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सवाल समवायी लोकतंत्र का है

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प्रफुल्ल कोलख्यान 

जम्मू-कश्मीर और हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओं के चुनाव होनेवाले हैं। उन चुनावों की मतदान के रुझान का अनुमान लगाया जा रहा है। क्या भारत के लोकतंत्र की राजनीतिक समस्याएं चुनावी समाधान से बाहर चली गई हैं! भारत के लोकतंत्र में चुनाव से मिली ताकत का मुकाबला चुनाव से ही हासिल करने का ‘दृढ़-संकल्प’ आज की लोकतांत्रिक राजनीति की सब से बड़ी राजनीतिक जरूरत है। इस दृढ़-संकल्प के कमजोर पड़ते ही हिंसा और अपराध का ऐसा अराजक दौर शुरू हो जायेगा कि लोकतंत्र के नाम पर लोक को ही लोक के विरुद्ध खड़ा करने में फासीवाद को कामयाबी मलने लग जाती है।

यह ठीक है कि विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हो गया है, लेकिन कांग्रेस की तुलना में ‘मतदान’ प्रतिशत में बहुत का अंतर नहीं है। कम-से-कम इतना अंतर तो बिल्कुल नहीं है कि हार के हाहाकार में लोकतंत्र का जहाज हिचकोला खाने लगे। इस समय हाहाकारी सलाहकारों से बचना भी बहुत जरूरी है। इतना कहने के बाद भी यह तो स्वीकारना ही होगा कि भारत में लोकतंत्र हिचकोला तो जरूर खा रहा है। इस के अन्य कारण हैं। कम-से-कम लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनाव का परिणाम तो इस हिचकोला का कारण बिल्कुल ही नहीं है। तो फिर कारण क्या हैं?

भारत के लोकतंत्र के संदर्भ में एक सवाल बार-बार दोहराया जाता रहा है कि मजबूत विपक्ष का होना लोकतंत्र के बेहतर काम करने के लिए जरूरी है। इसी का दूसरा पहलू है कि सरकार का मजबूरी की स्थिति में बने रहना लोकतंत्र के लिए हितकर होता है। थोड़ा ठहरकर, बार-बार दुहरायी गई इस उक्ति की जांच-पड़ताल की जानी चाहिए। सरकार के विभिन्न नीतिगत निर्णयों को सरकार से बाहर रहकर भी प्रभावित करने की स्थिति, नागरिक सुविधा, राहत-रियायत में बढ़त और सब से बड़ी बात सत्ता के बाहर खड़े विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ सत्ता की संतोषजनक साझेदारी, कह लें बंदर-बांट की संभावनाओं के चलते मजबूर सरकार ऊपर से सही लगती है। किसी भी राजनीतिक और व्यक्तिगत असुविधा की स्थिति में मजबूर सरकार से तोल-मोल और ताल-मेल अधिक सुविधाजनक होता है।

भारतीय जनता पार्टी के शासन में संसदीय बहुमत को गैर-संसदीय बहुसंख्यकवाद में बदलकर हिंदू-मुसलमान रिश्ते के बीच कृत्रिम-तनाव बनाकर राजनीति के आयुधीकरण से उत्पन्न सामाजिक उथल-पुथल की स्थिति में ‘स्थाई बहुमत’ का जुगाड़ करना आम प्रवृत्ति है। इस तरह से ‘तथाकथित ऐतिहासिक पराजय’ के हवाले से ‘नकली विजय’ के राजनीतिक आस्वाद का इंतजाम किया जाता है।

माहौल के आधुनिकीकरण के बदले माहौल के आयुधीकरण की राजनीति से नागरिकों की आधिकारिकता (Entitlement) के लोकतांत्रिक सवाल को राजनीति के कूड़ेदान में फेंकने के राजनीतिक दुस्साहस का जन्म होता है। भारत की राजनीति का कूड़ेदान हमेशा ‘अघाया-अघाया’ रहता है। राजनीति के कूड़ेदान के सुपुर्द कर दिये गये लोकतंत्र के हीरा-मोती का उद्धार करनेवाले राजनीतिक दल के इंतजार से उबकर, चुनावी रूप से गैर-राजनीतिक जन-समूह जनांदोलन में उतरता है और उसका सामना रास्ते पर ठोके गये कील-कांटे से होता है। शुभंकर जैसे अनेक आंदोलनकारी शासन की बंदूक के हमले से जान गंवा बैठते हैं।

