वीरेंद्र बहादुर सिंह
अंडरवर्ल्ड पर फिल्में बनाने का चलन मूलतः हालीवुड का है। माफिया इटालियन शब्द माफियुसी से आया है, जिसका अर्थ होता है शेरदिल। हालीवुड में गुड फेलास, द बिग हिट, गाडफादर, स्कारफेस, वंस अपान ए टाइम इन अमेरिका और केसिनो जैसी फिल्में बनी हैं और जिनकी अनेक विदेशी सिनेमा में नकल भी हुई है। भारत में संगठित अपराध की शुरुआत हुई 1940 से और इसके 3 संस्थापक थे, हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार और करीम लाला। ये तीनों स्मगलर और गैंगस्टर थे। 80 के दशक में दाउद इब्राहिम का उदय हुआ और वह सही अर्थ में माफिया बना। 1975 में माफिया फिल्म नहीं थी, पर दीवार पहली हिंदी फिल्म थी, जिसके हीरो की प्रेरणा असली गैंग लीडर हाजी मस्तान से ली गई थी।
‘दीवार’ दिलीप कुमार की गंगा-जमुना (जिसमें दिलीप कुमार डाकू बन जाते हैं और उनके भाई नासिर हुसैन पुलिस आफिसर) और महबूब खान की मदर इंडिया (जिसमें एक आदर्श मां अपने अपराधी बेटे को गोली मार देती है) का शहरी स्वरूप था। ‘दीवार’ में मां, दो भाई और मां-बेटे का, ये दोनों एंगल थे और उसमें हाजी मस्तान का चरित्र जोड़ा गया था, जो उसके गोदी कामदार तक मर्यादित था।
‘रिटन बाई सलीम-जावेद’ नाम की किताब में सलीम खान ने कहा है, ‘मस्तान ने ही इस फिल्म को अपने जीवन की कहानी होने का दावा कर के अपनी महिमा बढ़ाई थी। अमिताभ बच्चन ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘विजय का पात्र आंशिक रूप से हाजी मस्तान पर आधारित था। मैंने एक बार महालक्ष्मी रेसकोर्स पर हाजी मस्तान को देखा था।’ अमिताभ ने कहा था, ‘वह एकदम स्थिर और सीधी तरह टुकुर-टुकुर देखता था और मुझे वह बहुत दिलचस्प लगा था। उसकी आंखें हमेशा नम रहती थीं।’
1926 में तमिलनाडु के रामनाथपुरम के नजदीक पनाइकुलम गांव में पैदा हुआ मस्तान हैदर मिर्जा 17 साल की उम्र में मुंबई आया था और गोदी कामदार के रूप में काम करना शुरू किया था। उस समय समुद्र द्वारा स्मगलिंग होती थी और धीरे-धीरे उसकी रीति-नीति हाजी की समझ में आ गई। इसके बाद उसने ट्रांजिस्टर और घड़ियों की तस्करी शुरू की। मझगांव गोदी पर उस समय पठान गैंग गोदी कामदारों से वसूली करता था। हाजी ने उनका आतंक कम करने के लिए 10 लोगों की टोली बना कर पठानों को मारमार के लस्त कर दिया था। फिल्म ‘दीवार’ में यह काम विजय ने अकेले किया था।
‘जंजीर’ (1972) में विजय के तेवर देखने मे बाद सलीम-जावेद ने अमिताभ को ध्यान में रख कर ‘दीवार’ का रोल लिखा था। चोपड़ा को जब इस स्क्रिप्ट के बारे में पता चला था, तब उन्होंने राजेश खन्ना के साथ यह फिल्म करने का प्रस्ताव रखा था। पर सलीम-जावेद ने अमिताभ का आग्रह किया था। फिल्म ‘दीवार’ के निर्माता गुलशन राय ने खन्ना को साइन भी कर लिया था। एक इंटरव्यू में खन्ना ने कहा था, ‘सलीम-जावेद से मेरे मतभेद थे, उन्हें अमिताभ को ले कर फिल्म करनी थी। पर ‘दीवार’ की दो रील देख कर मैंने कहा था, ‘वाह क्या बात है’।’
हाजी मस्तान का भी मत ऐसा था। मस्तान ने ‘दीवार’ की कहानी सुन कर वरिष्ठ पत्रकार अली पीटर जाॅन से तब कहा था, ‘मस्तान का रोल करने के लिए बेस्ट एक्टर चुना है इन लोगों ने।यूसुफभाई के बाद अगर कोई बढ़िया एक्टर इस देश में हुआ है तो वह है अमिताभ बच्चन। वह जरूर मेरे किरदार में जान डालेगा।’
अमिताभ के भाई के रूप में पहले शत्रुघ्न सिन्हा का विचार हुआ था। पर जावेद अख्तर ने शशी कपूर को यह कह कर सेकेंडरी रोल के लिए मनाया था कि आप के हिस्से में एक अमर संवाद है : मेरे पास मां है। शशी कपूर ने इसी एक लाइन के लिए अमिताभ के नीचे का रोल स्वीकार किया था।
