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नरनारी का संगम : दो शक्तियों के मिलन का विस्फोट है पूर्णत्व

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 डॉ. प्रिया 

     विस्फोट एक शक्ति से कभी नहीं होता, विस्फोट सदा दो शक्तियों का मिलन है। एक्सप्लोजन जो है, वह एक शक्ति से कभी नहीं होता। अगर एक शक्ति से होता होता तो कभी का हो जाता।

   आपकी माचिस भी रखी है, आपकी माचिस की काड़ी भी रखी है. वह रखी रहे अनंत जन्मों तक— एक इंच के फासले पर, आधा इंच के फासले पर वह रखी है, रखी रहे, तो आग पैदा नहीं होगी। उस विस्फोट के लिए उन दोनों की रगड़ जरूरी है, तो आग पैदा होगी। वह छिपी है दोनों में, लेकिन किसी एक में भी अकेले पैदा होने का उपाय नहीं है। जो विस्फोट है, वह दो शक्तियों के मिलने पर पैदा हुई संभावना है।

      तो व्यक्ति के भीतर जो सोई हुई है शक्ति, वह उठे और उस बिंदु तक आ जाए। सहस्रार वह बिंदु है जिसके पहले मिलन बहुत असंभव है। जैसे कि तुम्हारे दरवाजे बंद हैं और सूरज बाहर खड़ा है। रोशनी तुम्हारे दरवाजे पर आकर रुक गई है। तुम अपने घर से चलो, चलो; भीतर से बाहर की तरफ आओ, आओ, दरवाजे तक आकर भी खड़े हो जाओ, तो भी तुम्हारा सूरज की रोशनी से मिलन न हो। दरवाजा खुले और मिलन हो जाए।

*सहस्रार पर प्रतीक्षारत परमात्मा :*

       जो हमारा अंतिम चरम बिंदु है कुंडलिनी का, सहस्रार, वह हमारा द्वार है, जहां ग्रेस सदा ही खड़ी हुई है, जिस द्वार पर परमात्मा निरंतर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन तुम ही अपने द्वार पर नहीं हो, तुम ही अपने द्वार से बहुत भीतर कहीं और हो। तो तुम्हें अपने द्वार तक आना है, वहां मिलन हो जाएगा। और वह मिलन विस्फोट होगा।

       विस्फोट इसलिए कह रहे हैं उसे कि उस मिलन में तुम तत्काल विलीन हो जाओगे, एक्सप्लोजन इसलिए है कि उस मिलन के बाद तुम बचोगे नहीं। वह जो काड़ी है वह बचेगी नहीं माचिस की उस विस्फोट के बाद।

     माचिस तो बचेगी, काड़ी नहीं बचेगी। काड़ी तो जलकर राख हो जाएगी, काड़ी तो निराकार में विलीन हो जाएगी। तो उस घटना में तुम चूंकि मिट जाओगे, टूट जाओगे, बिखर जाओगे, खो जाओगे, तुम बचोगे नहीं, तुम जैसे थे द्वार तक आने के पहले, वैसे तुम नहीं बचोगे। तुम्हारा सब खो जाएगा, तुम मिट जाओगे। जो द्वार पर खड़ा था वही बचेगा, तुम उसी के हिस्से हो जाओगे।

यह घटना तुमसे अकेले नहीं हो सकती। इस विस्फोट के लिए उस विराट शक्ति के पास तुम्हारा जाना जरूरी है। उस शक्ति के पास जाने के लिए, तुम्हारी शक्ति जहां सोई है वहां से उसे उठकर वहां तक जाना पड़ेगा जहां वह शक्ति तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।

    तो कुंडलिनी की जो यात्रा है, वह तुम्हारे सोए हुए केंद्र से उस स्थान तक है, उस सीमांत तक, जहां तुम समाप्त होते हो, तुम्हारी जो सीमा है।

*मनुष्य की दो सीमाएं :*

    . एक सीमा तो हमारे शरीर की है जो हमने मान रखी है। यह बड़ी सीमा नहीं है; क्योंकि मेरा हाथ कट जाए, तो भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ता; मेरे पैर कट जाएं, तो भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ता; फिर भी मैं रहता हूं। 

    यानी इन सीमाओं के घटने—बढ़ने से मैं मिटता नहीं। मेरी आंखें चली जाएं, मेरे कान चले जाएं, तो भी मैं हूं। तुम्हारी असली सीमा तुम्हारे शरीर की सीमा नहीं है, तुम्हारी असली सीमा सहस्रार का बिंदु है, जिसके बाद तुम नहीं बच सकते।