भारत जैसे बड़े देश में बेहतर शासन में संसाधनों के अभाव से जुड़ी समस्याओं की चुनौती तो रहती ही है। लेकिन अभाव से बड़ी समस्या है, उपलब्ध संसाधनों के इस्तेमाल और वितरण में राजनीतिक और वित्तीय ईमानदारी का अभाव। इस के साथ ही दलीय दुर्भावनाओं का फैलाव मतदाताओं तक हो जाना भी एक खतरनाक स्थिति है। किसी क्षेत्र का जन-प्रतिनिधि उस के पक्ष में वोट न देनेवाले मतदाताओं का भी अधिकृत प्रतिनिधि होता है।

लोकतंत्र की स्वाभाविक स्थिति तो यह है कि किसी जाति-समाज से जुड़े मतदाता की प्रतिबद्धता के किसी एक दल, नेता या जाति नेता के साथ होने की बात ही न की जाये, मगर की जाती है। यह परिपक्व प्रगतिशील लोकतंत्र का लक्षण नहीं हो सकता है। यही कारण है कि चुनाव जीतने के तुरत बाद कुछ नेता किसी ‘जाति धर्म’ के मतदाताओं की तरफ इशारा करते हुए अब खुले आम कहने लगे हैं कि मैं उन का काम नहीं करूंगा क्योंकि उन्होंने मुझे वोट नहीं दिया है।

ऐसा मानकर नहीं चला जा सकता है कि सिर्फ सरकार चला रहे या राजनीति के लोग ही बदनीयत होते हैं। बदनीयती कहीं भी हो सकती है, किसी में भी हो सकती है। लेकिन बहुजन जीवनयापन को प्रभावित खुले आम और सांठ-गांठवाली बदनीयती का संबंध निश्चित रूप से सत्ता की राजनीति से जुड़ी होती है। बदनीयती कुत्सित इरादों से भरे लोगों का सत्ता के शिखर तक पहुंच जाने से स्थिति बदतर होती जा रही है।

आम लोगों की पीड़ा लगातार बढ़ती जा रही है। उन की समस्याओं पर रात-दिन मीडिया में ‘बहुत कुछ’ विमर्श में आता रहता है। लेकिन अंततः आक्रामक प्रवक्ताओं की अधिकतर बातचीत बतकुच्चन और बकैती बनकर रह जाती है। ऊपर प्रवक्ता नीचे कार्यकर्ता, जन-हित में लेकिन कोई-कोई ही या फिर कोई नहीं। भारी अफसरों की फौज के भार के नीचे अन्याय की मारी आम जनता! थोड़ा-बहुत काम होता भी है तो उसका जिस के साथ पैरवी और बिरादरी का पगहा होता है। मन में शिकायतों की पोटली और जुबान पर यह कि मगर शिकायत करने से क्या फायदा?

कहने का आशय यह है कि व्यवस्था में असंतुलन के साथ ही लोगों के मुंह से और व्यवस्था सत्ता के प्रति शिकायत तो निकलकर बाहर आती है, लेकिन फिर वही बात कि ‘मगर शिकायत करने से क्या फायदा?’ यह तब होता है जब ‘मजबूत सरकार’ की मजबूती जनता पर कहर बनकर टूटती है और ‘जनता के बाहर’ स्वार्थ-सिद्धि करने-कराने में लगे ‘लोकतंत्र के हितधारकों’ के सामने मिमियाती रहती है।

जबकि राष्ट्रवाद की अंतर्निहित आकांक्षा रहती है कि सरकार की मजबूती आम जनता के सामने मिमियाती रहे और ‘आम जनता के बाहर’ दहाड़ती रहे! भला ऐसा कौन देशभक्त होगा जो अपनी सरकार को कमजोर देखना चाहेगा! ‘मजबूत सरकार’ के औद्धत्य से परेशान नेता जरूर ‘मजबूर सरकार’ की कामना करने लगते हैं। इसे पीड़ा की तरह पढ़ा जाना चाहिए, इसे सिद्धांत की तरह से गढ़ा नहीं जाना चाहिए!

