शशिकांत गुप्ते
आज सीतारामजी साठ के दशक में प्रदर्शित फिल्मों के गाने सुन रहे हैं। जब मैं उनसे मिलने गया तो वह सन 1959 में प्रदर्शित फिल्म काली टोपी लाल रूमाल का यह गीत गुनगुना रहे थे।
इस गीत को लिखा है,प्रसिद्ध गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने।
मैने पूछा आज यही गीत क्यों गुनगना रहे हो?
सीतारामजी ने कहा यदि मैं गायक होता तो निश्चित ही इस गीत को सार्वजनिक मंच पर सुनाता। इस गीत की हर एक पंक्ति आज ना सिर्फ प्रासंगिक है,बल्कि आज की स्थिति पर करारा व्यंग्य भी है।
गीतकार ने यह गीत साठ +चार वर्ष पूर्व लिखा और गायिका ने इसे गाया संगीतकार ने इस गीत को संगीत भी दिया।
आज तो ये सभी लोग तमाम जांच एजेंसियों की जांच के घेरे में होते?
फिल्म का नाम काली टोपी के साथ लाल रूमाल भी है।
यह फिल्म श्वेत शाम रंग में निर्मित हुई है।
उक्त गीत की सभी पंक्तियां आज की तमाम जन समस्याओं पर व्यंग्य है।
सीतारामजी ने कुछ चुनिंदा पंक्तियां ही गा कर सुनाई।
न तो दर्द गया न दवा ही मिली
मैने ढूंढ के देखा जमाना
पहुंचे जहां भी हम तो लौट आए हार के
ए दिल पुकार देखा एक एतबार पे
सबसे कहा तेरा दर्द मगर
न तो दर्द गया…
मंदिर मस्जिद में जा के की है फरियाद भी
मिलता जवाब तो क्या आई ना आवाज़ भी
मांगी दुआ मैने लाख मगर
न तो दर्द गया …
छानी गली छाना सारा नगर
न तो दर्द…
उपयुक्त गीत देश के निम्न सभी लोगों के लिए समर्पित है, बेरोजगारों,महंगाई से त्रस्त जनता,उन युवतियों को जो कुश्ती में अपने प्रतिस्पर्धी को तो चित करके आ गई लेकिन स्वयं अपने देश में अपनी अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने वाले की शिकार हो गई,प्राकृतिक तूफान से
क्षतिग्रस्त मूर्तियों को भी समर्पित है,और मूलभूत समस्याओं के विरोध में आंदोलनरत लोगों के लिए भी समर्पित है।
सीतारामजी ने इतना लिखा सुनाने के बाद एक स्पष्टीकरण भी लिखा उपर्युक्त गीत गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा,मैने सिर्फ उद्धृत किया है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर