उर्मिलेश
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में आयोजित कुंभ मेले में 28 और 29 जनवरी के बीच की रात तकरीबन 2-2:30 बजे तीर्थयात्रियों की अपार भीड़ और मेला प्रबंधन की मूर्खता के चलते बहुत बड़ा हादसा हुआ, जिसमें अनेक लोगों की जानें गईं। लेकिन इन मौतों की खबर कुछेक अपवादों को छोड़कर देश के मुख्यधारा मीडिया (अखबार-टेलीविजन आदि) से गायब रही।
अखबारों में सिर्फ दैनिक भास्कर और हिन्दुस्तान टाइम्स ने भगदड़ में हुई मौतों की खबर अपने पहले पेज पर छापी। कुछेक चैनलों ने भी शुरू में मौतों की आशंका जताई लेकिन फिर वे इस खास खबर को लेकर कई घंटे के लिए खामोश हो गये।
लेकिन कुछ प्रमुख विदेशी न्यूज एजेंसियों, सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों, खासतौर पर भारतीय पत्रकारों द्वारा संचालित यूट्यूब चैनलों पर मेले में कई लोगों के मरने की खबरें चलती रहीं।
इस भयानक हादसे के पूरे 17 घंटे बाद सरकार और मेला-प्रशासन ने सोशल मीडिया में चल रही इन्हीं खबरों के दबाव में आकर अंततः लोगों के मरने की पुष्टि की और 29 जनवरी को देर शाम बताया कि इस हादसे में अब तक 30 लोगों के मारे जाने की सूचना है। 60 लोग घायल हैं।
सरकारी स्तर पर इस कुंभ का नाम सरकार और मेनस्ट्रीम मीडिया ने महाकुंभ रखा है। इसके बारे में प्रचार किया गया है कि ऐसा महाकुंभ मेला 144 वर्ष के बाद लगा है इसलिए यह बहुत पवित्र है। एक कथित धर्मात्मा ने तो यहां तक कहा कि जो लोग इस महाकुंभ में आकर गंगा-यमुना में डुबकी नहीं लगायेंगे, वे सब देशद्रोही होंगे।
हालांकि कुछ धर्मात्माओं ने यह भी कहा कि महाकुंभ के 144 साल बाद लगने का कोई साक्ष्य या ठोस तथ्य नहीं है। यह एक तरह का विज्ञापन-मसाला भर है। शुरू से ही यूपी सरकार ने मेले का किसी सरकारी आयोजन या जनता के कल्याण की किसी महत्वाकांक्षी परियोजना की तरह अखबारों-टीवी चैनलों आदि पर खूब प्रचार किया। यह प्रचार हादसे में हुई मौतों के बाद भी जारी है।
महाकुंभ में धर्म (हिंदू), राजनीति, कॉरपोरेट, फिल्म और मीडिया से जुड़ी कथित बड़ी हस्तियों ने भी अपने खूब जलवे दिखाए। मेला प्रबंधन ने इनकी आवभगत की खूब तैयारी भी की। लेकिन आम तीर्थयात्रियों की सुविधा, सहजता और सुरक्षा पर उसने उतना ध्यान नहीं दिया।
करोड़ों के मेला में आने, लोगों की हिस्सेदारी का विश्व-रिकॉर्ड टूटने और इसी तरह के न जाने कितने दावे किये गये। सीसीटीवी और ड्रोन सहित न जाने कितनी सारी तकनीकी व्यवस्थाओं का सहारा लेने की बात की गई। पर 28-29 जनवरी के बीच की रात हुई भयानक भगदड़ में अनेक लोगों की जिंदगी खत्म हो गई।
अचरज की बात कि अपने-आपको हिंदू योद्धा, योगी और लोकप्रिय जननायक बताकर प्रचारित करने वालों की सत्ता इस बड़े हादसे की खबर के समाज तक पहुंचने की स्वाभाविक स्थिति से डर गई। सत्ताधारियों ने कुचक्र रचा और 29 जनवरी की शाम तक इस खबर को जनता के व्यापक हिस्से तक पहुंचने से रोका गया।
इसमें सत्ताधारियों ने अपने हमजोली कॉरपोरेट और मुख्यधारा मीडिया, खासतौर पर टीवी चैनलों का सहारा लिया। इस कथित राष्ट्रीय मीडिया ने खबर को प्रसारित नहीं किया। यहां तक कि कुछेक को छोड़कर ज्यादातर अखबारों ने भी 29 जनवरी के अपने सुबह के संस्करण में यह खबर नहीं दी। लेकिन सोशल मीडिया और परदेसी मीडिया भला क्यों रुकता?