मजबूत सरकारें राजनीतिक माहौल के कृत्रिम-तनाव में क्षेत्रीय राजनीतिक आकांक्षा या क्षेत्रवार विकास की जरूरतों और संभावनाओं को भी कुचलते रहते हैं। मजबूत सरकार के इस ‘दमदार मदारी’ रूप पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी होता है। मजबूर सरकार की कामना फेल लोकतंत्र की भुरभुरी चारदीवारी से निकलती है। मजबूर सरकारें सफल लोकतंत्र की मजबूत चारदीवारी की रक्षा नहीं कर पाती हैं। राष्ट्रवाद का कोई भी स्वरूप वह चाहे जितना भी पवित्र हो अपनी अंतिम परीक्षा में लोक कल्याणकर नहीं ठहरता है वह सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ भारत की विभिन्न अस्मिताओं को हिंदू-अस्मिता हिंदू राष्ट्रवाद से सीमित और परिभाषित करना चाहता है। बार-बार यह समझने की जरूरत है कि भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के जिस भारत-बोध को आगे बढ़ाने की राजनीतिक कोशिश में लगी रहती है, वह इतिहास के हीन-यथार्थ से निर्मित है। समवायी उदारता भारत की सहमिलानी प्रवृत्ति है।

सहिष्णु स्वभाव इस का मूल चरित्र है। इस के साथ ही यह कभी नहीं भूलना चाहिए और साफ-साफ कहा जाना चाहिए कि भारत के इस मूल स्वभाव के लिए उच्च-कुल-शील लोगों के जीवन में कोई जगह नहीं रही है; भजन-कीर्तन की शुद्ध भाव-भंगिमा चाहे जैसी रही हो। उदारता की जगह कट्टरता पढ़ने से बाकी बातें स्वयं-स्पष्ट हो जाती हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’ की याद है न! ‘बहु बकरा बलि हित कटैं, जाके बिना प्रमान, सो हरि की माया करै, सब जग को कल्यान’। मतलब बिल्कुल साफ है, कहीं भी हो, किसी की भी हो, किसी भी रूप में हो : राजकीय हिंसा, हिंसा न भवति।

जीवन की अनुकूल परिस्थितियां लोकतंत्र के लिए जरूरी है। यह एक ऐसी स्थिति है जो पहले लक्ष्य के हासिल हाथ होने की शर्त पर अपने होने की प्रक्रिया शुरू करने की जिद पर कभी-कभी अड़ जाती है। लक्ष्य हासिल है यानी भविष्य को वर्तमान में घटित हुआ देखने-दिखाने की जिद पूरी किये जाने पर ही महाभारत में उतरता है! यहीं लोकतांत्रिक नेता में बहुआयामी विश्वसनीयता की जरूरत होती है। ‘लोक-लुभावन’ नेता पर जनता बार-बार भरोसा करती है और अंत में नेता की विश्वसनीयता और अपनी विश्वास क्षमता दोनों ही से हाथ धो लेता है। जनता की विश्वास क्षमता और नये नेता की विश्वास योग्यता के बहाल होने में समय लग जाता है। गरीब और वंचित जीवन-स्थिति में लोकतंत्र के प्रति अखंड विश्वास को टिकाये रखना कोई आसान बात नहीं है।

भारत के संदर्भ में राज-व्यवस्था के तीन प्रासंगिक स्वरूप को देखा जाये तो पूंजीवाद के रूप में राजतंत्र को उच्च वर्ण-वर्ग का समर्थन होता है। समाजवाद के रूप में साम्यवाद को निम्न वर्ण-वर्ग का समर्थन होना चाहिए मगर नहीं होता है। मानववाद के रूप में समवायी लोकतंत्र को मध्य वर्ण-वर्ग का समर्थन रहता है। मानव प्रवृत्ति और मानवाधिकार के हवाले से पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों को लोकतंत्र के किसी-न-किसी रुप का आश्रय लेना पड़ जाता है। यहीं मध्य वर्ण-वर्ग अनुकूल भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। इस मध्य वर्ण-वर्ग के आयतन को पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही अपने-अपने तौर-तरीका से नियंत्रित और नियमित करता रहता है।

पूंजीवाद ‘उदार लोकतंत्र’ का रास्ता पकड़ता है तो साम्यवाद कठोर लोकतंत्र का रास्ता पकड़ता है। कहना न होगा कि पूंजीवाद और साम्यवाद में छत्तीस की तरह का विमुखी और विरोधी संबंध होता है। विभिन्न मानवतावादी वैश्विक आंदोलन के बाद यह बात सभी की समझ में अंट गई है कि मानवाधिकारों का खुले आम उल्लंघन, आज-न-कल, सभ्यता का सब से बड़ा विस्फोटक बन जाता है। समवायी लोकतंत्र के किसी भी रूप को दिल से न तो पूंजीवाद पसंद करता है और न साम्यवाद ही पसंद करता है।