फिल्म ‘दीवार’ जैकपाट साबित हुई थी। जावेद अख्तर अमिताभ बच्चन को ‘दीवार’ की स्क्रिप्ट सुना रहे थे, तब कुछ दृश्य के बाद बीच बीच में वह अमिताभ से कहते थे, ‘ये आप के 15 हफ्ते हो गए… ये आप के 25 हफ्ते हो गए।’ और स्क्रिप्ट पूरी कर के कहा था कि ये आप के 100 हफ्ते हो गए।
‘दीवार’ पूरे भारत के सिनेमा थिएटरों में 100 सप्ताह से अधिक समय तक ‘हाउसफुल’ की तख्ती के साथ चली थी। इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा के हीरो की शक्ल बदल दी थी और अमिताभ की व्यवस्था विरोधी यंग्री यंगमैन और एंटी हीरो की इमेज को पूरी तरह दर्शकों की चेतना में जड़ दिया था।
जावेद अख्तर कहते हैं, ‘अमितजी ने ‘जंजीर’ में यंग्री यंगमैन का रोल किया था। पर उनका सिक्का चला ‘दीवार’ से। हम ने ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा-जमुना’ में यंग्री यंगमैन (सुनील दत्त और दिलीप कुमार) को देखा था, पर उसमें बहुत नौटंकी थी, क्योंकि उन फिल्मों में रोमांस था, तमाशा था और गाने थे। अमितजी के आने से यंग्री यंगमैन को पंख लगे। क्योंकि इसमें नौटंकी नहीं थी। उसका असर लोगों पर आज भी है।
फिल्म ‘दीवार’ में विजय के पिता (सत्येन कप्पू) के अंतिम संस्कार के दृश्य में अमिताभ ने ही यश चोपडा से कहा था कि अग्निदाह के समय वह अपने बाएं हाथ में अग्नि पकड़ेगा, जिससे शर्ट की स्लीब्ज खिंचने पर दर्शक हाथ का टैंटू ‘मेरा बाप चोर है।’ पढ़ सकें। यह अत्यंत प्रतीकात्मक दृश्य था। और पावरफुल साबित हुआ था। फिल्म ‘दीवार’ के विजय में अन्याय के प्रति इतना गुस्सा था कि मात्र एक फाइट सीन होने के बावजूद पूरी फिल्म ऐक्शन फिल्म कही जाती है। फिल्म में हिंसा विजय के विचारों और प्यार में थी।
‘दीवार’ में तमाम यादगार दृश्य व संवाद हैं। पर इसमें मंदिर का जो दृश्य है, वह अमिताभ के लिए बहुत कठिन दृश्य था। विजय नास्तिक और हमेशा मंदिर की सीढियों पर बैठा रहता है, पर वह नास्तिक नहीं है, गैरसांप्रदायिक है, और उसकी मां और भाई दर्शन करने जाते हैं, इसके लिए उसे कोई परेशानी नहीं है। अमिताभ ने जावेद अख्तर से कहा था कि मैं यह सीन नहीं कर सकता। यश चोपड़ा ने कहा था कि जितना समय चाहिए, वह देने को तैयार हैं। अमिताभ सुबह 11 बजे से रात 10 बजे तक सेट पर रहे थे और बीच बीच में मेकअप रूम में जा कर शीशे के सामने इसका रिहर्सल किया था।
अमिताभ कहते हैं, ‘हमें सुबह सीन शूट करना था। पर रात होते तक इसे किया। बहुत कठिन सीन था। विजय को ईश्वर में आस्था नहीं थी और मां की बीमारी के कारण मंदिर जाना फर्ज बनता था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस सीन को कैसे करूं।जावेद साहब ने कुछ संकेत दिए थे, क्योंकि उन्हें भी पता नहीं था मरने वाला आदमी क्या बोलता है।’
पूरे दिन राह देखने के बाद अमिताभ ने एक ही टेक में यह एकोक्ति की थी। हिंदी सिनेमा के इतिहास में यह दृश्य यादगार साबित हुआ। भारत की भक्ति परंपरा का सब से सशक्त दृश्य है। जिसमें मात्र ‘भक्त और भगवान’ ही है, बीच में कोई पुजारी, पुरोहित या कोई गुरु नहीं है। ईश्वर के साथ ‘नास्तिक’ विजय का यह डायरेक्ट डायलिंग था।
‘आज… खुश तो बहुत होगे तुम। जो आज तक तुम्हारे मंदिर की सीढ़ियां नहीं चढ़ा, जिसने आज तक तुम्हारे सामने सिर नहीं झुकाया, जिसने आज तक कभी तुम्हारे सामने हाथ नहीं जोड़ा… वो आज तूम्हारे सामने हाथ फैलाए खड़ा है।’