अरुण कुमार,
अर्थशास्त्री
वैश्वीकरण के कारण किसी भी जंग का दुनिया के हर हिस्से पर असर पड़ता है। फिर चाहे वह युद्ध खाड़ी के देशों में हो या सुदूर अफ्रीका में लड़ा जा रहा हो। मगर रूस और यूक्रेन की जंग इनसे अलग है। यह दो महाशक्तियों के बीच का टकराव है। इसमें एक तरफ रूसी फौज है, जबकि दूसरी तरफ अमेरिका व नाटो द्वारा परोक्ष रूप से समर्थित यूक्रेन की सेना। दो ‘ब्लॉक’ बन गए हैं, जिनकी तनातनी भारत पर भी असरंदाज हो सकती है।
यह युद्ध तात्कालिक तौर पर वैश्विक कारोबार, पूंजी प्रवाह, वित्तीय बाजार और तकनीकी पहुंच को प्रभावित करेगा। रूस ने बेशक हमला बोला है, लेकिन उस पर प्रतिबंध भी लागू हो गया है। जिस देश पर प्रतिबंध लगाया जाता है, उसके साथ होने वाले व्यापार को रोकने की कोशिश होती है। फिलहाल, रूस गैस और तेल का बहुत बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अभी इन उत्पादों के कारोबार भले ही प्रतिबंधित नहीं किए गए हैं, लेकिन मुमकिन है कि जल्द ही इनके व्यापार पर भी रोक लगा दी जाएगी। जाहिर है, इनके दाम बढ़ सकते हैं। दूसरी तरफ, यूक्रेनन गेहूं और खाद्य तेलों (विशेषकर सूरजमुखी तेल) के बड़े निर्यातकों में से एक है। भारत वहां से तकरीबन 1.5 बिलियन डॉलर का सूरजमुखी तेल हर साल मंगाता है। ऐसे में, इन वस्तुओं के आयात प्रभावित होने से हमारे यहां खाद्य उत्पादों पर असर पड़ेगा। यानी, यह युद्ध ऊर्जा, धातु और खाद्य उत्पादों के वैश्विक कारोबार को गहरे प्रभावित कर सकता है।
इसी तरह, रूस पर प्रतिबंध से उसकी पूंजी का प्रवाह बाधित होगा। यह वित्तीय बाजारों को प्रभावित करेगा। जब बाजार में अनिश्चितता का दौर आता है, तो बिकवाली शुरू हो जाती है। विदेशी निवेशक अपनी पूंजी निकालने लगते हैं। इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई और विदेशी संस्थागत निवेश यानी एफआईआई का आना कम हो जाता है। जंग के हालात में सभी देश अपने-अपने निवेशकों को अपने-अपने मुल्क में ही निवेश करने की सलाह देते हैं, ताकि उनकी अर्थव्यवस्था मजबूत रहे। इस बार भी ऐसा हो सकता है। तकनीक भी इन सबसे अछूती नहीं रह जाती है। चूंकि युद्ध में आधुनिक तकनीक की जरूरत बढ़ जाती है, इसलिए बाकी क्षेत्रों के लिए उसकी उपलब्धता कम हो जाती है। हां, सैन्य साजो-सामान से जुडे़ उद्योग को जरूर फायदा हो सकता है, क्योंकि उनकी खरीद-बिक्री व उत्पादन में बढ़ोतरी हो सकती है।
यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि युद्ध कितने समय तक चलता है? हालांकि, अनुमान यही है कि यह जंग लंबी नहीं चलने वाली। रूस अफगानिस्तान की 1979-89 वाली गलती शायद ही दोहराना पसंद करेगा। इसलिए दोनों देशों के बीच बातचीत की मेज सजने की भी खबर है। मगर हाल-फिलहाल में जंग के खत्म होने के बावजूद शीतयुद्ध थमने वाला नहीं। यह 1950 के दशक सरीखा नहीं होगा। उस वक्त सोवियत संघ (वामपंथ) और पश्चिम (पूंजीवाद) की वैचारिक लड़ाई थी। अब तो रूस और चीन जैसे देश भी पूंजीवादी व्यवस्था अपना चुके हैं। इसलिए यह वैचारिक नहीं, वर्चस्व की जंग है। इससे दुनिया दो हिस्सों में बंट सकती है, जिनमें आपस में ही कारोबार करने की परंपरा जोर पकड़ सकती है।