समवायी लोकतंत्र पसंद करें, न करें मानव-सभ्यता में विस्फोट का डर दोनों को सताता जरूर है। इस डर की वजह से दोनों लोकतंत्र की तरफ बढ़ते हैं और अपने-अपने ढंग से लोकतंत्र को परिभाषित करते हैं। दोनों ही वाद की सिद्धांतकी अपने-अपने तरीके से ‘उदार लोकतंत्र’ और ‘कठोर लोकतंत्र’ की तरफ मध्य वर्ण-वर्ग को खींच लेने की कोशिश में लगा रहता है। मध्य वर्ण-वर्ग की पसंद का न्यायपूर्ण-समवायी लोकतंत्र दोनों को महंगा सौदा लगता है। न्यायपूर्ण-समवायी लोकतंत्र के मर्म की बुनियादी समझ मध्य वर्ण-वर्ग के लोगों की पकड़ से फिसलने लगती है।

उच्च वर्ण-वर्ग के लोगों को ‘बुद्धिजीवी’ बनने की कोई खास जरूरत ही नहीं होती है और निम्न वर्ण-वर्ग को ‘बुद्धिजीवी’ बनने की बुनियादी सहूलियत तो नहीं होती है, लेकिन प्राथमिक सलाहियत और दुस्साहस की हद तक का साहस होता है। सलाहियत और साहस के साथ-साथ जीवन में ‘सहूलियत’ के जुगाड़ की स्वाभाविक आकांक्षा भी बहुत ताकतवर होती है।

इस ताकतवर आकांक्षा की संतुष्टि निम्न वर्ण-वर्ग के साथ बने रहने से नहीं हो सकती है, जाहिर है कि वह उच्च वर्ण-वर्ग की तरफ लपकता है। इस परिस्थिति में अधिकतर बुद्धिजीवियों के तर्कवादी रुझान में बात तो समवायी लोकतंत्र के हित की होती है लेकिन उस का प्रस्थान उदार लोकतंत्र की तरफ होता है। समझ में आने लायक बात है कि रुझान और प्रस्थान की इस विरुद्धता में ‘बुद्धिजीवियों’ की जमात दोहरे-तिहरे चरित्र के साथ प्रकट होता है।

‘बुद्धिजीवियों’ की जो जमात रुझान और प्रस्थान की विरुद्धता के विरुद्ध बने रहने के लिए संघर्षशील रहते हैं और मध्य वर्ण-वर्ग की लोकतांत्रिक फिसलन को रोकने की तर्कवादी कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें ‘व्यवस्था के संचालकों’ के द्वारा ‘देश-द्रोही’ और ‘अरबन नक्सल’ कहते हुए दाखिल दफ्तर कर दिया जाता है। व्यवस्था संचालकों का एक प्रमुख तर्क होता है कि ‘राम-राज’ तो अनिवार्य रूप से आनेवाला ही है; ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।’ समवायी लोकतंत्र के कान-आंख-आवाज की ताकत तर्क में ही होता है।

समवायी लोकतंत्र की संभावनाओं को भटकानेवाली व्यवस्था की रात-दिन सेवा में लगी ‘बुद्धिजीवियों’ की जमात मनुष्य की स्वाभाविक तर्क बुद्धि और तार्किक चयनशीलता की प्रक्रिया को तहस-नहस करने में लगी रहती है। समवायी लोकतंत्र की संभावनाओं को जिलाये रखने के लिए संघर्षशील बुद्धिजीवी देश-द्रोह और ‘अरबन नक्सल’ होने के आरोप को धोने-पखारने में फंसा रहता है। सामान्य लोगों के तर्कशील चयन का विवेक या तो खो जाता है या फिर किसी-न-किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा रहस्यमय तरीके से से नियंत्रित, निदेशित और संचालित होता रहता है।

भेद-भावमूलक समाज व्यवस्था गरीबी को सापेक्षिक गरीबी (relative poverty) और परम गरीबी (absolute poverty) के आधार पर राष्ट्रवाद के व्यापक आच्छादन में आर्थिक संदर्भों से आंतरिक रूप से छोटे-छोटे हित-समूहों में नागरिकों को बांट देती है। सभ्यता में विस्फोट की स्थिति को रोकने के लिए साधारण लोगों को परम गरीबी (absolute poverty) से बाहर निकालकर सापेक्षिक गरीबी (relative poverty) में लाने की जरूरत को उदार लोकतंत्र के पैरोकार मानते हैं।

ये पैरोकार आर्थिक संदर्भों में आंतरिक रूप से विखंडित और विभंजित नागरिक समूह के लिए सापेक्षिक लोकतंत्र (relative democracy) से संतुष्ट कर लेने की जबरदस्त उम्मीद रखते हैं। आर्थिक सापेक्षता का सिद्धांत सापेक्षिक लोकतंत्र के राजनीतिक मनोभाव के अनुकूल लोकतंत्र का निकृष्ट सिद्धांत बनाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अनिवार्य रूप से चुनाव में ‘एक व्यक्ति, एक मत’ का प्रत्यक्ष प्रचलन होने के बावजूद अप्रत्यक्ष रूप से बहुत कुछ इस के विरुद्ध भी होता रहता है।

