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मुठभेड़’ में उलझ चुका है आदिवासियों का जीवन।

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                                -विवेकरंजन सिंह,वर्धा

जंगल के असली हकदारों की सुध आखिर किसे है। सबकी गिद्ध नजरें इसी पर टिकी हैं कि कैसे उनके जमीनों को कब्जाया जाए और उनमें छिपे खजानों को निकालकर मालामाल बना जाए। आजादी के बाद से अब तक अगर किसी का जीवन आज भी सबसे ज्यादा अस्त व्यस्त है तो वो है आदिवासियों का। सरकारें जो भी आईं सबने अपने अपने अनुकूल उनका उपयोग किया,झांसे में रखा और विकास के नाम पर उनका शोषण किया। सत्तर के दशक में उठा एक जनविद्रोह जो नक्सल मूवमेंट के रूप में जाना गया,आज उसपर भी सवाल खड़े हो गए हैं। जिन उद्देश्यों को लेकर यह विद्रोह शुरू हुआ था वह आज सत्ता विरोध और वोट के बहिष्कार तक सीमित हो चुका है। पिछले एक महीने में देखा जाए तो सुरक्षा बलों द्वारा सौ से ज्यादा नक्सलियों को मारा गया है। सरकार इसको अपनी उपलब्धि बता रही है और दावा कर रही है कि आने वाले समय में नक्सलवाद का नामों निशान नहीं रहेगा। आदिवासी अस्मिता को नजरंदाज कर जिस तरह का खेल माओवादियों और सरकार के बीच चल रहा है उससे साफ जाहिर होता है कि आदिवासियों को इससे कुछ भी नहीं मिलने वाला। छत्तीसगढ़ के अलग अलग नक्सल प्रभावित इलाकों से माओवादियों के आत्मसमर्पण की घटनाएं आती रहती हैं। मीडिया भी इस घटना को सरकार के नजरिए से पेश करने में लगी है। आज की मीडिया के लिए माओवादी आंतरिक खतरा बन चुके हैं, मगर कभी मीडिया हसदेव जंगल कटने को लेकर उन आदिवासियों के बेबस चेहरे उजागर नहीं करती जो सदियों से इन जंगलों में रहते आए हैं और अपनी विशिष्ट संस्कृति और रहन सहन को बचाए हुए हैं। विश्व में कुछ ही ऐसे देश हैं जहां जनजातियों की बहुलता हैं,जिसमे भारत का नाम भी आता है।मगर आंकड़ों को उठाकर देखें तो कई जनजातियां विलुप्ति के कगार पर पहुंचने को हैं और जो हैं वो लगातार अपनी पहचान के लिए जूझ रही हैं।

पुलिस और माओवादियों की मुठभेड़ में जो भी मारे जा रहे हैं वो कौन लोग हैं? ये कौन लोग हैं जो सीने पर गोली खाने को तैयार जंगलों में घूम रहे हैं? सरकारों के पास आत्मसमर्पण कराने के बाद उनके लिए क्या योजनाएं हैं? हसदेव जंगल का ही मामला उठा लीजिए। कोई नया मामला नहीं है। एक दशक से भी ऊपर हो गया इस मामले को चलते हुए।तब से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा की ही सरकारें बनती आई हैं। 2010 से ही इस जंगल को न काटने के लिए आंदोलन चलता आ रहा है। सरकारों ने बस आश्वासन दिए मगर दूसरी ओर अडानी जैसे उद्योगपतियों को भी कहा कि वो आरी कुल्हाड़ी लेकर तैयार रहे। आदिवासी आंदोलन करते रहे और आज भी कर रहे। बीजेपी ने तो अपने घोषणा पत्र में हसदेव जंगल कटने को ‘ धोका ‘ बताया मगर सत्ता में आने के बाद वही काम शुरू कर दिया।

आदिवासियों की लड़ाइयां,उनके विद्रोह को हमेशा से ही छिपाया और दबाया जाता रहा है। वो बस एक मोहरा रहे सरकारों के लिए। जबरन गांव खाली कराने,नक्सली घोषित कर मार दिए जाने जैसी हजार घटनाएं आंखों से सामने से गुजर चुकी हैं मगर उनके मूल विकास को कभी ध्यान नहीं दिया गया। प्राथमिकता में वो कभी नहीं रहे बल्कि रही तो उनकी जमीन और उनके जंगल। नून भात खाकर गुजारा कर लेने वाले ये आदिवासी सरकार के करोड़ों बजट का रती भर भी हिस्सा नहीं मांगते,और सरकार भी उनकी इस भावना का फायदा उठाती है। वो बस सुकून चाहते हैं कि उन्हें उनके जंगल से वंचित न किया जाए। एक बात हमें आपको खुद से पूछनी होगी कि हम नागर समाज के लोग अरण्य की संस्कृति को कितना अच्छे से जानते हैं? हमारी संवेदनाएं क्या उनके इलाकों तक पहुंच पाती हैं? क्या उनकी खबरें हमें विचलित करती हैं? फिर हम कैसे एकतरफा उनको दोषी मान लेते हैं कि वो विकास के धुर विरोधी हैं? यही बात हमें माओवादी या जिन्हें नक्सलवादी कहा जाता है,उनके प्रति भी सोचनी होगी। हम सरकार के बयानों को अपना आधार बनाकर कैसे किसी के बारे में धारणा बना सकते हैं। मेरा कहना यह बिलकुल नहीं कि मैं नक्सलियों के कार्य व्यवहार का पक्षधर हूं मगर हमें उनकी इस हालत के जिम्मेदार लोगों को ढूंढना होगा। उन तत्वों की खोज करनी होगी जिन्होंने उन्हें ऐसा बनने पर विवश किया। 

