रोहित वेमुला के आखिरी शब्द पढ़ते हुए, रघुवीर सहाय की कविता का ‘उदास रामदास’ बरबस याद आ जाता है। रामदास की उदासी भी तो रोहित वेमुला जैसी ही उदासी है, जहां किसी से भी शिकायत का, किसी भी शिकायत का, कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। इस एहसास से निकली उदासी कि किसी कोशिश का, यहां तक कि चीख-पुकार का भी कोई अर्थ नहीं है। यहां तक कि जीने और मरने का भी! आखिर, ‘‘उसे बता यह दिया गया था, उस दिन उसकी हत्या होगी।’’ बेशक, रामदास के हत्यारे ने जब, ‘‘नाम पुकारा, हाथ तोलकर चाकू मारा ’’ तो न देखते हुए भी उसे सबने देखा था, पर रोहित वेमुला का हत्यारा भी इसके बावजूद बहुत छुपा हुआ नहीं है कि वह सुसाइड नोट के पीछे, अपना चेहरा छुपाना चाहता है।
रोहित वेमुला की आत्महत्यानुमा हत्या
रोहित वेमुला की आत्महत्यानुमा हत्या पर उठे देशव्यापी विक्षोभ और आंदोलन के तीसरे दिन, मोदी सरकार और उससे बढक़र सत्ताधारी पार्टी की ओर से डैमेज कंट्रोल मिशन पर उतरीं मानव संसाधन विकास मंत्री, स्मृति ईरानी ने इस पूरे प्रकरण में अपने मंत्रालय, सरकार तथा आमतौर पर संघ परिवार के दलितविरोधी आचरण पर पर्दा डालने के लिए, एक ओर तो विपक्ष को रोहित वेमुला की आत्महत्या में जाति देखने के लिए फटकारा और दूसरी ओर रोहित तथा उसके चार अन्य दलित साथियों के खिलाफ निलंबन/ होस्टल से निष्कासन/ सामाजिक बहिष्कार की कार्रवाई का अनुमोदन करने वाली कार्यकारिणी उपसमिति के सदस्यों व होस्टल से निष्कासन लागू करने वाले वार्डन से लेकर, पूरे झगड़े के लिए जिम्मेदार ए बी वी पी के नेता सुशील कुमार तथा कार्रवाई की मांग करते हुए चिट्ठी लिखने वाले अपने मंत्रिमंडलीय साथी, बंडारू दत्तात्रेय तक की जाति बतायी। इसमें वह अर्द्ध-सत्य से लेकर झूठ तक का सहारा लेने से नहीं चूकीं, जिसे चंद घंटों में ही एससी-एसटी शिक्षक मंच द्वारा बेनकाब भी किया जा चुका था। यहां जाति के प्रश्न पर संघ का पाखंड अपने नंगे रूप में था।
फिर भी स्मृति ईरानी ने एक बात सही कही। रोहित वेमुला की आत्महत्यानुमा हत्या का मामला, कोई दलित बनाम अन्य के झगड़े का मामला नहीं है।
बेशक, यह दलित बनाम अन्य का झगड़ा नहीं है। अगर होता तो रोहित वेमुला की आत्महत्या पर पूरे देश में विक्षोभ का ऐसा ज्वार नहीं उठा होता, जिसने ईरानी और उनकी सरकार को, बचाव के रास्ते खोजने पर मजबूर कर दिया है। वास्तव में खुद हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी, यह दलित बनाम अन्य का झगड़ा नहीं था। अगर होता तो चंद हफ्ते पहले हुए छात्र संघ के चुनाव में इसी विश्वविद्यालय के छात्रों ने आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन, रोहित जिसके मुख्य नेताओं में से था, और वामपंथी छात्र संगठन एसएफआइ के गठबंधन को, विशाल बहुमत से नहीं चुना होता।
यह दूसरी बात है कि सामान्य रूप से की जा रही इसकी उम्मीद के विपरीत कि कम से कम चुनाव के जरिए छात्रों के बहुमत का फैसला आ जाने के बाद, रोहित व चार अन्य एएसए नेताओं का निलंबन समाप्त कर दिया जाएगा, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन पर होस्टल से निष्कासन तथा प्रशासनिक बिल्डिंग समेत विश्वविद्यालय में सभी सार्वजनिक जगहों पर उनके प्रवेश पर प्रतिबंध यानी सामाजिक बहिष्कार ही थोप दिया। याद रहे कि लाइफ साइंसेज के पीएचडी के मेधावी छात्र रोहित वेमुला ने रविवार, 17 जनवरी को एएसए के बैनर से फांसी लगाकर जब अपनी जान दी, होस्टल से निष्कासन तथा सामाजिक बहिष्कार के विरोध में रोहित वेमुला समेत पांचों दलित छात्रों के खुले में रहने/सोने का यह सोलहवां दिन था!
