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बक्सवाहा जंगल की लूट और हमारी सांसें

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डॉ मिथिलेश कुमार डांगी 

     दुनिया के आदिवासियों और  जंगलों के किनारे बसने वालों का दुर्भाग्य ही है कि उन्हें बार-बार उजाड़ना पड़ता है वह भी उनके अपने देशों के छद्म विकास के नाम पर । छद्म विकास इसलिए क्योंकि यह दुखद विस्थापन चंद पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए ही होता है ।आप किसी भी स्थान के विस्थापन को देख सकते हैं। यह हत्यारा विकास एक तरफ पूंजीपतियों को जमीन से आसमान पर पहुंचा देता है, तो ,दूसरी तरफ उस इलाके के निवासियों का घर छीनकर बेघर करता है और जीविका छीन कर बेरोजगार ।   

मध्य प्रदेश के छतरपुर जिला   बक्सवाहा जंगल क्षेत्र का लगभग 383 हेक्टेयर क्षेत्र हीरा खनन के लिए आदित्य बिड़ला की कंपनी एसेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड को 50 वर्षों की लीज पर दिया गया है। इसके खनन क्षेत्र का क्षेत्रफल मात्र 62.64 हेक्टेयर है शेष लगभग 320 हेक्टेयर में खनन का मालवा रखा जाएगा ।एक कहावत है कि बच्चा से भारी उसका गुह(विष्ठा)। हालांकि स्थानीय निवासी इस परियोजना का पूरी ताकत के साथ विरोध कर रहे हैं और देश के कुछ इस तथाकथित विकास के विनाशकारी पक्ष को देखने वाले लोग उनका अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग भी कर रहे हैं परंतु इस विकास के समर्थक चतुर्गुट (सत्ताधारी पक्ष विपक्ष, प्रशासनिक पदाधिकारी, कंपनी और उसके स्थानीय ठेकेदार दलाल) के सामने धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जाते हैं क्योंकि संघर्षशील लोग भी स्थानीयता ,जातीयता ,धर्म और राजनीतिक पार्टियों में विभक्त होने के कारण एकजुट नहीं हो पाते हैं ।अगर पीड़ित जनता अपने इन कमजोरियों को दूर कर एकजुट होकर संघर्ष करें तो इस चतुर्गुट पर अवश्य विजय होगी ऐसा मेरा विश्वास है। 

  आइए, इस परियोजना की सीधी  लूट को देखते हैं जिसके कारण विकास का झुनझुना थमाने वाले कारपोरेट किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं क्योंकि उसके चतुर्गुट के शेष तीन भाग भ्रष्ट और लालची होने के कारण सिर्फ अपने विकास को ही देश का विकास मानने की भूल करते रहते हैं ।     इस परियोजना में खान मंत्रालय के अनुसार 3.42 करोड़ कैरेट( 1 कैरेट = 200 मिलीग्राम) हीरा का भंडार है अगर इस भंडार को इलाके के क्षेत्रफल से भाग लगाया जाए तो हम पाते हैं कि क्षेत्र में प्रति डिसमिल भू भाग( 435.5 वर्ग फीट =1 डिसमिल) पर 2184 कैरेट हीरा का भंडार है ।इसकीऔर सूक्ष्म गणना करें तो यह पाते हैं कि खनन इलाके के प्रति वर्ग फीट भूमि में लगभग 6.50 कैरेट हीरा विद्यमान है ।    कच्चे हीरे का वर्तमान बाजार औसतन मूल्य ₹50000 प्रति कैरेट से लेकर ₹300000 प्रति कैरेट है। अगर इसका न्यूनतम मूल्य ही गणना के लिए लेते हैं तो प्रति वर्ग फुट जमीन में ₹3,25,000 मूल्य का हीरा है अगर यह अधिकतम रेंज का हुआ तो यह कीमत 1950000 रुपए का होगा ।पूरे खनन इलाके में यह रकम न्यूनतम 171000 करोड रुपए तथा अधिकतम 10 लाख 26 हजार करोड़ रुपए का होता है ।   

 इतनी बड़ी लूट में किसी भी पूंजीपति का लार टपकना स्वाभाविक है और इस बड़ी लूट के लिए अगर पूरे इलाके को मरुस्थल बनाना पड़े तो अपने शेष साथियों के साथ मिलकर उसे करने पर किसी भी कॉरपोरेट को कोई हिचक नहीं होती है।एक आंकड़े के अनुसार बक्सवाहा जंगल में 1000 परिवार ही इस परियोजना से सीधे तौर पर प्रभावित होंगे जबकि मात्र 400 व्यक्तियों को इस परियोजना में कुछ काम मिल पाएगा।हालांकि, कितने स्थानीय युवाओं को काम मिल पाएगा यह वक्त ही बताएगा लेकिन सबको लालच देकर कंपनी अपना दलाल बनाने की पूरी कोशिश करती रहती है।  हो सकता है अभी तक 400 स्थानीय युवक दलाली में उतर भी चुके होंगे तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी ।   