इससे जाहिर तौर पर आपस में पूंजी प्रवाह होगा और वैश्विक आपूर्ति शृंखला प्रभावित हो सकती है, जिसकी वजह से हम महंगाई का सामना कर सकते हैं। इसका अर्थ है कि यह जंग दुनिया भर में मंदी और महंगाई बढ़ा सकती है। रूस की कंपनियों पर प्रतिबंध लग जाने से वैश्विक कारोबार प्रभावित होगा। हालांकि, पश्चिमी देश इस कोशिश में हैं कि वे पेट्रो उत्पादों का अपना उत्पादन बढ़ा दें और ओपेक देशों से भी ऐसा करने की गुजारिश की जा सकती है। फिर भी, पेट्रो उत्पादों की घरेलू कीमतें बढ़ेंगी, जिससे अन्य चीजों के दामों में भी तेजी आएगी।
महंगाई बढ़ने से मांग में कमी आती है, जिसका असर विकास दर व निवेश पर पड़ता है। अभी चूंकि बाजार में बहुत ज्यादा पूंजी नहीं है, इसलिए पहले की तुलना में महंगाई ज्यादा असर डाल सकती है। फिर, आयात बढ़ने और निर्यात कम होने से हमारा भुगतान-संतुलन बिगड़ सकता है। अनिश्चितता के दौर में सोने की मांग भी बढ़ जाती है, जिससे इसका आयात बढ़ सकता है। यह भी भुगतान संतुलन को प्रभावित करेगा। इन सबसे रुपया कमजोर होगा और स्थानीय बाजार में इसकी कीमत बढ़ सकती है। यानी, दो-तीन रास्तों से महंगाई हमारे सामने आने वाली है।
इस युद्ध का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कुछ अन्य असर भी हो सकता है। जैसे, यह दुनिया भर के देशों का बजट बिगाड़ सकता है। सभी देश अपनी सेना पर ज्यादा खर्च कर सकते हैं। इससे वास्तविक विकास तुलनात्मक रूप से कम हो जाएगा और राजस्व में भी कमी आएगी। महंगाई से कर वसूली बढ़ती जरूर है, लेकिन यह शायद ही वास्तविक अर्थों में हो। इनसे राजस्व घाटा बढ़ता जाता है, जिसके बाद सरकारें सामाजिक क्षेत्रों से अपने हाथ खींचने लगती हैं। इससे स्वाभाविक तौर पर गरीब प्रभावित होते हैं। भारत शायद ही इसका अपवाद होगा। मुमकिन है कि वैश्वीकरण की अवधारणा से भी अब सरकारें पीछे हटने लगें, जिसका नुकसान विशेषकर विकासशील देशों को होगा।
अपने यहां भारतीय छात्रों के विदेश जाने का मुद्दा भी गरम है। हमारे विद्यार्थी इसलिए बाहर जाते हैं, क्योंकि देश में जरूरी शैक्षणिक ढांचे का अभाव है। मेडिकल की सीटें यहां काफी कम हैं और प्राइवेट कॉलेज बेतहाशा फीस वसूलते हैं। फिर, यूक्रेंन में 1.7 लाख विद्यार्थियों पर एक मेडिकल कॉलेज है, जबकि अपने यहां 27 लाख विद्यार्थियों पर। अगर ये बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करके लौट आएं, तो भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज को काफी फायदा हो सकता है, लेकिन बच्चे आमतौर पर लौटते नहीं हैं। लिहाजा, भारत में शिक्षा के क्षेत्र में ढांचागत सुधार की सख्त दरकार है। अगर बच्चों को देश में ही शिक्षा मिलने लगे, तो न सिर्फ भारत में कामकाजी वर्ग की उत्पादकता बढ़ेगी, बल्कि उद्यम का भी विकास होगा। इस तरह का प्रयोग दक्षिण पूर्व एशियाई देश कर चुके हैं। अभी उद्योग जगत की यही शिकायत है कि 90 फीसदी नए बच्चों में उचित प्रशिक्षण का अभाव है। अधिक संख्या में कॉलेज होने, छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शैक्षणिक माहौल मिलने और प्रशिक्षण से उद्योग जगत की यह शिकायत भी दूर हो सकती है। जाहिर है, यह युद्ध भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था को कई रूपों में प्रभावित कर रहा है।