रामदास की हताश उदासी की तरह, रोहित वेमुला की आत्महत्यानुमा हत्या के पीछे इसके एहसास की हताशा थी कि उसे न्याय नहीं मिलेगा। वंचित-अवांछित बच्चे के रूप में जन्म से जुड़े अकेलेपन को अपनी प्रतिभा से, विवेक से और संघर्ष की सामर्थ्य से दूर करने की उसकी हरेक उम्मीद को, कुचल दिया गया। और यह किया सवर्ण जातिवाद और सांप्रदायिकता के उस योग ने, जो संघ परिवार के नाम से आज देश में सत्ता में बैठा हुआ है। बेशक, शिक्षा संस्थाओं में दलितों की उम्मीदों का कुचला जाना कोई नया नहीं है। हैदराबाद विश्वविद्यालय भी इसका अपवाद नहीं है। वास्तव में इस विश्वविद्यालय में पिछले कुछ ही वर्षों में दलित छात्रों के हताशा में आत्महत्या करने के करीब दर्जन भर मामले हुए बताते हैं। स्मृति ईरानी सही कहती हैं कि कांग्रेस सांसद, हनुमंत राव ने कम से कम चार साल से इस विश्वविद्यालय में यह समस्या चली आ रही होने की ओर चिट्ठी लिखकर उनका ध्यान खींचा था। उनका कहना है कि उन्होंने राव की चिट्ठी के मामले में भी कम न ज्यादा, उतनी ही सक्रियता दिखायी थी, जितने बंडारू की चिट्ठी के मामले में। लेकिन, राव की चिट्ठी को लेकर ईरानी मंत्रालय के सारे रिमाइंडरों का हासिल क्या रहा–एक और दलित, रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया गया!
जातिवादी-सांप्रदायिक गठजोड़ से उलझने की कीमत रोहित वेमुला को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी
लेकिन, रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जाना सिर्फ पहले से चली आ रही समस्या का परिणाम नहीं था। जातिवादी पूर्वाग्रहों और भेदभाव से लडऩे की तो रोहित की पूरी तैयारी थी।
आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएन में, जो अपनी बुनियादी दिशा में रैडीकल होने के साथ ही, बहुत प्रखर रूप से जातिवादविरोधी विचार को लेकर चलता है, उसकी सक्रियता इसी तैयारी का हिस्सा थी। लेकिन, संघ परिवार के सत्ता में आने के रूप में, शासन-प्रशासन में और तमाम संस्थाओं में बढ़ते पैमाने पर, जिस तरह के सवर्णवादी-हिंदूवादी दंभ का बोलबाला कायम किया जा रहा है, उसका सामना करने की शायद उसकी भी तैयारी नहीं थी। ऊपर से नीचे तक पूरी व्यवस्था का इस जातिवादी-सांप्रदायिक गठजोड़ का औजार बना दिया जाना, एक नयी परिस्थिति है। यहां छात्रवृत्ति रोके जाने जैसे ओछे किंतु एक गरीब परिवार के दलित के मामले में बहुत घातक हथियार के आजमाए जाने के भी दरवाजे खुले हुए हैं। इस जातिवादी-सांप्रदायिक गठजोड़ से उलझने की कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
यह संयोग ही नहीं था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में मुजफ्फरनगर के दंगों से संबंधित लघु फिल्म, ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ के प्रदर्शन में सत्ताधारी संघ परिवार के छात्र बाजू, एबीवीपी द्वारा बाधा डाले जाने पर, हैदराबाद विश्वविद्यालय में एएसए का विरोध दर्ज कराना, एबीवीपी की नजरों में अक्षम्य अपराध हो गया। आखिरकार, सवा सौवें जन्म वर्ष में डा0 आंबेडकर को हड़पने की भाजपा की सारी कोशिशों के बावजूद, संघ परिवार को यह हर्गिज मंजूर नहीं है कि दलित अपनी जातिगत पहचान से आगे स्वतंत्र रूप से कुछ सोचें और जनतांत्रिक आंदोलन से किसी भी तरह से जुड़ें। जैसाकि आइआइटी मद्रास के आंबेडकर-फुले स्टडी सर्किल के मामले में हुआ था, हैदराबाद विश्वविद्यालय में एएसए के खिलाफ संघ परिवार ने बाकायदा युद्ध छेड़ दिया। उसे ‘‘राष्ट्रविरोधी’’ घोषित करना इस युद्ध का जाना-पहचाना हथियार था।