    उस सीमा पर एनक्रोचमेंट हुआ कि तुम गए, फिर तुम नहीं बच सकते।

तुम्हारी कुंडलिनी तुम्हारी सोई हुई शक्ति है। तो वह तुम्हारे यौन के केंद्र के निकट और तुम्हारे मस्तिष्क के केंद्र के निकट तुम्हारी सीमा है। 

    इसीलिए हमें निरंतर यह खयाल होता है कि हम अपने पूरे शरीर से चाहे अपनी आइडेंटिटी छोड़ दें, लेकिन अपने सिर से, अपने चेहरे से आइडेंटिटी नहीं छोड़ पाते। यानी मुझे यह मानने में बहुत कठिनाई नहीं लगती कि हो सकता है यह हाथ मैं न होऊं, लेकिन अगर दर्पण में अपना चेहरा देखकर यह सोचूं कि यह चेहरा मैं नहीं हूं तो बहुत मुश्किल हो जाती है; वह सीमांत है।

     इसलिए आदमी सब खोने को तैयार हो सकता है, बुद्धि खोने को तैयार नहीं होता।

  _सुकरात से किसी ने पूछा था :_

तुम एक असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करोगे कि एक संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे? क्योंकि सुकरात संतोष की बात कर रहा था, वह कह रहा था संतोष परम धन है। तो कोई उससे पूछ रहा है कि तुम एक संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे कि एक असंतुष्ट सुकरात होना? 

   सुकरात कहता है कि संतुष्ट सुअर होने से तो मैं एक असंतुष्ट सुकरात होना ही पसंद करूंगा, क्योंकि संतुष्ट सुअर को संतोष का पता भी तो नहीं हो सकता, असंतुष्ट सुकरात को कम से कम असंतोष का पता तो होगा।

      अब यह जो कह रहा है असंतुष्ट सुकरात, वह हम यह कह रहे हैं कि हम सब खोने को तैयार हैं लेकिन बुद्धि को न खोके, चाहे बुद्धि असंतुष्ट ही क्यों न हो। बुद्धि भी हमारे उस केंद्र के बहुत निकट है।

अगर हम ठीक से समझें तो हमारे सीमांत दो हैं। एक यौन हमारी सीमा रेखा है, जिसके पार प्रकृति शुरू होती है; जिसके नीचे, बिलो दैट प्रकृति की दुनिया शुरू होती है। 

   जहां हम  ‘महज़ दैहिक सेक्स’ के बिंदु पर होते हैं, वहां हम में, पशु में, पौधे में कोई फर्क नहीं होता; क्योंकि पशु की, पौधे की वह अंतिम सीमा है जो हमारी प्रथम सीमा है; वहां उनकी सीमा खतम होती है। इसलिए सेक्स के बिंदु पर पशु में और हम में कोई फर्क नहीं होता। वह पशु की अंतिम सीमा है और हमारी पहली सीमा है।

 उस बिंदु पर जब हम खड़े होते हैं तो हम पशु ही होते हैं।

हमारी दूसरी सीमा है बुद्धि; वह हमारे दूसरे सीमांत के निकट है, जिसके पार परमात्मा है। उस बिंदु पर होकर भी फिर हम नहीं होते, फिर हम परमात्मा ही होते हैं। 

    ये हमारी दो सीमा रेखाएं हैं, और इनके बीच हमारी शक्ति का आंदोलन है। अभी हमारी सारी शक्ति जिस कुंड पर सोई है, वह यौन के पास है। इसलिए आदमी का निन्यानबे प्रतिशत चिंतन, निन्यानबे प्रतिशत स्वप्न, निन्यानबे प्रतिशत क्रिया—कलाप, निन्यानबे प्रतिशत जीवन उसी कुंड के आसपास व्यतीत होता है।

       सभ्यता कितना ही झुठलाए, समाज कितना ही और कुछ कहे, आदमी जीता वहीं है, वह काम के पास ही जीता है। 

     वह धन कमाता है तो इसलिए, मकान बनाता है तो इसलिए, यश कमाता है तो इसलिए—वह जो भी कर रहा है, उसके बहुत मूल में खोजने पर उसका काम मिल जाएगा।