रायटर और एएफपी सहित कई विदेशी न्यूज एजेंसियों ने भी अपने संवाददाताओं से मिली यह खबर किसी रुकावट के बगैर प्रसारित कर दी। देश के अनेक यूट्यूबरों और सोशल मीडिया के अन्य मंचों से भी यह खबर प्रसारित हो गई।
केंद्र सरकार के कुछ उच्च ओहदेदारों को तो खुफिया एजेंसियों के जरिये पहले ही यह खबर मिल चुकी थी। यही कारण है कि उनमें शीर्ष ओहदेदारों ने हताहतों के परिजनों के प्रति शोक संवेदना तक प्रकट कर दी।
लेकिन यूपी के प्रशासनिक अधिकारी, मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री ऐसी किसी घटना से देर तक इंकार करते रहे। वे सिर्फ ‘मामूली धक्का-मुक्की’ में कुछ लोगों के घायल होने की बात 29 के दोपहर बाद तक दुहराते रहे।
लेकिन सोशल मीडिया पर चल रही खबरों का दबाव इतना बढ़ गया कि यूपी सरकार को अंततः सच छुपाने की मुहिम रोकनी पड़ी। शाम साढ़े छह बजे के आसपास मेला-क्षेत्र के प्रशासकों ने प्रेस कांफ्रेंस कर 30 लोगों के मरने और 60 लोगों के घायल की स्वीकारोक्ति की।
इस घटना ने एक बार फिर साबित किया है कि सत्ताधारी जहां कहीं, अपने तात्कालिक हित में मीडिया पर बंदिश लगाते हैं या उसे अपना हमजोली बनाते हैं, ऐसा करते हुए वे अंततः समाज के साथ अपना भी नुकसान करते हैं।
थोड़ी देर के लिए कल्पना करें, अगर भारत का मुख्यधारा मीडिया सत्ताधारियों के गुलाम जैसा नहीं होता और वह यूरोप आदि के किसी सुसंगत लोकतांत्रिक देश के मीडिया जैसा आचरण करता तो क्या इलाहाबाद के कुंभ जैसी त्रासदी होती?
मेरे हिसाब से नहीं होती। क्योंकि स्वतंत्र मीडिया बीते काफी समय से कुंभ मेले की अराजकता, प्रशासनिक अव्यवस्था और वीवीआईपी आवभगत में आम तीर्थयात्रियों की सुरक्षा की होती, उपेक्षा की खबरें रोजाना प्रसारित-प्रकाशित कर रहा होता।
इससे दबाव में आकर सरकार और प्रशासन के उच्चाधिकारी निश्चय ही मनमानी से बाज आते और वे सही सुरक्षा-रणनीति अख्तियार करने के लिए बाध्य होते। लेकिन इलाहाबाद से दिल्ली तक ‘गोदी’ कहा जाने वाला मीडिया, खासतौर पर टीवीपुरम तो महाकुंभ की सुरक्षा में वीवीआईपी-प्रधानता और आम जन की उपेक्षा भरी सुरक्षा-रणनीति पर आंख मूंदे हुए था।
अनेक टीवी एंकर स्वयं भी वीबीआईपी पास लेकर आम तीर्थयात्रियों की भारी भीड़ से दूर गंगा-यमुना के संगम पर पुण्य कमाने के लिए अकेले या अपने परिवार सहित डुबकी लगाते रहे।
टीवीपुरम् और ज्यादातर बड़े अखबार सत्ताधारियों के इस हिंदुत्ववादी उपक्रम पर लहालोट था। वे भला मेले-प्रशासन की गलत-सुरक्षा रणनीति पर क्यों सवाल उठाते! यूपी सरकार की तरफ से ऐसे मीडिया संस्थानों को लाखों-करोड़ों के विज्ञापन भी बांटे गये। वो सिलसिला अब भी जारी है।
किसी भी देश या समाज में एक समर्थ और सक्रिय मीडिया न सिर्फ शासन की गलतियों को रोक सकता है अपितु वह मानव-रचित ध्वंसकारी घटनाओं, महाकुंभ जैसी त्रासदियों, दुर्भिक्ष, अकाल और महामारियों से होने वाले नुकसान को भी कम कर सकता है। हमारे देश या दुनिया के अनेक विकासशील देशों में अकाल से होने वाली मौतों की संख्या पहले से बहुत कम क्यों हो गयी है?
कालाहांडी (ओडिशा) का सच अगर मीडिया (उस दौर में प्रेस कहा जाता था क्योंकि तब टीवी न्यूज चैनल नहीं, अखबार ही प्रभावी थे) ने शिद्दत के साथ सामने नहीं लाया होता तो तत्कालीन राज्य और केंद्र की सरकार सुदूर स्थित उस इलाके के लोगों तक जरूरी सामग्री पहुंचाने में शायद ही तत्परता दिखाती!
कोविड के जमाने में भी बहुत सारी बंदिशों और सत्ता के सामने घुटनाटेकू टीवी चैनलों के बावजूद कुछ क्षेत्रीय अखबारों और सोशल मीडिया ने सत्ता के झूठ का पर्दाफाश किया। लोगों की तकलीफों को सामने लाया।
केरल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र की सरकारों ने उस दौर में अपने समाज को बचाने की अपेक्षाकृत अच्छी कोशिश की तो मीडिया के इस हिस्से ने उनकी तारीफ की। इससे हिंदी भाषी राज्यों के बदमिजाज और निष्क्रिय सत्ताधारियों को अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता होने लगी।
ऐसी खबरों के दबाव में आकर वे भी लोगों को बचाने में कुछ सक्रिय हुए। इसलिए मीडिया की स्वतंत्रता सिर्फ अच्छे मीडिया के लिए नहीं, अच्छी सियासत, अच्छी सत्ता और अच्छे समाज के लिए भी जरूरी है। क्या हमारे मौजूदा सत्ताधारी, मुख्यधारा मीडिया, खासतौर पर टीवीपुरम के संचालक इस सच को समझेंगे?