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देश की सरकार सिर्फ वोट से डरती है, अब मतदाता की हैसियत से करें संघर्ष

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                                            -सुसंस्कृति परिहार 

खेती उत्तम काज है,,… इहि सम और न होय,…
खाबे कों सबकों मिलै,… खेती कीजे सोय॥”

खेती सर्वोत्तम कार्य है, इसके बराबर कुछ और नहीं,… यह सबको भोजन देती है किसी को (ना सिर्फ मनुष्य वरन पशु – पक्षी जीव जंतु) भूखा नहीं रहने देती,.. इसलिये खेती करनी चाहिये। इसलिए आज तक खेती किसानी अच्छी मानी जाती है।भारत एक कृषिप्रधान देश है । जनविरोधी और पूंजीपतियों की हित साधक मशीनी सरकार को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए वह देश की अन्नपूर्णओं और अन्नदाता किसानों पर पूरी बेशर्मी के साथ जो व्यवहार कर चुकी है वह अत्यंत शर्मनाक है।

पिछले किसान आंदोलन को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं तीन सौ अस्सी दिन उन्होंने इस बेरहम सरकार के जो कष्ट झेले वह भीषण गर्मी,ठंडी भीगी रातों और मूसलाधार बारिश के बीच चलते आंदोलन पर भारी है। उन्हें दिल्ली प्रवेश ना देकर बार्डर पर रहने मज़बूर किया जिसमें 750किसानों की शहादत हुई। झूठे आश्वासन से नाराज़ आज किसानों से लिखित वादे भी झूठे निकले। इतनी ओछी राजनीति कर देश के अन्नदाता के साथ हुए दुर्व्यवहार की कोई मिसाल दुनिया में नहीं ।लानत है ऎसी असम्वेदनशील सरकार को।

1987 में राजीव गांधी सरकार थी और बाबा महेंद्रसिंह टिकैत के नेतृत्व में 10 लाख किसान जंतर-मंतर से लेकर वोट-क्लब तक खचाखच भरे हुए थे। किसी भी किसान को दिल्ली आने से नहीं रोका गया था।2014 से पहले कितनी ही बुरी सरकारें रही हो मगर किसानों को दिल्ली में आने से नहीं रोका गया था। 2014 के बाद यह सिलसिला शुरू हुआ है।किसी भी लोकतांत्रिक देश में शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन का दमन करना तानाशाही रवैया होता है। किसानों के रास्ते को रोकना, बैरिकेड लगाना, सड़कें खोदना कीलें लगाना साबित करता है कि तानाशाहों को अपनी जनता से ही खतरा नजर आता है।हमारे बुजुर्ग एक कहावत कहते थे ,…
“उत्तम खेती मध्यम बान,…. निषिद चाकरी भीख निदान”
इस कहावत के हिसाब से ,… खेती सर्वोत्तम थी और चाकरी (नौकरी) निम्नतम।लेकिन अब विकास के साथ साथ ,… ये कहावत एकदम गलत सिद्ध हो रही है ,… आज की हकीकत यही है की,..
की खेती किसानी,… दिहाड़ी मजदूरी के सामने भी,.. कहीं नहीं टिकती। किसान इसी अन्तरविरोध से परेशान हैं। मज़दूर की दिहाड़ी बढ़ जाती किसान का एमएसपी उस गति से नहीं बढ़ता। सबसे आश्चर्यजनक तो ये है कि प्रत्येक उद्यमी अपने उत्पाद का मूल्य स्वयं तय कर लेता है लेकिन किसान ही ऐसा उत्पादक है उसके उत्पाद पर मूल्य निर्धारित नहीं कर सकता। किसानों को सालाना छै हजार सम्मान निधि पकड़ाकर सरकार ने उनके बीज खाद, रसायनिक दवाओं के साथ साथ डीज़ल के दाम जिस तरह बढ़ाए हैं वह राजनीति बहुसंख्यक किसान नहीं समझ पाते।


इस निर्मम सरकार की यह रणनीति है कि किसानों को किसी भी तरह परेशान कर उनके खेत कारपोरेट को सौंप दिए जाएं वे उनसे मनमाना चंदा प्राप्त करें। अडानी के लिए जिस तरह अनाज भंडारण की व्यवस्था इस सरकार ने की वह गरीबों की रोटी छीनेगी। इतना ही नहीं अन्न की खरीदी भी सरकार ने कम कर दी है जिसका सीधा असर किसानों पर पड़ रहा है उनके पास अन्न भंडारण के केंद्र नहीं है विवशत:अनाज उनके ही गोदामों तक सस्ते में पहुंच रहा है।कम से कम आधा तो सरकार खरीदें।