*दो लक्ष्य, दो साधन :*

      जिनको समझ थी, उन्होंने दो ही लक्ष्य बताए काम और मोक्ष। ये दो लक्ष्य हैं। और अर्थ और धर्म, दो साधन हैं। अर्थ यानी धन, वह काम का साधन है। 

   इसलिए~

  जितना कामुक [घटिया किस्म की यौनिकता वाला] युग होगा, उतना धनपिपासु होगा; जितना मोक्ष की आकांक्षा करने वाला युग होगा, उतना धर्मपिपासु होगा। धर्म साधन है, जैसे धन साधन है। अगर मोक्ष पाना है तो धर्म साधन बन जाता है, और अगर काम—तृप्ति पानी है तो धन साधन बन जाता है।

तो दो हैं लक्ष्य और दो हैं साधन, क्योंकि दो हमारी सीमाएं हैं। और उन सीमाओं पर हम…… और यह बड़े मजे की बात है कि उन दो सीमाओं के बीच में तुम कहीं भी नहीं टिक सकते; उनके बीच में तुम कहीं नहीं ठहर सकते, क्योंकि उनके बीच में तुम ऐसे मालूम पड़ोगे कि जैसा गधा घर का न घाट का हो जाता है। 

     कुछ लोग उस हालत में पड़कर बड़ी मुसीबत में पड जाते हैं। बहुत लोग पड़ जाते हैं उस मुसीबत में तो बहुत मुश्किल में पड जाते हैं। उनको मोक्ष की अभीप्सा नहीं होती और काम का विरोध अगर किसी वजह से पैदा हो गया, तो वे कठिनाई में पड़ जाएंगे; वे काम के बिंदु से दूर हटने लगेंगे और मोक्ष के बिंदु के पास नहीं जाएंगे।

     तब वे एक ऐसी दुविधा में पड़ जाएंगे जो बहुत ही कठिन है, बहुत दुखद है, बहुत नारकीय है। और उनका जीवन सारा का सारा अंतर्द्वंद्व से भर जाएगा।

बीच के बिंदु पर टिकना न उचित है, न स्वाभाविक है, न अर्थपूर्ण है। इसे हम ऐसा समझ लें कि जैसे कोई सीढ़ी पर चढ़े और बीच में रुक जाए। 

    तो हम उससे कहेंगे कुछ भी करो, या तो वापस लौट आओ या ऊपर चले जाओ! क्योंकि सीढ़ी कोई मकान नहीं है, सीढ़ी कोई निवास नहीं है; उसमें बीच में रुक जाना किसी भी अर्थ का नहीं है। यानी एक आदमी अगर सीडी पर रुक जाए तो समझो उससे ज्यादा व्यर्थ आदमी खोजना बहुत मुश्किल होगा; क्योंकि उसे कुछ भी करना है तो उसे सीडी के या तो नीचे के बिंदु पर आना पड़े या ऊपर के बिंदु पर जाना पड़े।

 हमारी जो रीढ़ है, समझ लो कि सीडी है। है भी सीढ़ी। और रीढ़ का एक—एक गुरिया समझो कि एक—एक स्टेप है। और वह जो हमारी कुंडलिनी है, वह नीचे के केंद्र से यात्रा शुरू करती है और ऊपर के अंतिम केंद्र तक जाती है। 

    ऊपर के केंद्र पर वह पहुंच जाए तो विस्फोट निश्चित है; वहां फिर विस्फोट नहीं बच सकता। और नीचे के केंद्र पर पहुंच जाए तो स्खलन निश्चित है, वहां स्खलन नहीं बच सकता। इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

       *निम्नतम बिंदु पर स्खलन और उच्चतम पर विस्फोट :*

    कुंडलिनी नीचे के बिंदु पर है तो स्खलन निश्चित है, ऊपर के बिंदु पर पहुंच जाए तो विस्फोट निश्चित है। दोनों ही विस्फोट हैं, और दोनों के लिए ही दूसरे की जरूरत है।

      वह जो यौन का स्खलन है, उसमें भी दूसरा अपेक्षित है—चाहे कल्पना में ही सही, लेकिन दूसरा अपेक्षित है। तो उस जगह से भी तुम्हारी ऊर्जा विकीर्ण होगी।

      पर उस जगह से तुम्हारी पूरी ऊर्जा विकीर्ण नहीं हो सकती। नहीं हो सकती इसलिए कि वह बिंदु तुम्हारा प्राथमिक बिंदु है; तुम उससे बहुत ज्यादा हो; उस बिंदु से तुम आगे जा चुके हो।