भारत की बड़ी आबादी वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत होने के कारण जाति-वर्ण सापेक्षिक सामाजिक स्थिति बहुत पहले से तैयार बनी हुई है। सापेक्ष सामाजिक स्थिति और सापेक्षिक गरीबी मिलकर सापेक्षिक लोकतंत्र (relative democracy) को संभव करने के बहुत निकट पहुंच जाती है। जातिवार जनगणना इस में बड़ी बाधा खड़ी कर सकती है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचारधारा की पृष्ठ-भूमि के साथ भारतीय जनता पार्टी के शासन में हिंदुत्व की राजनीति सापेक्षिक, समवायी, सर्वसंतोषी लोकतंत्र के पोशाक में सर्व समर्पणकारी व्यवस्था बहाल करने के लिए सर्वस्तरीय पूंजीवाद और उच्च वर्ण-वर्ग समर्थित राजतंत्र की तरफ तेजी से बढ़ने की कोशिश कर रही है।

कहने का आशय यह है कि भारत में राजतंत्र के भाव-बोध को समवायी लोकतंत्र का विकल्प बनाने की कोशिश जारी है। वर्तमान सत्ताधारी घटक का सब से बड़े राजनीतिक दल, भारतीय जनता पार्टी की पृष्ठ-भूमि ही नहीं अग्र-भूमि भी भेद-भावमूलक समाज व्यवस्था की है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ‘अकेले दम पर’ सत्ता में नहीं है। तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के स्वार्थ की अग्र-पृष्ठ-भूमि चाहे जो हो लेकिन उन की विचारधारात्मक पृष्ठ-भूमि भारतीय जनता पार्टी की विचारधारात्मक पृष्ठ-भूमि से न सिर्फ भिन्न है बल्कि विपरीत भी है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के वैचारिक-कूप से राजनीति का पानी भरनेवाली भारतीय जनता पार्टी के लिए सब से बड़े आरंभिक और प्राथमिक दुश्मन के रूप में कम्युनिस्ट और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग चिह्नित और व्यवहृत रहे हैं। सच पूछा जाये तो उन का दुश्मन उन की कट्टरता का विरोध करनेवाला हर आदमी है, कम-से-कम इस मामले में उन की समझ बिल्कुल साफ है।

एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के लिए कम्युनिस्ट और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग दुश्मन नहीं रहे हैं और न ये राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक कट्टरता के समर्थक रहे हैं। फिर एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की राजनीतिक समझ को कहा ही क्या जा सकता है! भारत के लोकतंत्र की विडंबना है कि विचार और विचारधारा के धुर विरोधी सत्ता में एक दूसरे के सत्ता के सहयोगी बने हुए हैं; स्वार्थ साधने में सहयोगी हैं। कब तक सत्ता में सहयोगी बने रहेंगे! कुछ भी कहना मुश्किल है!

मान्यता प्राप्त अपराध का दौर शुरू हो गया है, इसे बयान की तरह से नहीं सवाल की तरह से लिया जाना चाहिए। अगले दौर में मजबूत और मजबूर सरकार के फायदे नहीं अपराधी सरकार के फायदे गिनते लोग नजर आने लग जायें तो अचरज में नहीं पड़ना चाहिए! क्या हमारे लोकतंत्र की यही अनिवार्य परिणति है? ऐसा बिल्कुल नहीं है।

यह सच है कि भारत में मजबूत सरकारों ने भी काम किया है तो मजबूर सरकारों ने भी काम किया है। लेकिन वैसा काम किसी सरकार ने नहीं किया है, जैसा काम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस सरकार ने किया है। एक बार निष्पक्ष नजर से भारत में मजबूत सरकार और मजबूर सरकार के दौर में आम लोगों को हुए फायदा के हिसाब-किताब को ध्यान से देखा जाना चाहिए। मिथ के रूप में कहा जाये तो द्रौपदी को दाव पर लगाने के दोषी तो पांचों पवित्र पांडव थे! द्रौपदी ने कृष्ण को आवाज दी थी! द्रौपदी की लाज बच गई! आज तो सब से बड़ा सवाल तो यही है कि कौन किस को किस तरह से आवाज दे कि पुरखों के दिये लोकतंत्र की लाज रह जाये!(

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