और फेसबुक आदि पर एएसए को ‘‘राष्ट्रविरोधी’’ करार देने के लिए, रोहित समेत एएसए के कार्यकर्ताओं ने जब एबीवीपी अध्यक्ष, सुशील कुमार को होस्टल में घेरा, तो संघी ‘‘वीर’’ ने विश्वविद्यलय के सीक्यूरिटी अधिकारी की उपस्थिति में इस पर लिखित रूप से माफी मांगने के बाद, अस्पताल में जाकर भर्ती हो जाने का दांव खेला और तीन दिन बाद हुए एपेंडीसाइटिस के अपने ऑपरेशन को, अपने साथ शारीरिक हिंसा के आरोप से जोड़ दिया।
विश्वविद्यालय प्रशासन जब एएसए को दंडित करने के लिए उत्सुक नजर नहीं आया, तो एबीवीपी नेता ने खुलकर अपने सत्ता-बल को आजमाया। पुलिस में एफ आइ आर दर्ज कराने से लेकर, केंद्रीय श्रम मंत्री व स्थानीय भाजपाई सांसद, बंडारू दत्तात्रेय से मानव संसाधन विकास मंत्री को कुख्यात चिट्ठी लिखवाने तक सारे हथियार आजमाए गए। चिट्ठी में सीधे एएसए की शिकायत ही नहीं की गयी थी, यह फैसला भी सुनाया गया था कि हैदराबाद विश्वविद्यालय, ‘‘हाल ही में जातिवादी, अतिवादी तथा राष्ट्रविरोधी राजनीति का अड्डा बन गया है।’’ ईरानी के मंत्रालय ने जिस तरह ‘‘राष्ट्रविरोधी राजनीति’’ की इस चुनौती का मुकाबला किया, वह अब सब के सामने आ चुका है।
रोहित वेमुला की शहादत, उदार जनतंत्र की रक्षा की भी पुकार है
बेशक, श्रीमती ईरानी और उनकी सरकार अब अपने बचाव के लिए, प्रशासनिक मामलों में इस केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन, किसी से छुपा हुआ नहीं है कि विभिन्न संस्थाओं तथा निकायों में अपने विचार के लोगों को भरने की उतावली में सत्ता में बैठा संघ परिवार, सबसे तेजी से संस्थाओं की इसी स्वतंत्रता को नष्टï कर रहा है। संस्थाओं की स्वतंत्रता जैसी उदार जनतांत्रिक आम राय की विरासत को, संघ परिवार अपने मंसूबों के लिए बाधक ही मानता है। हैदराबाद विश्वविद्यालय की प्रोक्टोरियल जांच में एबीवीपी नेता पर शारीरिक हमले के आरोपों को अमान्य करने के बाद, मामले का एक तरह से रफा-दफा ही करने के बाद, जिस तरह केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के दबाव में और संघ परिवार की पसंद का नया वाइसचांसलर बैठाए जाने के बाद दूसरी जांच करायी गयी और रोहित व चार अन्य दलित छात्रों के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार समेत अन्यायपूर्ण कार्रवाई की गयी, वह कोई अकेला उदाहरण नहीं है बल्कि मौजूदा निजाम में नियम ही बन चला है। पुणे के एफटीटीआइ के मामले में यह सरकार साबित कर चुकी है कि उसे सिर्फ शिक्षा, संस्कृति, कल के प्रतिष्ठानों पर संघ परिवार का कब्जा चाहिए, फिर चाहे इन संस्थाओं का और उनके माध्यम से राष्ट्र की प्रतिभा के विकास का दम ही घुट जाए। रोहित वेमुला की शहादत, उदार जनतंत्र की रक्षा की भी पुकार है।
राजेंद्र शर्मा