कृषि कानूनों पर किसानों से बातचीत के लिए दो दिन पहले उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित चार सदस्यीय कमेटी अपनी पहली बैठक से पहले ही लंगड़ी हो गयी जब उसके एक सदस्य भूपिंदर सिंह मान ने यह कहते हुए अपना नाम वापस ले लिया की वे हमेशा अपने किसानों और पंजाब के साथ खड़े रहेंगे और किसानों के हित के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने समिति को दो महीने में रिपोर्ट देने को कहा था और आदेश के दस दिन के भीतर पहली बैठक के लिए आदेश दिया था। इस मामले को आठ सप्ताह बाद सूचीबद्ध किया जाना है।
भूपिंदर सिंह मान के नाम वापस लेने के बाद इस कमेटी की बैठक पर ही प्रश्नचिंह लग गया है और जब तक एक और नाम इसमें शामिल नहीं किया जाता तब तक इसकी पहली बैठक भी सम्भव नहीं है। अब ऐसा प्रतीत हो रहा है की इस मसले पर चीफ जस्टिस एसए बोबडे के कार्यकाल में सुनवाई सम्भव नहीं होगी जो आगामी 23 अप्रैल, 21 को अवकाश ग्रहण कर रहे हैं।
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह ने कहा कि वो किसानों के साथ हैं। फैसले की वजह बताने के लिए उन्होंने एक प्रेस रिलीज जारी की है। भूपिंदर सिंह ने कहा, ‘चार लोगों की कमेटी में मुझे जगह दी गई, इसके लिए मैं सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देता हूं। लेकिन एक किसान और यूनियन लीडर होने के नाते आम लोगों और किसानों की आशंकाओं को देखते हुए, मैं इस कमेटी से अलग हो रहा हूं। मैं पंजाब और किसानों के हितों से समझौता नहीं कर सकता हूं। इसके लिए मैं किसी भी पद को कुर्बान कर सकता हूं और हमेशा पंजाब के किसानों के साथ खड़ा रहूंगा।
कृषि कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 12 जनवरी को चार सदस्यों की कमेटी बनाई थी। इसमें भूपेंद्र सिंह मान के अलावा इंटरनेशनल पॉलिसी एक्सपर्ट डॉ. प्रमोद कुमार जोशी, एग्रीकल्चर इकोनॉमिस्ट अशोक गुलाटी और शेतकरी संघटना, महाराष्ट्र के अनिल घनवंत का नाम था।
उच्चतम न्यायालय ने कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा रखी है और कमेटी को सुझाव पेश करने के लिए दो महीने का वक्त दिया है। इस कमेटी के गठन के बाद जब भूपिंदर सिंह से सवाल किया गया कि किसान कमेटी से बात नहीं करना चाहते हैं? इस पर उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बनाई है और इस पर किसान संगठनों का सवाल उठाना गलत है। उन्होंने कहा था कि एक किसान होने के नाते मैं निष्पक्ष होकर अपनी बात सरकार के सामने रखूंगा।
उन्होंने कहा था कि कमेटी के बाकी मेंबर्स से मेरी बात नहीं हुई है। मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता हूं। इतना जरूर कहूंगा कि किसानों के हित के खिलाफ कोई काम नहीं करूंगा।जब उनसे सवाल किया गया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में आपने इन कानूनों का समर्थन किया था, तो उन्होंने कहा था कि जब तक कमेटी से बातचीत नहीं हो जाती, मैं इस पर कुछ नहीं कहूंगा।