 भारत के संविधान की धारा 39b को अगर परिभाषित करें तो उसके मुताबिक इस हीरे का स्वामित्व उस इलाके में रहने वाले समुदाय को है। इसका स्वामित्व सरकार को नहीं है। स्वामित्व की इस बात को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले 8 जुलाई 2013 (थ्रेससम्मा जेकब बनाम जियोलॉजी डिपार्टमेंट केरल )में स्पष्ट किया है की सरकारें खनिजों की मालिक नहीं है जबकि जमीन मालिक ही खनिजों के मालिक हैं ।  जंगल का स्वामित्व भी समुदाय का ही है ।फिर केंद्र या राज्य सरकारें इसे कैसे बेच सकती हैं या किसी को लीज पर दे सकती हैं ,यह भी एक सवाल खड़ा करने की जरूरत है ।   

 भारत के संविधान की धारा 39B को विस्तार से देखा जाए और यह माना जाए कि इस हीरे की मलकियत इस देश की 135 करोड़ जनता को है तो इस पूरे हीरे की कीमत एवं आबादी की गणना करेंगे तो पाते हैं कि केंद्र सरकार ने न्यूनतम प्रति व्यक्ति 1267 रुपए हिस्सेदारी का हीरा आदित्य बिरला को भेंट कर दिया ।दूसरे शब्दों में इस देश के प्रत्येक नागरिक से ₹1267 की लूट करके सरकारों ने आदित्य बिरला की झोली में डालने का कुत्सित प्रयास किया है ।

      देश के संसाधनों का स्वामित्व समुदाय का है इसलिए सरकार के इस लुटेरी निर्णय को बदलने के लिए इस देश की सभी नागरिकों को इस लीज के खिलाफ अपनी अपनी योग्यता अनुसार बक्सवाहा के इस संघर्ष में साथ देना चाहिए ।वायुमंडल पर प्रभाव इस वर्तमान विकास की लौ में वन संपदा को मात्र घन फीट में लकड़ी का टुकड़ा माना जाता है इसी कारण इसके कटने का दर्द इन विकास के एजेंटों को नहीं होता है। इन पेड़ों के कटने का सूक्ष्म आकलन करेंगे तो शायद यह स्पष्ट हो पाएगा कि यह कितना दर्दनाक है ।      एक वैज्ञानिक शोध के आधार पर यह कहा गया है कि एक औसतन 12 मीटर लंबे और जड़ एवं पत्तों सहित 2 टन वजन के पेड़ द्वारा लगभग 100 किलोग्राम ऑक्सीजन प्रति पेड़ प्रतिवर्ष उत्पादन होता है । उसी में आगे कहा गया है कि एक व्यक्ति को 1 वर्ष तक सांस लेने के लिए औसतन 740 किलोग्राम ऑक्सीजन की जरूरत होती है । यानि एक व्यक्ति को शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त करने के लिए कम से कम 8 पेड़ों की आवश्यकता प्रतिवर्ष होती है। 

    बक्सवाहा खनन लीज क्षेत्र में 215875 पेड़ों को खनन के लिए शहीद कर दिया जाएगा यानी हीरे की चकाचौंध में लगभग 27000 व्यक्तियों को मिलने वाला ऑक्सीजन हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा । इतने लोगों को जिंदा रहने के लिए अन्य स्थान के पौधों पर या अन्य स्रोतों पर निर्भर करना पड़ेगा । इस परियोजना में यह कहा गया है कि खनन क्षेत्र में 1000 परिवार अर्थात लगभग 6000 लोग हैं जबकि इस खनन में 215875 पेड़ काटे जाएंगे इसका अर्थ अगर सांसें और पेड़ के संबंध में कहें तो यह कहा जाएगा कि उन केंद्रीय परिवारों जिनकी संख्या 6000 के आसपास है के अलावा इस क्षेत्र के आसपास परिधि में बसने वाले लगभग 21000 लोगों को सांस लेने के लिए ऑक्सीजन के लिए अन्य स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ेगा । इस प्राकृतिक ऑक्सीजन जो लोगों को प्रकृति ने मुफ्त में उपहार में दिया है क्या कोई कारपोरेट या सरकार इतने लोगों को जीवन भर मुफ्त ऑक्सीजन उपलब्ध कराने में सक्षम है ? 

