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साम्राज्यवादी शक्तियां ने केवल अपना चोला बदला है

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बलबीर पुंज

संसद के हालिया सत्र का एक बड़ा हिस्सा विवादित अमेरिकी उद्यमी जार्ज सोरोस को लेकर सत्तापक्ष एवं विपक्ष में तल्ख बयानबाजी की भेंट चढ़ गया। सोरोस उस अधिनायकवादी और साम्राज्यवादी विचारधारा के प्रतीक हैं, जो अपने वैश्विक दृष्टिकोण और व्यापारिक-रणनीतिक हितों के लिए वैश्विक भूगोल, इतिहास और संस्कृति को बदलने पर आमादा हैं। याद रहे कि पारंपरिक औपनिवेशवाद के दिन अब लद चुके हैं। अब न तो सैन्यबल से किसी समाज को नष्ट किया जाता है और न ही किसी देश पर कब्जे से। इसके बावजूद साम्राज्यवादी मानसिकता का अंत नहीं हुआ है। उसने केवल अपना चोला बदला है। अब इसके हथियार सांस्कृतिक, सामाजिक, मजहबी और आर्थिकी पर गढ़ा जाने वाला नैरेटिव है। विदेशी ताकतें लक्षित देशों में बिकाऊ लोगों की एक फौज खड़ी करती हैं, जो लोग इशारा मिलते ही उनके बनाए नैरेटिव पर अपने देश को विरूपित करना शुरू कर देते हैं। इससे माहौल बिगड़ना शुरू हो जाता है।

अपने कुत्सित इरादों की पूर्ति के लिए सोरोस ने दुनिया भर में दांव लगाए हैं। इसी कड़ी में 94 वर्षीय सोरोस ने कई अमेरिकी मीडिया संस्थाओं में निवेश किया है। उनकी कुल संपत्ति 44 अरब डालर है, जिसका बड़ा हिस्सा उन्होंने ‘मानवाधिकार’ और ‘लोकतंत्र’ के नाम पर खर्च किया है। इस उपक्रम का उद्देश्य दुनिया को अपनी कल्पना के अनुरूप ढालना और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना है। यही कारण है कि सोरोस पर दुनिया के कई देशों की राजनीति और समाज को प्रभावित करने का आरोप है। वर्ष 1992 में इंग्लैंड के बैंकों को बर्बाद करके अकूत धन अर्जित करना, 1997 में थाइलैंड की करेंसी को गिराना, 2002 में फ्रांसीसी अदालत द्वारा अनैतिक-अनधिकृत व्यापार का दोषी ठहराना और कई देशों द्वारा सोरोस की संस्थाओं पर जुर्माना-प्रतिबंध लगाना इसके कुछ उदाहरण हैं। सोरोस और उनकी संस्था अपने नापाक एजेंडे की पूर्ति के लिए अक्सर समाजसेवा और परोपकार का मुखौटा लगाए रहते हैं।

भारत सहित तमाम देश विदेशी ताकतों के व्यापक हस्तक्षेप के भुक्तभोगी रहे हैं। इसके प्रभावों की गहन पड़ताल भी हुई है। राजनयिक नरेंद्र सिंह सरीला ने अपनी पुस्तक ‘विभाजन की असली कहानी’ में लिखा कि अंग्रेजों ने दुनिया के इस हिस्से में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए भारत का विभाजन करके इस्लामी पाकिस्तान को जन्म दिया था। इसके लिए अंग्रेजों ने ‘भारतीयों’ का ही उपयोग किया। अब सोरोस जैसे लोग भी उसी काम में लगे हैं।

बीते दिनों सीरिया में जो हुआ, वह किसी से छिपा नहीं। उससे पहले बांग्लादेश भी नाटकीय घटनाक्रम का साक्षी बना। यह सब विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप और संघर्ष का परिणाम रहा। ऐसे में सोरोस का भारत के आंतरिक मामले में बार-बार दखल देना और उन्हें मिल रहा प्रत्यक्ष-परोक्ष भारतीय समर्थन हमें इतिहास के काले पन्नों की ओर ले जाता है। क्रूर आक्रांता औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत में मुगल शासन कमजोर पड़ा तो मराठा परचम अटक से कटक तक लहरा रहा था। तब सूफी प्रचारक शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण के लिए लंबी चिट्ठी लिखी, क्योंकि वह ‘काफिर’ मराठों को पराजित कर भारत में पुन: इस्लामी राज स्थापित करना चाहता था। जब 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई, तब वलीउल्लाह द्वारा आमंत्रित अब्दाली को भारत में पश्तून रोहिल्लाओं, बलूचियों, शुजाउद्दौला आदि नवाबों के साथ स्थानीय मुस्लिमों का समर्थन मिला और उन्होंने मिलकर मराठों को पराजित कर दिया। इसने मराठाओं का बल घटा दिया, जो वर्ष 1803 के दिल्ली (पटपड़गंज) युद्ध में मराठों की अंग्रेजों के हाथों मिली पराजय का एक बड़ा कारण बना। वलीउल्लाह के विचार ही तालिबान के आधार रहे।

यदि 18वीं शताब्दी में ‘अपनों’ ने अब्दाली को बुलाया नहीं होता या फिर मीर जाफर-जयचंद ने ‘अपनों’ को धोखा नहीं दिया होता, तो संभवत: भारत का इतिहास कुछ और होता। दुर्भाग्य से अब भी बहुत कुछ वैसा ही है। अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु आज भी कई ‘अपने’ आत्मसम्मान और हितों को दांव पर लगा रहे हैं। कई अवसरों पर कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी असंतोष जता चुके हैं कि अमेरिका या कोई यूरोपीय देश भारत के आंतरिक मामलों पर कुछ क्यों नहीं बोलते। अगस्त 2020 में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन भी एक लेख के माध्यम से तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा मोदी सरकार को अपनी नीतियां लागू करने के लिए ‘फ्री-पास’ देने पर आपत्ति जता चुके थे। ऐसे उदाहरण अंतहीन हैं।

ब्रिटिशराज से पहले भारत विश्व की बड़ी आर्थिक महाशक्ति था। पहले अंग्रेजी दासता और स्वतंत्रता के 50 वर्षों के लिए वामपंथ प्रेरित समाजवादी विचारधारा ने भारत का दिवाला निकाल दिया। भारतीय उद्यमिता को 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद नया जीवन मिला और 2014 के बाद उसे तेजी के नए पंख लगे। आज भारत दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की ओर अग्रसर है। वैश्विक राजनीति में भारत अग्रिम देशों की पंक्ति में है। ऐसे में, कोई आश्चर्य नहीं कि कुंठित औपनिवेशिक शक्तियां भारत की विकास की गाड़ी को पटरी से उतारना चाहती हैं। अफसोस कि हमारे एक वर्ग ने इतिहास से कुछ नहीं सीखा और वह सत्ता हथियाने हेतु वही पुरानी गलतियां दोहरा रहा है।

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