    पशु तो वहां पूरा तृप्त हो जाता है। इसलिए पशु मोक्ष नहीं खोजता। अगर पशु कोई शास्त्र लिखे तो वहां दो ही पुरुषार्थ होंगे—काम और धन, अर्थ और काम।

धन भी पशु की दुनिया का धन होगा। अब जिस पशु के पास ज्यादा मांस है, ज्यादा शक्ति है, उसके पास ज्यादा धन है, वह दूसरे पशुओं से काम की प्रतियोगिता में जीत जाएगा; वह अपने आसपास दस मादाएं इकट्ठी कर लेगा।

     वह भी एक तरह का धन इकट्ठा किया है। उसके पास चर्बी ज्यादा है, वह धन है। एक के पास तिजोरी ज्यादा है, वह भी चर्बी है, जो कभी भी चर्बी में कनवर्ट हो सकती है।

एक राजा है, वह हजार रानियां इकट्ठी कर लेगा। एक जमाना था कि आदमी के पास कितनी संपदा है, वह उसकी स्त्रियों से नापा जाता था कि उसके पास कितनी स्त्रियां हैं।

    गरीब आदमी है तो वह कैसे चार स्त्री रख सकता है! तो जैसे आज हम शिक्षा से नापते हैं कि कौन आदमी कितना शिक्षित है, या कौन आदमी के पास कितना बैंक बैलेंस है।

    ये सब बहुत बाद के मेजरमेंट हैं, पहला मेजरमेंट तो एक ही था कि उसके पास कितनी स्त्रियां हैं।

इसलिए बहुत बार हमें अपने महापुरुषों को बड़ा बताने के लिए बहुत स्त्रियां गिनानी पड़ी, जो झूठी हैं।

   जैसे ~

     कृष्ण की सोलह हजार! अब यह कृष्ण को बड़ा बताने का उस वक्त और कोई उपाय नहीं था—कि अगर कृष्ण बड़े आदमी हैं तो औरतें कितनी हैं? वह एकमात्र मेजरमेंट होने की वजह से हमको फिर गिनती करानी पड़ी कि भई बहुत हैं। और सोलह हजार अब बहुत कम मालूम पड़ती हैं, क्योंकि अब हमारे पास बहुत बडी संख्याएं हैं। उन दिनों संख्याएं बहुत बड़ी नहीं थीं।

अगर अफ्रीका में जाएं तो अब भी ऐसी कौमें हैं कि जिनकी कुल संख्या तीन पर खतम हो जाती है। तो अगर किसी के पास चार औरतें हैं तो वह यह कहेगा, बहुत! क्योंकि तीन के बाद संख्या खतम हो जाती है। 

   तो वह कहेगा, मेरे पास बहुत, असंख्य औरतें हैं। असंख्य! क्योंकि तीन के बाद तो संख्या खतम हो जाती है उसकी, तो तीन के बाद जितनी हैं उनको वह गिन तो सकता नहीं, तो वह कहता है, असंख्य औरतें हैं।

*दोनों के लिए दूसरा अपेक्षित :*

        उस तल पर भी दूसरा अपेक्षित है। अगर दूसरा वस्तुत: मौजूद न हो, तो भी कल्पना में अपेक्षित है। बाकी दूसरा अपेक्षित है। दूसरे के बिना स्खलन भी नहीं हो सकता ऊर्जा का। लेकिन कल्पना में भी दूसरा उपस्थित हो तो स्‍खलन हो सकता है।

    इसी वजह से यह खयाल पैदा हुआ कि अगर कल्पना में भी परमात्मा उपस्थित हो तो विस्फोट हो सकता है। इसलिए भक्ति की लंबी धारा चली जिसने कि कल्पना को ही विस्फोट का आधार बनाने की कोशिश की। क्योंकि जब कल्पना में वीर्य—स्‍खलन हो सकता है, तो सहस्रार से ऊर्जा का विस्फोट क्यों नहीं हो सकता? 