जनहितैषी इन सवालों पर किसानों को सरकार छल रही है।अपने वायदे से मुकरने वाली सरकार को स्मरण दिलाने पिछले 20 मार्च को संयुक्त किसा मोर्चा ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक मीटिंग की जिसमें देश भर से किसान विपरीत मौसम के बावजूद एकत्रित हुए। 20मार्च को हीसंयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मुलाकात की बातचीत में मुख्य मुद्दा एमएसपी की कानूनी गारंटी देने वाली कमेटी बनाने का रहा। किसान नेताओं ने कहा कि सरकार द्वारा बनाई गई कमेटी में उन नेताओं को शामिल किया गया है, जो किसान विरोधी है तथा खेती के बाजारीकरण, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के पक्षधर है।किसान नेताओं ने केंद्र सरकार द्वारा दिए गए लिखित आश्वासनों का उल्लेख करते हुए कहा कि एक भी आश्वासन को पूरा नहीं किया गया।वर्तमान बिजली बिल में भी सब्सिडी समाप्त करने तथा बिजली क्षेत्र का निजीकरण करने का प्रस्ताव है। मंत्री जी निजीकरण के मुद्दे पर चुप रहे लेकिन उन्होंने कहा कि सब्सिडी देने का अधिकार राज्य सरकारों को है। किसान नेताओं ने दिल्ली जेल में बंद साथियों तथा पंजाब में दो किसानों के घर मारे गए छापों पर भी बात की।फसल बीमा की स्थिति पर भी ध्यान दिलाया। इस दौरान मंत्री ने कहा कि आप ट्रेड यूनियन के लोग हैं। आपका काम करने का अपना तरीका है तथा प्रशासन भी अपने तरीके से कार्य करता है।इसका मतलब यह था कि सरकार खुद को कारखाने का मालिक और मैनेजमेंट के तौर पर देखती है। इससे सरकार के किसान संगठनों के प्रति दृष्टिकोण का पता चलता है। जो किसान अन्नदाता है, जिसका देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है, देश को खाद्य सुरक्षा प्रदान करता है तथा देश की बहुसंख्यक आबादी को रोजगार प्रदान करता है, उसके प्रतिनिधियों के प्रति यह रवैया उचित प्रतीत नहीं होता । पूरी बातचीत से यह समझ में आया कि सरकार संयुक्त किसान मोर्चा के साथ संवाद तो करना चाहती है परंतु उसकी मांगों के प्रति गंभीर नहीं है।
कृषि मंत्री का किसान संगठनों को संदेश एकदम साफ है कि आप अपना पक्ष ताकत से रखो, हम अपनी चाल से चलते रहेंगे।पूरी बातचीत से यह समझ में आया कि सरकार संयुक्त किसान मोर्चा के साथ संवाद तो करना चाहती है परंतु उसकी मांगों के प्रति गंभीर नहीं है।

कुल मिलाकर रामलीला मैदान पर किसानों का जमावड़ा और उनके नेताओं की कृषि मंत्री से बातचीत में किसी समस्या का हल नज़र नहीं आया है आगत चुनाव को देखकर सरकार ने रामलीला मैदान देने में हिचकिचाहट नज़र नहीं आई किंतु कम समय के लिए दिया गया साथ ही किसान नेताओं से बात भी की गई क्योंकि उन्हें भलीभांति मालूम था कि यदि ये नहीं किया गया तो किसान फिर आंदोलन की राह पकड़ लेंगे लेकिन जैसा कि सुनीलम जी का कहना है अपना पक्ष किसानों को ताकत से रखना होगा। सरकार अपनी शातिर चालें चलती रहेगी।


देश की सरकार जब आज अलोकतांत्रिक दौर में पहुंच चुकी है तब उस पर कतई यकीन नहीं किया जा सकता है। संवाद का दौर चलता ही रहेगा।मसले लटकाने में वे माहिर हो चुके हैं। इसलिए संघर्ष और तेजतर करना होगा। सरकार की झूठी और बेईमान हरकतों के खिलाफ लड़ रहे लोग भी साथ हो जाएं तो ताक़त और बढ़ेगी।इसे अब जन आंदोलन बनाना ही बेहतर होगा।सभा में सामाजिक कार्यकर्ता और जननेत्री मेधा पाटकर जी ने जो घोषणा मंच से की कि” किसान सिर्फ अन्नदाता नहीं मतदाता भी है” बेशकीमती है। सरकार को यह बात इस कठिन और चुनावी दौर में अच्छे से समझाने के साथ किसानों को भी समझना होगी।वह सिर्फ वोट से डरती है।

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