डॉ. विकास मानव
मन चिरयुवा है। यह कभी बूढ़ा नहीं होता। यह भोक्ता है। शरीर तो भोग का साधन है। इस शरीर में बैठा मन इन्द्रियरूपी भुजाओं से भोग ग्रहण करता है। जो जीव जवानी भर भोग का कीड़ा बना रहा, प्रौढ़ावस्था में भोग की उपत्यका में भ्रमण करता, वह आगे वृद्धावस्था में कैसे इससे विरत रह सकता है ? यह संसार ऐसे पुरुषों से भरा पड़ा है। इन भोग कीटों के उद्धार का कोई उपाय नहीं, सिवाय आत्मज्ञान के।
यौवन की चौखट पर पुरुष पहुँचता है तो स्त्री ढूंढ़ता है। कैसी स्त्री ? त्रिपुरसुन्दरी, भुवनमोहिनी, स्वर्णवर्णा, विभुवदना, नवयौवना भले ही वह काला कलूटा, खूसट, गौबरेला मैलाकुचैला, टेढ़ामेढ़ा हो। उसकी कुण्डली में सप्तम भाव जैसा है, वैसी स्त्री उसे बिना प्रयास एवं चाह के मिलेगी। यह विधि का विधान है।
फड़फड़ाने से कुछ नहीं होता। सप्तम भाव का स्वाद सबके लिये भिन्न-भिन्न होता है। किसी को मीठा, किसी को तोता, किसी को कटुतिक्त मिष्ठ चरपरा, किसी को रूखा सूखा शुष्क भाद। प्रारब्ध ने जो दिया वह ठीक है। इसमें संतोष होना चाहिये। हाय-हाय करना व्यर्थ है। सर्वगुण सम्पन्ना श्रीमयी शीलवती विश्रुत सुन्दरी नयनाभिराम नारी केवल उसी पुरुष को मिलती है जिसके सप्तम स्थान में, गुरू, शुक्र, चन्द्र एवं बुध हों तथा ये पापदृष्ट न हो ऐसा भाग्यवान् कौन है ? जो है उसे मेरा नमस्कार ।
स्वृ उपतापयोः स्वरति + गम् गतौ गच्छति = स्वर्ग जहाँ से दुःख संताप चला जाता है, वह स्थान स्वर्ग है। स्वर्ग = पीड़ा का अभाव, वेदना का अन्त। नृ नृणाति क्लेशं प्रापयति न् + वुन्=नरक।जहाँ से क्लेश कष्ट प्राप्त होता है, वह नरक है। ऊपर स्थित स्थान भी स्वर्ग है।
स्वृ शब्दे स्वरति + गम् गतौगच्छति, जहां शब्द ध्वनि का गमन होता है, वह स्वर्ग है। यह स्थान है, आकाश आकाश का तन्मात्र या गुण है, शब्द। आकाश ऊपर है। इसलिये स्वर्ग = ऊपर ऊपर प्रकाश है, नीचे अन्धकार दीपक जलता है तो ऊपर चतुर्दिक प्रकाश फैलता है पर नीचे अन्धकार ही रहता है। यह अन्धकार नरक नाम से जाना जाता है।
न अर्चिंः यस्मिन् यस्मात् वा स नार्चिः> नाकि: (चस्यकः) =नर्कः (दीर्घस्य लोपः) = नरकः > ( र् व्यञ्जने अकारस्य प्रवेशः)।
【इस प्रकार, नरक= प्रकाश का अभाव / घनान्धकार/ अज्ञान/अन्ततिमिर/अगति।】
सप्तम भाव सूर्यास्त स्थान है। यहाँ प्रकाश का अभाव हो जाता है। इसलिये यह नर्क / नरक स्थान है। प्रथम भाव में सूर्योदय होता है, प्रकाश का भाव होता है। इसलिये यह स्वर्ग है। स्वर्ग और नर्क आमने सामने हैं। नर्कसे स्वर्ग दिखायी पड़ता है, स्वर्ग से नर्क में झाँका जाता है।
एक को पाकर व्यक्ति दूसरे से वंचित नहीं होता। मूर्धास्थान स्वर्ग है। उपस्थ स्थान नर्क है। इस नर्क में स्वर्ग का प्रतिबिम्ब है।
सप्तम भाव एवं प्रथम भाव की सीमाएँ एक दूसरे से मिलती हैं। सप्तम भाव के चतुर्भुज का ऊपरी कोण, प्रथम भाव के चतुर्भुज के निचले कोण को छूता है। इसलिये इन दोनों भावों की दूरी नगण्य हुई। अन्य प्रकार से, सप्तम के चतुर्भुज का निम्न कोण एवं प्रथम भाव के चतुर्भुज का उच्च कोण एक दूसरे से अनन्त दूरी पर हैं और परस्पर कभी नहीं कहीं नहीं मिलते। इसलिये इन दोनों भावों की दूरी अमाप्य एवं अनन्त है।
इसके दो अर्थ हो :
१. जहाँ स्वर्ग है, वहीं नर्क है जहाँ नर्क है, वहाँ स्वर्ग है।
२. जहाँ स्वर्ग है, वहाँ नर्क कदापि नहीं है, जहाँ नर्क है, वहाँ स्वर्ग का होना सम्भव नहीं।