    इस खयाल ने काल्पनिक ईश्वर को भी जोर से मन में बिठा लेने की संभावनाओं को प्रगाढ़ कर दिया। उसका कारण यही था।

लेकिन ~

यह नहीं हो सकता। स्खलन इसलिए हो सकता है कल्पना में, क्योंकि वस्तुत: स्‍खलन हुआ है, इसलिए उसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन परमात्मा से तो कभी मिलन नहीं हुआ, इसलिए कोई कल्पना नहीं की जा सकती उसकी। 

    कल्पना हम उसकी ही कर सकते हैं जो हुआ है। तो फिर उसकी कल्पना से भी काम लिया जा सकता है।

   यानी एक आदमी ने कोई एक तरह का सुख लिया है तो फिर वह आंख बंद करके उसका सपना भी देख सकता है, लेकिन अगर लिया ही नहीं है तो फिर सपना नहीं देख सकता।

जैसे बहरा आदमी लाख कोशिश करे, सपने में भी शब्द नहीं सुन सकता, उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। 

    अंधा आदमी हजार उपाय करे तो भी सपने में भी प्रकाश नहीं देख सकता। ही, यह हो सकता है कि एक आदमी की आंखें चली गईं, अब वह सपने में बराबर प्रकाश देख सकता है। 

   बल्कि अब सपने में ही देख सकता है! क्योंकि अब तो आंख तो नहीं है, इसलिए असलियत में तो नहीं देख सकता।

जो हमारा अनुभव हुआ है, उसकी हम कल्पना भी कर सकते हैं; लेकिन जो अनुभव नहीं हुआ है, उसकी तो कल्पना का भी उपाय नहीं। और विस्फोट हमारा अनुभव नहीं है, इसलिए वहां कल्पना काम नहीं कर सकती है।

   वहां वस्तुत: जाना होगा और वस्तुत: ही घटना घट सकती है।

*मनुष्य : पशु और परमात्मा के बीच का सेतु :*

   जो सहस्र चक्र है, वह तुम्हारी अंतिम सीमा है, जहां से तुम समाप्त होते हो। जैसा मैंने कहा कि सीढ़ी।

    आदमी एक सीढ़ी ही है। इसलिए नीत्शे के वचन बहुत कीमती हैं। वह कहता है~

   आदमी सिर्फ एक सेतु है—मैन इज ए ब्रिज बिट्वीन टू इटरनिटीज— दो अनंतताओं के बीच में एक सेतु।

      एक अनंतता है प्रकृति की, उसकी भी कोई सीमा नहीं है, और एक अनंतता है परमात्मा की, उसकी भी कोई सीमा नहीं है। और आदमी दोनों के बीच में झूलता हुआ एक सेतु है। इसलिए आदमी पडाव नहीं है।

     या तो पीछे जाओ या आगे जाओ, इस सेतु पर मकान बनाने की जगह नहीं है। और जो भी इस पर मकान बनाएगा वह पछताएगा; क्योंकि सेतु कोई मकान बनाने की जगह नहीं है, सिर्फ पार होने के लिए है।

फतेहपुर सीकरी में अकबर ने जो एक सर्व धर्म मंदिर बनाने की कल्पना की थी, उसमें जो एक दीन—ए—इलाही का खयाल था कि सब धर्मों का सारभूत हो, तो उसने उस दरवाजे पर जो वचन खुदवाया है वह जीसस का वचन है। 

    जीसस का वचन उसने खुदवाया है उस दरवाजे पर, वह वचन यह है कि यह जगत मुकाम नहीं, सिर्फ पड़ाव है। यहां थोड़ी देर ठहर सकते हो, लेकिन रुक ही मत जाना; यह कोई यात्रा का अंत नहीं है, यह सिर्फ थकान मिटाने के लिए एक पड़ाव है, एक सराय है—जहां हम रात भर रुकते हैं और सुबह फिर चल पड़ते हैं।

  रुकते सिर्फ इसीलिए हैं कि सुबह चल सकें, और रुकने का कोई प्रयोजन नहीं है; रुकने के लिए नहीं रुकते।

*पशु—वृत्तियों का सुख हमेशा क्षणिक :*

    आदमी एक सीढ़ी है जिस पर यात्रा है। इसलिए आदमी सदा तनावग्रस्त है। अगर हम ठीक से कहें तो तनावग्रस्त है आदमी, यह कहना शायद ठीक नहीं; यही कहना ठीक है कि मनुष्य एक तनाव है। क्योंकि ब्रिज जो है तनाव ही है, तना हुआ है; तना हुआ होकर ही ब्रिज हो सकता है। वह दो छोरों पर— और बीच में बेसहारा— तना हुआ है।

     इसलिए मनुष्य एक अनिवार्य तनाव है। इसलिए मनुष्य कभी शांत नहीं हो सकता। या तो वह पशु होता है तो थोड़ी सी शांति मिलती है, और या फिर वह परमात्मा होता है तो फिर पूरी शांति मिलती है। 

