अग्नि आलोक
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शैतान हंस रहा है…

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विजय गुप्त

तारीफ़ कर तो ख़ैर है
ख़िलाफ़ है तो बैर है
धीरे-धीरे बुझ रहा
इक चिराग़-ए-दैर है
(मंदिर का दिया)
शैतान कह रहा है
सुबह ख़ैर, शाम ख़ैर
शब-ब-ख़ैर है
(शुभ रात्रि)

अंधेर है अंधेरा है
दु:ख का लगता फेरा है
जिन-जिन्नात का डेरा है
ज़बर-ज़ुल्म का घेरा है
शैतान कह रहा है
सुबह ख़ैर, शाम ख़ैर
शब-ब-ख़ैर है

फ़रमाने बादशाही है
खुल के तानाशाही है
जुमलों में ख़ैरख़्वाही है (शुभचिंतक)
तार-तार लोकशाही है
शैतान कह रहा है
सुबह ख़ैर, शाम ख़ैर
शब-ब-ख़ैर है

रोटी नहीं तो राम-राम
रोज़ी नहीं तो कर धियान
घर गिरवी खेत है रेहन
ख़ैर नहीं कुंद है ज़ेहन
शैतान कह रहा है
सुबह ख़ैर, शाम ख़ैर
शब-ब-ख़ैर है

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