सोनभद्र के उम्भा गांव की घटना याद है आपको? आदिवासी जमीनों को कैसे आला अधिकारियों ने घूस और पैसे खाकर उनकी जमीनों की खरीद फरोख्त की और स्थिति ये आ गई कि कई आदिवासियों को जान गंवानी पड़ी। अब सरकारें बाद में मुआवजा देकर मामले को घुमा देने या शून्य बना देने में माहिर हो चुकी हैं। जंगलों की बात करने वाले दलों या आदिवासियों की सहायता करने वाले, उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों को सरकार जनता की नजर में अपराधी और माओवादी या अर्बन नक्सल करार दे रही है। वो ऐसी छवि गढ़ने में लगी है कि कल हक और अधिकार मांगने वाले को मार भी दिया जाए तो जनता उसे सरकार का सही और उचित कदम ठहराए और ऐसा होने भी लगा है। नक्सल और माओवादियों के बारे में सतही ज्ञान रखने वाले लोग फिल्में बनाकर जनता में एक नैरेटिव सेट करने में लगे हैं। ये दौर एजेंडा बनाकर मलाई खाने का दौर है।छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार को अब जवाब देना चाहिए कि कांग्रेस के समय में आदिवासियों के साथ ‘ धोखा ‘ उनकी सरकार में ‘ भला ‘ कैसे हो गया। जबकि जंगल पर नजर रखे उद्योगपतियों को दोनों ने ही अपनी गोदी में खिलाया है। राजस्थान सरकार को बिजली की कमी पड़ी तो छत्तीसगढ़ सरकार ने जंगल कटा कर खुदाई शुरू कर दी। ठीक बात है कि विकास के लिए कुछ नुकसान झेलना होता है और कुछ दोस्ती भी निभानी पड़ती है। मगर हर बार नुकसान आदिवासी ही क्यों उठाएं। जब खबर इसकी लगती है कि फला जगह कोयला है,फला जगह सोना है या फला जगह हीरा हैं तभी सरकार क्यों उत्साहित होती है अपने विकास का रथ इन आदिवासी इलाकों में ले जाने को। तभी इनकी सड़कें,इनकी गाड़ियां इनके डंपर,इनके बुलडोजर या बड़ी बड़ी मशीनें जंगलों में पहुंच जाती हैं। बड़े बड़े अस्थाई घर बन जाते हैं। क्यों इससे पहले नहीं दिखती उनको आदिवासियों की बेबसी,विकास की राह देखती उनकी आंखें। सवाल माओवादियों पर भी उठता है कि ऐसी घटनाओं पर उनकी चुप्पी क्या संकेत देती है? सिर्फ चुनाव का बहिष्कार करना या फिर कांग्रेस भाजपा का झूठा विरोध करना उनका काम रह गया है? उनकी जो खूनी लड़ाई जंगलों के बीच चोरी चुपके,छिपते छिपाते चल रही उनको चाहिए कि हथियार त्याग कर वो एक नागरिक की तरह सही मायनों में आदिवासियों का साथ दें। मगर ऐसी उम्मीद करना भी ख्याली पुलाव जैसा ही है। सरकारें इसे बनाए रखना चाहती हैं जिससे आदिवासी और उनकी जमीन को डर और भय का माहौल बनाकर लूटा जाता रहे।

सरकारों की बयानबाजियों और रोज होती मुठभेड़ में आदिवासी जीवन पिसता जा रहा है। उन्हें पुलिस का भी भय है और माओवादियों का भी भय है। ऐसे में वो खुद जंगलों को छोड़ने पर विवश हो रहे हैं। उनको दोहरी मार का सामना करना पड़ रहा है। अब इनके अधिकारों के लिए लड़ने वालों की संख्या भी सिमटती जा रही है। मुश्किल ही है कि कोई महाश्वेता देवी आए जिनको ये मां कह सकें। शहरों में सांस ले रहे और बिजली से सुख का जीवन भोग रहे लोगों को इनके अंधेरे जीवन का दर्द कब महसूस होगा, चिंता का विषय है।

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