मंजुल भारद्वाज
लोकतंत्र में जनता
हमेशा सरकार नहीं चुनती
अपनी मौत भी चुनती है
विगत दो साल में
50 लाख लोगों की मौत
इसका ऐतिहासिक प्रमाण है
पहली बार पूरा
देश शमशान में जलता रहा
कब्रिस्तान में दफ़न हो गया
गंगा लाशों से भर गई
देश की जनता मर गई
सरकार ज़िन्दा है
जीवित बची जनता को
अनाज के दाने दाने को मोहताज़ कर
अन्न महोत्सव मना रही है !
प्रमाण हमेशा प्रेरक नहीं होते
भयावह भी होते हैं
ऑक्सीजन के अभाव में
सरेआम मरे लोग
ऑक्सीजन के लिए दर दर भटकते लोग
घर,सड़क,अस्पताल में मरते लोग
एक एक सांस को तड़पते लोग
संसद के पटल पर जीवित हो उठते हैं
सरकार संसद में कहती है
ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा
सत्यमेव जयते !
50 लाख मरने वाले
एक एक विकारी को
लेकर मरते तो?
देश का लोकतंत्र जी उठता
पर सब मरने को तैयार हैं
लोकतंत्र,संविधान और न्याय के लिए
लड़ने को नहीं
सिर्फ़ किसान लड़ रहे हैं
जवान?
बेरोज़गार ?
अपने मरने का इन्तज़ार कर रहे हैं !
1947 में देश अनपढ़ था
आज पढ़ा लिखा है
पढ़े लिखे समझदार होते हैं
यह भ्रम टूट गया
वरना आईएएस, आईपीएस
वकील,डॉक्टर कैसे चुप रहते
पढ़े लिखे होते तो सरकार के गुलाम नहीं
संविधान के पैरोकार होते !
50 लाख जनता की मौत का जश्न
वो नयी पगड़ी पहनकर मनायेगा
अपनी पोशाक की चर्चा
मीडिया में करवायेगा
आज़ादी का जश्न यूँ मनेगा
लाल किले से लहू टपकेगा
देश का हत्यारा
अपने हाथों से
राष्ट्र ध्वज फहरायेगा !
(मंजुल भारद्वाज थिएटर ऑफ रेलेवेन्स के संस्थापक हैं। )