करना चाहते हैं। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री ने केशव प्रसाद मौर्य को दिल्ली बुलाकर मुलाकात की, उसे स्थितियों को सामान्य बनाने की कोशिश के रूप में ही देखा जा रहा है। केशव प्रसाद की राजनीतिक हैसियत सिर्फ एक डेप्युटी सीएम तक सीमित नहीं है। उनकी अहमियत इसलिए ज्यादा है कि वह अति पिछड़ा वर्ग से आते हैं, जो कि यूपी की पॉलिटिक्स में बहुत निर्णायक माना जाता है।

उधर उत्तराखंड में भी पांच महीने के अंदर मुख्यमंत्रियों के ताबड़तोड़ जो बदलाव हुए, उसने भी राज्य में पार्टी के अंदर कई पाले खींच दिए हैं। पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत को लेकर तो यहां तक कहा जा रहा है कि वह चुनाव प्रचार अभियान का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं। 2017 के चुनाव के मौके पर कांग्रेस से नेताओं का जो धड़ा बीजेपी में शिफ्ट हुआ था, उनमें से कई नेता इन दिनों सहज नहीं दिख रहे हैं। दूसरी बात यह कि बीजेपी के कई नेता अभी भी अपने को सीएम पद का दावेदार बनाए हुए हैं।

चौतरफा घिरी दिख रही कांग्रेस
यूपी को छोड़ कर बाकी के चार राज्यों में कांग्रेस मुख्य मुकाबले में है। पंजाब वह राज्य है, जहां वह न केवल सत्ता में है बल्कि छह महीने पहले तक यह बात बहुत यकीन के साथ कही जा रही थी कि वह इस राज्य में सत्ता में वापस आ रही है। हालांकि अब स्थितियां बदल चुकी हैं। जब तक कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाया नहीं गया था, यह माना जा रहा था कि राज्य में कांग्रेस में दो पाले हैं, एक कैप्टन का और दूसरा उनके विरोधियों का लेकिन कैप्टन के हटाने के बाद पार्टी वहां कई पालों में बंट गई है। कांग्रेस ने जिन नवजोत सिंह सिद्धू पर भरोसा करते हुए उन्हें न केवल राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया बल्कि कैप्टन को मुख्यमंत्री पद से हटाने का जोखिम भी मोल लिया, उन्हीं सिद्धू को लेकर यह यकीनी तौर पर कहना संभव नहीं हो पा रहा कि वह कांग्रेस के साथ रहेंगे या नहीं? बतौर प्रदेश अध्यक्ष सिद्धू ने अपनी ही सरकार के सीएम चन्नी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। उधर मनीष तिवारी सिद्धू के भी मुखालिफ हैं और चन्नी के भी। सुनील जाखड़ का अपना अलग पाला है। कांग्रेस की मुश्किल सिर्फ पंजाब तक नहीं है बल्कि उसे उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी आंतरिक संकट से जूझना पड़ रहा है, जहां वह सत्ता में वापसी की उम्मीद किए हुए है। उत्तराखंड में हरीश रावत के खिलाफ कई धड़े बन चुके हैं, जिन्हें सीएम के चेहरे के रूप में देखा जा रहा है। गोवा में कई बड़े नेता अब तक पार्टी छोड़ चुके हैं लेकिन खेमेबाजी बदस्तूर है। मणिपुर में भी पार्टी की ऐसी ही स्थिति है।

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