 अभी अप्रैल से मई 2021 में पूरे देश में कोरोना के कारण ऑक्सीजन की कमी की दर्दनाक मंजर को शायद हम सब नहीं भूले हैं । आप सब जानते हैं कि पौधों द्वारा ऑक्सीजन का यह उत्पादन प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया के कारण होती है। इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन का निष्कासन भूमिगत जल के विखंडन के परिणाम स्वरूप होता है । इस पूरी प्रक्रिया में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की जरूरत पौधों को होती है जबकि वह कार्बन डाइऑक्साइड जीवो के उछस्वाश अर्थात expiration तथा मनुष्यों के अन्य कार्यों मसलन औद्योगिक क्षेत्रों से उत्सर्जित गैसों के रूप में वायुमंडल में उपस्थित है।     

एक तरफ इतने छोटे-छोटे ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्रों यानी पेड़ों को नष्ट कर दिया जाए और दूसरी ओर कार्बन का उत्सर्जन लगातार होती रहे तो आपके कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कौन करेगा?  यह तो करेला चढ़े नीम वाली स्थिति होगी। एक तरफ ऑक्सीजन की फैक्ट्री नष्ट और दूसरी ओर वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य जहरीली गैसों के अनुपात में वृद्धि । सोचिए ,आपका जीवन कहां रहेगा?    इस विकास में सिर्फ मानव जाति के विकास या उन पर पड़ने वाले प्रभाव पर खूब चर्चा होती है परंतु हम भूल जाते हैं कि हमारे परिवेश में सिर्फ मनुष्य ही नहीं हजारों किस्म के अन्य जीव भी हमारे सहचर और सहयोगी हैं जिनके बारे में ये सरकारें और कंपनियां कभी नहीं सोचते हैं। पारिस्थितिकी का एक सामान्य सा नियम है कि किसी भी जीव के नष्ट होने पर उसका व्यापक दुष्परिणाम अन्य जीवो और अंततः मनुष्यों पर भी पड़ता है ।जल पर प्रभावइस रिपोर्ट से यह पता चलता है कि इसमें प्रतिदिन 16000000 लीटर पानी का उपयोग होगा। अंतर्राष्ट्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार एक व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन लगभग 50 लीटर पानी की आवश्यकता होती है ।अर्थात इस परियोजना में जितना पानी प्रतिदिन उपयोग किया जाएगा उस से 3,20,000 लोगों को पानी की जरूरत पूरी होती । स्पष्ट है कि 3,20,000 लोगों के प्रतिदिन उपयोग होने वाला पानी लोगों से छीनकर आदित्य बिरला साहब की पूंजी में वृद्धि करने के लिए दिया जाएगा । 

   इस पानी की आपूर्ति स्थानीय जल स्रोतों यथा नदियों झरनों के जल को बांध के माध्यम से रोककर किया जाएगा । अगर इन स्रोत जल स्रोतों से जल की आपूर्ति कम पड़ जाएगी तो भूमिगत जल का उपयोग किया जाएगा । यह इलाका बुंदेलखंड में आता है जहां पहले से ही सूखा है और लोग अपने जीवन यापन के लिए महानगरों की ओर पलायन करते रहे हैं ।अगर इस परियोजना को नहीं रोका गया तो इस इलाके के मध्यम और छोटे व्यापारी भी हवा और पानी की कमी की मार झेल नहीं पाएंगे और स्थाई रूप से विस्थापित होंगे।   

    इस पानी की कमी की मार पौधों पर भी पड़ेगा । खेती बारी सिंचाई के अभाव में नष्ट होने की ओर अग्रसर होगी। पेड़ों के कटने से क्षेत्र में होने वाली वर्षा पर भी बुरा असर पड़ेगा । तापमान में लगभग 10 डिग्री सेंटीग्रेड तक की वृद्धि आने वाले 20 से 30 वर्षों में होगी। क्षेत्र में वायु प्रदूषण की स्थिति बदतर होगी।     इस जंगल में रहने वाले हिंसक वन्यजीव अपने आश्रयों के छिन जाने के कारण आसपास की आबादी पर आक्रमण प्रारंभ करेंगे । कुछ निरीह वन्य प्राणी जंगल नष्ट होने पर आसपास के गांवों में घुस जाएंगे और लोगों के भोजन बन जाएंगे फिर वन विभाग के अधिकारी उन लोगों पर मुकदमे करेंगे और कई दोषी और निर्दोष लोगों को जेलों में ठुंसेगे।   

      प्रशासनिक पदाधिकारी, राजनेता और कंपनी इस परियोजना के लाभ के रूप में 400 स्थानीय युवकों के रोजगार को सामने रखकर विकास की बात करेंगे। उन विकास पुरुषों से एक ही सवाल करें – क्या 400 लोगों के रोजगार के लिए 3,20,000 लोगों का दैनिक उपयोग का पानी और 27000 लोगों की सांसें रोक दी जाए।आइये इस जानलेवा परियोजना के खिलाफ जनचेतना के लिए कुछ कार्यक्रम बनाइये।

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