नदीम
लोकसभा चुनाव को लेकर I.N.D.I.A. में हिस्सेदारी के मुद्दे पर जब क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस पर दबाव बढ़ना शुरू हुआ तो कांग्रेस ने उस मोर्चे पर वक्ती तौर पर अपने को ‘साइन आउट’ कर सारा ध्यान पांच राज्यों के चुनाव पर केंद्रित कर लिया। इसी बात को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पटना के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में झुंझलाए भी थे – ‘कांग्रेस पार्टी को बढ़ाने के लिए हम सब लोग एक हुए थे और काम कर रहे थे, लेकिन उन लोगों को कोई चिंता है नहीं। अभी सब लगे हैं पांच राज्यों के चुनाव में।’
कांग्रेस की मुश्किल
ऐसा करना कांग्रेस की मजबूरी भी थी।
- I.N.D.I.A. के अंदर कांग्रेस को सबसे ज्यादा चुनौती सात राज्यों में इलाकाई दलों से मिल रही है। ये राज्य हैं- यूपी, महाराष्ट्र, वेस्ट बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, पंजाब और दिल्ली, जहां से कुल 269 लोकसभा सीटें आती हैं।
- इन राज्यों में बीजेपी के विरोध में राजनीति करने वाले जो दल हैं, वे कांग्रेस से किसी भी सूरत में कम नहीं हैं। इनमें से यूपी, बिहार, बंगाल और तमिलनाडु में कांग्रेस खुद में कोई ताकत नहीं है।
- यूपी में गैर-बीजेपी राजनीति SP-BSP के इर्द-गिर्द घूमती है।
- बंगाल में TMC ने वामदलों और कांग्रेस दोनों को नेपथ्य में ढकेल रखा है।
- बिहार में भी कांग्रेस RJD-JDU की बैसाखी पर ही है।
- तमिलनाडु में DMK के बगैर कांग्रेस का कोई वजूद नहीं है।
- इसके अलावा 48 सीटों वाले महाराष्ट्र में भी NCP और शिवसेना का दबदबा कांग्रेस से कहीं ज्यादा दिखता है।
- पंजाब और दिल्ली में जहां कभी गैर-बीजेपी दल के रूप में कांग्रेस जानी जाती थी, वह जगह आम आदमी पार्टी ने ले ली है।
राजनीति को ‘पावर गेम’ कहा ही जाता है। ऐसे में ये दल अपने
- अपने राज्यों में I.N.D.I.A. की ‘ड्राइविंग सीट’ पर खुद ही रहना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि सीटों के बंटवारे में कांग्रेस की कोई दखलंदाजी हो। अखिलेश यादव सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि कोई भी गठबंधन हो, SP उसमें सीटें मांगने वाली नहीं बल्कि सीटें बांटने वाली पार्टी होगी। ऐसा ही रुख ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक का है। अलग-अलग मौकों पर इन पार्टियों के नेता यह कह चुके हैं कि कांग्रेस को ज्यादा सीट देने का मतलब बीजेपी के लिए ज्यादा स्पेस उपलब्ध कराने का जोखिम उठाना है।
- इस सिलसिले में 2020 बिहार विधानसभा चुनाव का उदाहरण दिया जा रहा है कि जब कांग्रेस ने चुनाव लड़ने के लिए महागठबंधन से 70 सीटें छुड़वा लीं थीं, लेकिन उनमें से महज 19 ही जीत पाईं थी।
- नतीजों के बाद जब महागठबंधन महज 12 सीटों के अंतर से सरकार नहीं बना पाया, तब RJD के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने आरोप लगाया था कि ‘कांग्रेस के ज्यादा सीटें लेने से महागठबंधन की हार हुई। कांग्रेस ने 70 सीटें ले लीं, लेकिन वह 70 रैलियां भी नहीं कर पाई। अगर ये सीटें RJD के पास होतीं तो महागठबंधन बहुमत हासिल कर लेता।’
इसी प्रेशर की वजह से कांग्रेस नेताओं को लगा कि लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे पर फौरी तकरार से बचा जाए और इसके लिए पांच राज्यों के नतीजों का इंतजार किया जाए। ये वैसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी लड़ाई है। दो राज्यों में तो उसकी सरकार भी है। कांग्रेस को लगता है कि इन पांच राज्यों में अगर वह बेहतर प्रदर्शन कर पाई तो यूपी, महाराष्ट्र, वेस्ट बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, पंजाब और दिल्ली में उस पर जो दबाव बन रहा है, उसे वह टाल सकती है। रिजल्ट अच्छा रहा तो वह इन राज्यों में I.N.D.I.A. में शामिल दलों को यह दिखा पाएगी कि उसे कमतर आंकने की भूल न की जाए। इसके बाद कांग्रेस इन राज्यों में भी अधिक सीटों का दावा कर सकती है।
कांग्रेस के रणनीतिकार इन राज्यों से सिर्फ सीट बंटवारे तक अपनी चुनौती नहीं मानते। उन्हें लगता है कि I.N.D.I.A. में शामिल दलों के हिस्से में अगर ज्यादा सीटें गईं तो नतीजों के बाद इन दलों के पास मोलभाव की ताकत ज्यादा होगी। उन्हें अपने पाले में बनाए रखने के लिए ज्यादा मशक्कत करनी होगी। वहीं, अगर पांच राज्यों के नतीजे कांग्रेस की उम्मीद के अनुरूप नहीं आते हैं तो उसके लिए I.N.D.I.A के भीतर चुनौती और बढ़ेगी। वैसे, यह भी तय है कि अगर नतीजे कांग्रेस के उम्मीद के मुताबिक आ जाते हैं तो भी इन सात राज्यों में I.N.D.I.A. के भीतर कांग्रेस की चुनौती कम नहीं होने वाली।
चुनौती कम नहीं होगी
यह उम्मीद करना बेमानी होगी कि अगर पांच राज्यों के चुनावी नतीजे कांग्रेस के लिए अच्छे रहते हैं तो शरद पवार, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे या एमके स्टालिन उसके लिए ‘रेड कार्पेट’ बिछाएंगे। ये नेता पांच राज्यों की तुलना अपने राज्य से करने को कभी तैयार नहीं होंगे। कारण यह कि पांच राज्यों के राजनीतिक समीकरण उनके राज्य से अलग हैं। ये राज्य ऐसे हैं, जहां इन दलों का मजबूत जनाधार नहीं है। लेकिन अपने-अपने राज्यों में ये दल मजबूत वोट बैंक रखते हैं। इनमें से ज्यादातर नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस की ही राजनीतिक जमीन पर अपनी सियासी इमारत खड़ी की है। इसलिए वे वहां कांग्रेस को मजबूत होते हुए नहीं देखना चाहेंगे।