प्रमोद भार्गव
प्राचीन भारतीय संस्कृत ग्रंथों में ‘रामायण’ जनमानस में सबसे ज्यादा लोकप्रिय ग्रंथ है। भारत के सामंत और वर्तमान संवैधानिक भारतीय लोकतंत्र में राम के आदर्श मूल्य और रामराज्य की परिकल्पना प्रकट अथवा अप्रगट रूप में हमेशा मौजूद रही है। अतएव रामायण कालीन मुल्यों ने भारतीय जन-मानस को सबसे ज्यादा उद्वेलित किया है। इस जन-समुदाय में रामकथाओं में उल्लेखित वे सब वनवासी जातियां भी शामिल हैं, जिन्हें वानर, भालू, गिद्ध, गरुड़ भील, कोल, नाग इत्यादि कहा गया है। यह सौ प्रतिशत सच्चाई है कि ये लोग वन-पशु नहीं थे। इसके उलट वन-प्रांतों में रहने वाले ऐसे विलक्षण समुदाय थे, जिनकी निर्भरता प्रकृति पर अवलंबित थी। उस कालखंड में इनमें से अधिकांश समूह वृक्षों की शाखाओं, पर्वतों की गुफाओं या फिर पर्वत शिखरों की कंदराओं में रहते थे। ये अर्धनग्न अवस्था में रहते थे और रक्षा के लिए पत्थर और लकड़ियों का प्रयोग करते थे। इसलिए इन्हें जंगली प्राणी का संबोधन कथित सभ्य समाज करने लगा। अलबत्ता सच्चाई यह है कि राम को मिले चौदह वर्षीय वनवास के कठिन समय में ये जंगली मान लिए गए आदिवासी समूह राम-सीता एवं लक्ष्मण के जीवन में नहीं आए होते तो राम की आज जो पहचान है, वह संभव नहीं थी। राम ने लंका पर विजय इन्हीं वनवासियों के बूते पाई। जिन वन्य-प्राणियों के नाम से इन वनवासियों को रामायण काल में चिन्हित किया गया है, संभव हैं, ये लोग अपने समूहों की पहचान के लिए उपरोक्त प्राणियों के मुख के मुखौटे धारण करते हों। रांगेय राघव ने अपनी पुस्तक ‘महागाथा’ में यही अवधारणा दी है।
रामायण में आदिवासियों की महिमा का प्रदर्शन बालकांड से ही आरंभ हो जाता है। राजा दशरथ के साढू अंग देश के राजा लोमपाद हैं। संतान नहीं होने पर दशरथ, पत्नी कौशल्या से जन्मी पुत्री शांता को बालयाव्यस्था में ही लोमपाद को गोद दे देते हैं। अंगदेश में जब भयंकर सूखा पडा, तब आदिवासी ऋषि ऋष्यश्रृंग को बुलाया जाता है। ऋषि विभाण्डक के पुत्र श्रृंगी अंगदेश में पहुंचकर यज्ञ के माध्यम से वर्षा के उपाय करते हैं। अततः मूसलधार बारिश हो भी जाती है। उनकी इस अनुकंपा से प्रसन्न होकर लोमपाद अपनी दत्तक पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी से कर देते हैं। कालांतर में जब दशरथ को अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकई और सुमित्रा से कोई संतान नहीं हुई, तब बूढ़े दशरथ चिंतित हुए। मंत्री सुमन्त्र से ज्ञात हुआ कि श्रृंगी पुत्रेष्ठि यज्ञ में दक्ष हैं। तब मुनि वशिष्ठ से सलाह के बाद श्रृंगी ऋषि को अयोध्या आमंत्रित किया गया। ऋष्यश्रृंग ने यज्ञ के प्रतिफल स्वरूप जो खीर तैयार की उसे तीनों रानियों को खिलाया। तत्पश्चात कौशल्या से राम, कैकई से भरत और सुमित्रा की कोख से लक्ष्मण व शत्रुधन का जन्म हुआ। इस प्रसंग से यह तथ्य प्रमाणित होता है कि वनवासियों में महातपस्वी ऐसे ऋषि भी थे, जो कृत्रिम वर्षा और गर्भधारण चिकित्सा विधियों के जानकार थे।
रामायण काल की अवधि में किसी आदिवासी की प्रतिभा की यह अति महत्वपूर्ण आरंभिक सार्थक उपस्थिति है। वनवास में राम जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे पग-पग पर वनवासी उनके सहयोग के लिए तत्पर खड़े हैं। हालांकि राम का प्रत्पक्ष दिशा-निर्देश पूर्व से ही वनों में रहने वाले ऋृषि करते हैं, लेकिन जब उन्हें सीता-हरण के बाद सीता की खोज और फिर रावण से युद्ध के लिए योद्धाओं की जरूरत पड़ती है तो यही संगठित समुदाय राम का साथ देते हैं। राम को वनगमन के बाद पहला साथ निषादराज गुह का मिलता है। इलाहाबाद के पास स्थित श्रृंगवेरपुर से निषाद राज्य की सीमा शुरू होती है। निषाद को जब राम के आगमन की खबर मिलती है तो वे स्वयं राम की अगवनी के लिए पहुंचते हैं। हालांकि निषाद वनवासी नहीं है, लेकिन वे शूद्र माने जाने वाली जातियों के समूह में हैं, जिन्हें ढीमर, ढीबर, मछुआरा और बाथम कहा गया है। निषाद लोग शिल्पकार थे। उत्कृष्ट नावें और जहाजों के निर्माण में ये निपुण थे। निषाद के पास पांच सौ नौकाओं का बेड़ा उपलब्ध होने के साथ यथेष्ट सैन्य-शक्ति भी मौजूद थी। जब राम को वापस अयोध्या ले जाने की भरत की इच्छा पर संदेह होता है तो निषाद राम-लक्ष्मण की रक्षा का भरोसा अपनी सेना के बूते जताते हैं। किंतु राम अपने भ्राता पर अटूट विश्वास करते हुए कुशंकाओं का पटाक्षेप कर देते हैं। भरत-मिलन के बाद निषाद ही अपनी नौका पर राम, लक्ष्मण और सीता को बिठाकर गंगा पार कराते हैं। शूद्रों में निषाद राज गुह ऐसे पहले व्यक्ति थे, जो राम को कौशल राज्य की सीमाओं के बाहर सुरक्षा का भरोसा देते हैं।
मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ वनवासी समुदायों द्वारा रावण की पूजा के कारण यह धारणा कुछ विद्वानों ने स्थापित करने की कोशिश की है कि रावण और उसकी लंका छत्तीसगढ़ में थी। डॉ. हसमुख संकलिया ने छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी समूहों से बातचीत के आधार पर यह कल्पना कर डाली कि रावण की लंका, वर्तमान सिहंल द्वीप में मौजूद लंका नहीं है, बल्कि बस्तर के क्षेत्र में थी। दरअसल बस्तर के माड़िया गोंड आदिवासी समूह रावण को नफरत की दृष्टि से नहीं देखते हैं। गोंडों की एक बड़ी आबादी आज भी रावण की पूजा अर्चना करती है। गोया, वे अपने को रावणवंशी कहते हैं। मध्य-प्रदेश के मंडला और बालाघाट जिलों में रावणवंशी गोंडों की संख्या बहुत अधिक है। सांकलिया के इस मत का समर्थन रामायणों पर महत्पूर्ण काम करने वाले डॉ फादर कामिल फुल्के भी करते हैं। रावण की पूजा और उसे अपने वंश का बताने की बात गोड़ों के अलावा भैना, उराओं, बिर्हिर भी करते हैं। इन समुदायों के वनवासियों में गीध गौत्र पाया जाता है। एक धारणा यह भी है कि रावण का संबंध गीध जाति का था। उरा, असुर, खिरिया आदि जातियों की भाषा में ‘रावना’ गीध अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। रांची जिले के कटकया गांव में वर्तमान में भी एक रावना परिवार है। ये सब अपनी उत्पत्ति रावण से मानते हैं। मध्य-प्रदेश के जिला मुख्यालय मंदसौर में रावण की एक बृहद दसमुखी मूर्ति प्रतिष्ठित है। इसे यहां के सेन (नाऊ) समाज ने स्थापित किया हुआ है। यह समाज भी अपनी उत्पत्ति रावण के वंश से जोड़कर देखता है। नीलगिरी में शूर्पनखा की अब तक पूजा होती है। मलयाली नामक जाति की स्त्रियां, शूर्पनखा की संतान मानी जाती हैं। भोपों नामक जाति में आज भी ‘रावण-हत्था’ नामक वाद्य-यंत्र प्रचलन में है। रावण संगीत का विशेषज्ञ था। ऐसा भी माना जाता है, बीणा का आविष्कार रावण ने ही किया था। इस वाद्य-यंत्र की सचित्र जानकारी महाराष्ट्र में पुणे के पास स्थित लोनी में बने राजकपूर संग्रहालय के संगीत-कला केंद्र में मौजूद है।
हम सब भंलि-भांति जानते है कि भृगवंशी पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा का विवाह तृणबिंदु की पुत्री इलविला से हुआ था। किंतु इन्होंने एक अन्य विवाह राक्षस कन्या कैकसी से भी किया। इसी कैकसी ने रावण, कुंभकरण, वीभिषण और शूर्पनखा को जन्म दिया। साफ है, रावण एक वर्णसंकर ब्राह्मण संतान था। लेकिन जो वनवासी समुदाय स्वयं को रावण का वंशज मानते हैं, उनमें भी सच्चाई है। दरअसल, रावण की लंका का साम्राज्य उत्तर भारत तक विस्तृत था। शूर्पनखा, खर और दूषण इन राज्यों के अधिपती थे। यहां यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि रावण की अनेक रानियां थीं। इनमें दक्षिण भारत की भी थीं। ऐसे में इन जातियों द्वारा स्वयं को रावण को वंशज मानना, अचरज नहीं एक सच्चाई है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)