     पशु होकर भी तनाव उतर जाता है, क्योंकि वह वापस लौट आया सीढ़ी से, नीचे जमीन पर खड़ा हो गया— परिचित जमीन पर, पहचानी हुई जमीन पर, जिसमें वह अनंत—अनंत जन्मों रहा है, वहां वापस आ गया; झंझट के बाहर हो गया।

     अभी कोई तनाव नहीं है। इसलिए या तो आदमी सेक्स में खोजता है तनाव की मुक्ति, या सेक्स से संबंधित और अनुभवों में खोजता है— शराब में, नशे में—जहां भी मूर्च्छा है, वहां वह खोज लेता है।

 वहां तुम थोड़ी देर ही रुक सकते हो; क्योंकि तुम अब कुछ भी चाहो तो स्थायी रूप से पशु नहीं हो सकते।

    बुरे से बुरा आदमी भी क्षण काल को ही पशु हो सकता है। वह जो आदमी किसी की हत्या कर देता है, वह भी क्षण भर में ही कर पाता है। अगर क्षण भर और रुक गया होता तो शायद नहीं कर पाता। 

    यानी हमारा पशु होना करीब—करीब ऐसा है जैसे एक आदमी जमीन पर छलांग लगाता है, तो एक सेकेंड को हवा में रह पाता है, फिर वापस जमीन पर लौट आता है। तो बुरे से बुरा आदमी भी स्थायी बुरा नहीं होता, न हो सकता है। 

    बुरे से बुरा आदमी भी किन्हीं क्षणों में बुरा होता है। और उन क्षणों के बाहर वह ऐसा ही आदमी होता है जैसे सारे आदमी हैं। पर उस एक क्षण को उसे राहत मिल सकती है, क्योंकि वह परिचित भूमि पर पहुंच गया, जहां कोई तनाव नहीं था।

     इसलिए पशु के मन में तुम्हें कोई तनाव नहीं दिखेगा, उसकी आंख में झाकोगे तो कोई तनाव नहीं दिखेगा। 

      पशु पागल नहीं होता, आत्महत्या नहीं करता, उसे हृदय का दौरा नहीं पड़ता। उसे ये सब बातें नहीं होतीं। हां, आदमी के चक्कर में पड़ जाए तो हो सकती हैं; आदमी की बैलगाड़ी में जुट जाए तो हृदय का दौरा हो सकता है, आदमी का घोड़ा बन जाए तो मुश्किल में पड़ सकता है, आदमी का कुत्ता हो तो पागल भी हो सकता है।

     वह दूसरी बात है। वह भी इसीलिए है कि वह आदमी अपने ब्रिज पर उसको खींच लेता है, इसलिए वह झंझट में डाल देता है उसे।

एक कुत्ता कमरे में आए तो अपनी मौज से घूमेगा। लेकिन अगर किसी आदमी का पाला हुआ कुत्ता हो तो वह उससे कहेगा—बैठ जाओ उस कोने में! तो वह कुत्ता उस कोने में बैठेगा। वह आदमी की दुनिया में प्रवेश कर गया। वह पशु की दुनिया के बाहर हो गया। 

   अब वह झंझट में पड़नेवाला है कुत्ता। वह बैठा है। है तो वह कुत्ता, लेकिन बैठा है आदमी की तरह। अब तुमने उसको तनाव में डाल दिया है। 

  अब वह बड़ी झंझट में है कि कब आशा हटे और वह यहां से बाहर हो जाए।

आदमी कुछ देर के लिए, क्षण, दो क्षण के लिए वहां पहुंच सकता है। इसीलिए जो हम निरंतर कहते हैं कि हमारे सब सुख क्षणिक हैं, उसका और कोई कारण नहीं है। सुख शाश्वत हो सकता है। 

    लेकिन जहां हम सुख खोजते हैं वह स्थिति क्षणिक है, सुख क्षणिक नहीं है। हम खोजते हैं पशु होने में, तो वह क्षणिक ही हो सकता है, क्योंकि हम पशु क्षण भर को मुश्किल से हो पाते हैं। वह ऐसा ही है कि जैसे हम…… किसी स्थिति में वापस लौटना सदा मुश्किल है। 

     अगर तुम कल में वापस लौटना चाहो, बीते कल में, तो तुम आंख बंद करके एकाध क्षण को ऐसी कल्पना में हो सकते हो कि लौट गए। लेकिन कितनी देर? आंख खोलोगे और पाओगे कि नहीं, वापस खड़े हो—जहां थे वहीं आ गए हो।