5 सितंबर 1939 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में पैदा हुए सरदार भूपिंदर सिंह मान किसानों के लिए हमेशा काम करते रहे हैं। इस वजह से राष्ट्रपति ने 1990 में उन्हें राज्यसभा में नामांकित किया था। वे अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के चेयरमैन भी हैं। मान को कृषि कानूनों पर कुछ आपत्तियां हैं। उनकी समिति ने 14 दिसंबर को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को एक पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने कुछ आपत्तियों के साथ कृषि कानूनों का समर्थन किया था। पत्र में लिखा था, ‘आज भारत की कृषि व्यवस्था को मुक्त करने के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में जो तीन कानून पारित किए गए हैं, हम उन कानूनों के पक्ष में सरकार का समर्थन करने के लिए आगे आए हैं।’
इस समिति में डॉ प्रमोद कुमार जोशी, अशोक गुलाटी (कृषि अर्थशास्त्री) और अनिल घनवंत (शेतकरी संगठन के अध्यक्ष)भी शामिल हैं, उन्हें 12 जनवरी को उच्चतम न्यायालय ने सभी पक्षों और हितधारकों को सुनने और एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए गठित किया था। यह आदेश चीफ जस्टिस एसए बोबडे और जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामासुब्रमण्यन की तीन-न्यायाधीश पीठ ने पारित किया था।
उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित कमेटी के सदस्यों का नाम सामने आने के बाद से ही इसकी तीखी आलोचना होने लगी और कहा जाने लगा कि सभी चारों सदस्य नये कृषि कानूनों के समर्थक हैं इसलिए ये निष्पक्ष राय नहीं दे सकते। इनमें से एक सदस्य को तो आरएसएस का मेम्बर भी बताया गया था।
यह भी सवाल उठा कि कमेटी के सदस्यों का नाम उच्चतम न्यायालय को कहां से मिला, किसने दिया? क्या कोर्ट ने कमेटी के सदस्यों के नाम के लिए केंद्र सरकार से सुझाव मांगे थे? अगर मांगे थे तो कब मांगे थे?
तीन हफ्ते पहले चीफ जस्टिस बोबडे ने सुनवाई में कहा था कि हम कृषि कानूनों पर बने गतिरोध का समाधान करने के लिए कृषि विशेषज्ञों और किसान संघों के निष्पक्ष और स्वतंत्र पैनल के गठन पर विचार कर रहे हैं। इस पैनल में पी. साईनाथ जैसे लोग शामिल होंगे। लेकिन जब नाम सामने आये तो सरकारी पिट्ठुओं के ही नाम उसमें दिखे। इस पर भी सवाल उठा कि आखिर पी साईनाथ और देविंदर कुमार शर्मा जैसे विशेषज्ञ उच्चतम न्यायालय की कमेटी में शामिल क्यों नहीं हैं? क्या कमेटी में पी साईनाथ को रखने पर मोदी सरकार सहमत नहीं थी?
दरअसल उच्चतम न्यायालय में नये कृषि कानूनों की संवैधानिकता को भी चुनौती दी गयी है, जिस पर उच्चतम न्यायालय कुंडली मार कर बैठा है। उच्चतम न्यायालय को सबसे पहले इन कानूनों की संवैधानिकता तय करनी चाहिए थी पर उच्चतम न्यायालय किसान आन्दोलन के मामले में बीच बचाव में उतर आया। कृषि राज्यों का विषय है और केंद्र ने ये कानून बना दिए।
सरकार के विरुद्ध आन्दोलन के मामलों में मध्यस्थता करना उच्चतम न्यायालय का काम नहीं है। उच्चतम न्यायालय का काम दायित्व संवैधानिकता की कसौटी पर कानूनों को कसना है। उच्चतम न्यायालय ने तीनों कृषि क़ानूनों को निलंबित करते समय यह नहीं बताया कि क़ानून में क्या खामियां हैं। तीनों कानूनों के वैधानिक पहलुओं की उचित सुनवाई करके कृषि क़ानूनों को या तो निरस्त कर देता। उच्चतम न्यायालय या फिर इन कानूनों में जो प्रावधान असंवैधानिक होते उन्हें रद्द कर देता। उच्चतम न्यायालय से ऐसी तदर्थ कार्रवाई की उम्मीद कोई नहीं करता क्योंकि उच्चतम न्यायालय संविधान की संरक्षक मानी जाती है।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)