-विवेकरंजन सिंह
भारत छोड़ने के बाद से मंटो के भीतर एक अजीब सा दर्द उठने लगा था। वो काफी दिनों तक निराशा और खुद के भीतर उठ रहे सवालों से परेशान थे। मुंबई में ठीक ठाक पटकथा लिखने का काम चल रहा था। उनके अंदर हिंदुस्तान की माटी की जो खुशबू दशकों से रची बसी थी वो सीमा पार जाने पर भी खतम नही हुई। उन्हें विभाजन का दुख था। वो बंटवारे के फैसले से मानों टूट चुके थे। मुंबई से लाहौर तो चले गए मगर हिंदुस्तान और पाकिस्तान बनाने वाली रेखा उनके भीतर हमेशा एक चीर पैदा करती रही। वो विचलित से रहने लगे थे।

मंटो लिखते हैं कि “जब मैं भारत की नागरिकता छोड़कर जनवरी 1948 में लाहौर आया, तो मेरी मानसिक स्थिति तीन महीने तक अजीब रही. मुझे समझ में नहीं आता था कि मैं कहाँ हूँ? भारत में हो या पाकिस्तान में. बार-बार दिमाग में उलझन पैदा करने वाला सवाल गूंजता, क्या पाकिस्तान का साहित्य अलग होगा? यदि होगा, तो कैसे होगा?”
वह लिखते हैं, कि “वह सब कुछ जो अविभाजित भारत में लिखा गया है, उसका मालिक कौन है? क्या इसका भी बंटवारा किया जाएगा? क्या भारतीयों और पाकिस्तानियों की बुनियादी समस्याएं एक जैसी नहीं हैं? क्या हमारा देश धार्मिक देश है? देश के तो हम हर हाल में वफादार रहेंगे, लेकिन क्या हमें सरकार की आलोचना करने की इजाज़त होगी? क्या आज़ादी के बाद, यहां के हालात गोरों की सरकार के हालात से अलग होंगे?”
ये जो सवाल मंटो के भीतर अंदर ही अंदर उमड़ रहे थे वो आज भी हमारे मन में आते ही आते हैं। कभी कभी ऐसा लगता है कि ये सवाल हमें भीतर ही भीतर खाए जा रहे हैं। विभाजन की त्रासदी सिर्फ़ पलायन ही नही था बल्कि कुछ ऐसा था जिसे मंटो अपनी हर कहानी मे बयां कर रहे थे। विभाजन रेखाएं इंसानों के दिलों में रेखाएं नही खींच सकती, मंटो ये बताते हैं। मंटो ये बताते हैं कि विभाजन जैसी महा आपदा में हुक्मरान और ताकत वाले लोग कैसे अवसर तलाशते हैं। वो मातम में भी अपने हवस को मिटाने को बेताब रहते हैं। खैर मंटो की कहानियां आज के समय में किसी से छूटी नहीं हैं और न ही मंटो। मगर मंटो को पढ़ने के बाद क्या कभी ये सवाल हमारे मन के भीतर आया कि मंटो के जो सवाल सरहद इस पार थे वो सवाल सरहद उस पार जाकर भी कायम रहे। मंटो सवाल पूछते रहे और सवाल पूछने व सच लिखने के खतरे उठाते रहे। उनकी कहानियां बैन हुई मगर फिर भी उनकी कलम नहीं रुकी। आज के समय में सच लिखना और बोलना ही तो सबसे ज्यादा कठिन होता जा रहा है।
कहानी ठंडा गोश्त हो या काली सलवार, बू हो या फिर नंगी आवाज़ें, तथाकथित सभ्य समाज इसमें अश्लीलता ढूंढता रहा और मंटो बिना हिचकिचाए पहले से नंगे समाज को आइना दिखाते रहे। न जाने कितनों की जिंदगियां ‘ टिटवाल का कुत्ता ‘ जैसी हुई तो न जाने कितनों को ‘ टोबा टेक सिंह ‘ जैसी हालत में लाकर उनको मरने पर विवश कर दिया गया। इंसानी जिंदगी कैसे राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार बना दी जाती है, मंटो इस दर्द को अपने साहित्य के बखूबी उभार कर पाठकों के सामने प्रस्तुत किए हैं। उनपर मुकदमे चलते रहे, जुर्माने लगते रहे मगर वो अडिग रहे। वो कहीं से भी विभाजन के पक्षधर नहीं थे। वो सवाल पूछने में भी नहीं हिचकिचाया करते थे। अपने दौर के बड़े बड़े शायरों फैज और साहिर से भी वो तल्ख चर्चाएं किया करते थे।
वर्तमान समय में सच को दर्ज करने का साहस जुटाने के लिए मंटो जैसे लेखकों को पढ़ना कितना आवश्यक है वो तो उनकी कृति को पढ़कर ही जाना जा सकता है। मंटो के सवाल क्या आज हमारे सवाल बन पा रहे हैं? क्या सुदूर आदिवासी भाई बहनों के प्रति बढ़ रहे अत्याचार की भनक हमें लग पा रही है। देश के भीतर ही न जाने कितने पलायन रोज हो रहे हैं। कोरोना महामारी में हुआ पलायन और उस पलायन के बीच उभर कर आए अमानवीय चेहरे क्या हमें याद हैं? क्या हमारे कलम में ऐसी ताकत है कि रोज हो रहे जुर्म और अन्याय के खिलाफ के हम सच सच लिख सकते हैं? शायद एक डर हमारे भीतर आज भी बैठा है। मंटो ही हैं जो इस भय को हमारे अंदर से निकलते हैं और कलम उठाने की ताकत देते हैं। प्रेस की स्वतंत्रता पर लग रही पाबंदियां हों या फिर पत्रकारों पर हो रहे हमले और उन्हें किसी न किसी बहाने सलाखों के पीछे डाल देने की धमकी, ये सब मंटो भी देख चुके थे, मगर पीछे नहीं हटे। उनकी कहानियों को सरकार ने जब्त किया, उनपर जुर्माने लगाए मगर वो जीतते रहे और लिखते रहे।
हम मंटो को सिर्फ एक साहित्यकार न मानें। हमें मानना होगा कि मंटो ने अपने लेख को बहुत सजाया संवारा नही। बहुत कठिन साहित्य लिखने की होड़ में भी नहीं पड़े, उन्होंने जो देखा वो लिखा और डंके की चोट पर लिखा। सरहद पार में भी उन्हें वही मिला जो आज के समय में सच लिखने वाले लेखकों को हमारे मुल्क में मिल रहा है। फिर भी उनकी विरासत को बढ़ाने वालों की संख्या खतम नहीं हुई। उनके समय में बहुत सी पत्रिकाओं को बंद किया गया और उनके मालिकों पर कठोर कार्यवाइया भी की गईं। आज हमारे देश में भी ऐसा ही हो रहा है। मगर मिशन की पत्रकारिता करने वाले पत्रकार और उस पत्रकारिता को अपने कागज में जगह देने वाले लोग आज भी हैं।
लेखक विवेकरंजन सिंह वर्धा