पीछे लौटा नहीं जा सकता; क्षण भर की कोई जबरदस्ती की जा सकती है। फिर पछतावा होगा। इसलिए जितने भी क्षणिक सुख हैं, सबके पीछे पछतावा है, सबके पीछे रिपेंटेंस है, सबके पीछे एक दुख—बोध है—कि बेकार मेहनत की, वह सब व्यर्थ गया।

     लेकिन फिर चार दिन बाद तुम भूल जाओगे और फिर छलांग लगा लोगे।

   पशु के तल पर जाकर क्षण भर को सुख पाया जा सकता है, प्रभु के तल पर जाकर शाश्वत सुख में डूबा जा सकता है।

  यह यात्रा तुम्हारे भीतर पहले पूरी होगी; तुम्हें अपने सेतु के एक कोने से दूसरे कोने पर पहुंचना होगा, तब दूसरी घटना घटेगी।

*संभोग और सत्यानुभूति में समानता :*

     संभोग (आनंद का “समान भोग” यानी वह सेक्स जो बेसुध करने वाली तृप्ति दे) और भगवतानुभूति बड़ी समतुल बातें हैं। समतुल मानने का कारण है। असल में, वे ही दो समतुल घटनाएं हैं, और कोई घटना समतुल नहीं है। 

    प्रेम-संभोग की स्थिति में हम ब्रिज के इस छोर पर होते हैं, सीढ़ी के नीचे वाले हिस्से पर होते हैं, जहां से हम प्रकृति से मिलते हैं। और ध्यान-समाधि में हम सीढ़ी के दूसरे छोर पर होते हैं, जहां हम परमात्मा से मिलते हैं। दोनों मिलन हैं, दोनों विस्फोट हैं एक अर्थों में, दोनों में किसी खास अर्थ में तुम खोते हो।

    वह दूसरी बात है। लेकिन दोनों स्थितियों में तुम मिटते हो। यह बड़ा क्षणिक विस्फोट है जो वापस लौट आता है; तुम रिक्रिस्टलाइज हो जाते हो; क्योंकि तुम जहां गए थे वह तुमसे पीछे की अवस्था थी, उसमें तुम लौट नहीं सकते। 

    परमात्मा में जाकर तुम रिक्रिस्टलाइज नहीं हो सकते, वापस तुम सुसंगठित नहीं हो सकते। क्योंकि जिसमें तुम गए हो, उसमें जाते ही, फिर तुम्हारा वापस लौटना उतना ही असंभव है जैसे कि पहले तुम पीछे वापस लौटने में असंभव थे। अब तो और भी असंभव है। अब तो इतना असंभव है, ऐसे ही जैसे कि एक आदमी बड़ा हो गया और उसके बचपन के पाजामे में उसे वापस लौट आना पड़े। पर वह भी संभव है; यह संभव नहीं है। क्योंकि तुम विराट के साथ एक हो गए, अब तुम व्यक्ति में नहीं लौट सकते। अब वह व्यक्ति इतनी क्षुद्र, संकीर्ण जगह है कि जहां तुम्हारे प्रवेश का कोई उपाय नहीं है।

        अब तुम सोच ही नहीं सकते कि इसमें जाना कैसे हो सकता है! तुम यह भी नहीं सोच सकते कि मैं इसमें कभी था तो कैसे था, इतने छोटे होने में कैसे हो सकता हूं। वह बात खत्म हो जाती है।

       उस विस्फोट के लिए दोनों बातें जरूरी हैं; तुम्हारे भीतर की यात्रा तुम्हारे अंतिम बिंदु सहस्रार तक आनी चाहिए।

*सहस—दल कमल का खिलना :*

      क्यों उसे हम सहस्र कहते हैं, वह भी थोड़ा खयाल में लेना जरूरी है। ये सारे शब्द आकस्मिक नहीं हैं।

    हमारी भाषा आमतौर से आकस्मिक है, उपयोग से पैदा हुई है। जैसे किसी चीज को हम दरवाजा कहते हैं। दरवाजा न कहें, कुछ और कहें, तो कुछ हर्ज नहीं होता। दुनिया में हजार भाषाएं हैं तो हजार शब्द होंगे दरवाजे के लिए, और सभी शब्द काम कर जाते हैं। 

     लेकिन फिर भी कोई एक बात जो सांयोगिक नहीं है, वह शायद सभी में मेल खाएगी। तो दरवाजा या डोर या द्वार का जो भाव है जिसके द्वारा हम बाहर— भीतर जाते हैं, वह सभी भाषाओं में मेल खाएगा; क्योंकि वह अनुभव का हिस्सा है, वह सांयोगिक नहीं है।

     जिससे हम बाहर-भीतर आते-जाते हैं; जिससे जगह मिलती है बाहर-भीतर आने-जाने की; स्पेस का एक खयाल जो उसमें है, वह सबमें होगा।

 सहस्र शब्द बड़ा अनुभव का है, सांयोगिक नहीं है। जैसे ही तुम उस अनुभूति को उपलब्ध होते हो, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे भीतर जैसे हजार-हजार फूल एकदम से खिल गए.

सब बंद हजार फूल एकदम से खिल गए।

     हजार भी इसी अर्थ में कि संख्या के बाहर जैसी घटना घटती है। और फूल इस अर्थ में कि फ्लावरिग होती है, कोई चीज जो बंद थी कली की तरह वह खुलती है। फूल का मतलब है खिलना। फूल का मतलब वही होता है जो प्रफुल्ल होने का होता है—खुल जाना। फ्लावरिग का भी वही मतलब होता है—खुल जाना।

    कोई चीज जो बंद थी वह खुल गई है। तो कली की तरह कोई चीज थी वह फूल की तरह हो गई है। और फिर एकाध चीज नहीं खुल गई, अनंत चीजें जैसे पूरे तरफ से खुल गई हैं।

    इसलिए इसको सहस्र कमल, हजार कमल खिल गए हैं, यह खयाल आना बिलकुल स्वाभाविक था। अगर तुमने कभी सुबह कमल को खिलते देखा है—नहीं देखा तो गौर से देखना चाहिए, बहुत निकटता से, बहुत चुपचाप बैठकर उसके पूरे, धीरे— धीरे पूरे खिलने को देखना चाहिए—तो तुम्हें खयाल आ सकेगा कि अगर हजार मस्तिष्क के कमल एकदम से खिल जाएंगे तो कैसी प्रतीति, उसकी तुम थोड़ी सी रूप—रेखा कल्पना में ले सकोगे।

और भी एक अदभुत अनुभव हुआ है :

   जिन लोगों को संभोग का बहुत गहरा अनुभव होगा, उन्हें भी खिलने का एक अनुभव होता है क्षण भर को; उनके भीतर भी कोई चीज खिलती है— बस क्षण भर को, फिर बंद हो जाती है। लेकिन उस खिलने में और इस खिलने में एक और अनुभव होगा कि जैसे कि फूल नीचे की तरफ लटका हुआ खिले और फूल ऊपर की तरफ खिले। 

   पर वह तुलना तभी हो सकती है जब दूसरा अनुभव तुम्हारे खयाल में आ जाए; तब तुम्हें पता चलेगा कि नीचे की तरफ फूल खिल रहे थे और अब ऊपर की तरफ फूल खिल रहे हैं। नीचे की तरफ जो फूल खिलते थे, 

स्वभावत: वे नीचे के जगत से जोड़ देते थे, ऊपर की तरफ जो फूल खिलते हैं, स्वभावत: वे ऊपर के जगत से जोड़ देते हैं।

    असल में, उनका खिलना और उनकी ओपनिंग तुम्हें वलनरेबल बना देती है, तुम्हें खोल देती है; दूसरी दुनिया के लिए दरवाजा बन जाते हो, वहां से कुछ तुममें प्रवेश करता है। और उस प्रवेश से तुम्हारे भीतर विस्फोट घटित होता है।

इसलिए~

   दोनों बातें जरूरी हैं तुम जाओगे वहां तक और वहां कोई प्रतीक्षा ही कर रहा है। 

      आना कहना ठीक नहीं है कि वहां से कोई आएगा; तुम जाओगे वहां तक, कोई वहां प्रतीक्षा कर रहा है, घटना घट जाएगी। पूर्णत्व की अपरिवर्तनीय भावदशा/अनुभुति 15 दिवसीय समर्पण-साधना से निःशुल्क और सुनिश्चित रूप से प्राप्त की जा सकती है : ध्यान-समाधि के पथ  से और प्रेम-संभोग के पथ से भी। अभीप्सु “कपल्स” विस्तृत परिचय और id सहित हमें लिख सकते हैं।

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