ये दोनों निष्कर्ष एक साथ सत्य हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। यह अद्भुत तथ्य है, विशेषतायुक्त है।
ऊपर से नीचे गिरना आसान है। इस क्रिया में विलम्ब नहीं लगता। नीचे से ऊपर चढ़ना / उठना कठिन है। यह श्रमसाध्य एवं समयसाध्य क्रिया है। पुरुषतत्व ऊपर है और दिव्य है। स्त्री तत्व नीचे और गूड़ है। स्त्री कभी गिरती नहीं। केवल पुरुष गिरता है।
स्त्री को सामने पाकर पुरुष के भाव विचार आचार सब बदलने लगते हैं। स्त्री में आकर्षण शक्ति है वह उसे खींच लेती है। गिरने के भय से अनेकों पुरुष स्त्री से दूर रहते हैं, स्त्री का दर्शन करना भी नहीं चाहते। नवयौवना नारी को देखकर नवयुवक पुरुष अपने को सम्हाल नहीं सकता। जो सम्हाल से यह शिव है। तस्मै शिवाय नमः।
कुण्डली का सप्तम भाव कामियों का स्वर्ग, वैरागियों का नर्क है। स्त्री स्वर्ग स्वरूपा है, नरकमयी भी है। वस्तुतः सप्तमभाव स्वर्ग नहीं, अपितु स्वर्ग का आभास है। इसमें स्वर्गीयसुख की अनुभूति होती । इसे स्वर्ग समझ कर पुरुष इसमें गिरता है।
सप्तम भाव सम्पूर्ण रूप से स्त्री है। इस स्वी में स्वर्ग के सुख का आभास एवं नरक की यातना की अनुभूति नित्य है। एक बार पुरुष के मन मस्तिष्क में यदि स्त्री का प्रवेश हुआ तो उससे मुक्तिपाना कठिन है। पुरुष का स्वो से शारीरिक सम्बन्ध हो तो वह उससे मुक्ति पा सकता है।
कौन ऐसा है, जो स्त्री को मन में, मस्तिष्क में स्थान देकर उसे वहाँ से हटाये ? स्त्री को तो जाने दीजिये, स्त्री संबंधी चर्चा से इस संसार में भला कौन अपने को बचा सकता है ?
पुरुष ९ महीने तक स्त्री के गर्भ में मलमूत्र के मध्य रहता है। यह उसके लिये नरक है। जब वह गर्भ से बाहर आता है तो वह माता की गोद में प्रेमपूर्वक स्थान पाता है। यह उसका स्वर्ग है। इसके अतिरिक्त जब पुरुष स्खों को पाकर उससे मैथुन करता, लिपटता-चिपटता, हँसता-मुस्कुराता है तो यह उसके लिये स्वर्ग है।
यही पुरुष जब स्त्री प्रसंग से अपने वीर्य का नाश करता हुआ रोगग्रस्त होकर कराहता है तो यह उसका नरककुण्ड है। पुरुष स्त्री को प्राप्त करना चाहता है और प्राप्त करने के पूर्व, सात फेरा करने के पहले उसके विषय में जानना चाहता है। स्त्री तो माया है, न । क्या इसे कोई पकड़ सकता, जान सकता है ?
तुलसी कहते हैं :
“सत्य कहहि कबि नारि सुभाऊ ।
सब विधि अगम अगाध दुराऊ ॥
निज प्रतिविम्बु बरकु गहि जाई ।
जानि न जाइ नारि गति भाई ॥”
(अयोध्याकाण्ड, रा.च.मा. )
सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य, अथाह तथा रहस्यपूर्ण है। अपनी परछाहाँ भले ही पकड़ ली जाय पर हे भाई लियों की चाल (कब कहाँ किससे क्या करेंगी) नहीं जानी जा सकती। स्त्री स्वयं में एक मह है। इस ग्रह को शान्त करने का उपक्रम व्यक्ति जानकर भी नहीं कर पाता। यहां अद्भुत बात है।
राखिय नारि जदपि उर माहीं।
जुवती शास्त्र नृपति बस नाहीं॥ (अरण्य काण्ड, रा.च.मा.)
‘काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ ?
का न करै अवला प्रबल, केहि जग कालु न खाइ?”
(अयोध्याकाण्ड, रा.च.मा. )
युवती, शास्त्र एवं राजा किसी के बस में नहीं होते। स्त्री को भले ही पुरुष अपने हृदय में बन्द किये रहे, वह उसके वश में नहीं होती। आग क्या नहीं जला सकती ? समुद्र में क्या नहीं समा सकता ? अबला कहाने वाली प्रबल स्त्री (जाति) क्या नहीं कर सकती ? जगत् में काल किसको नहीं खाता ? इन चारों प्रश्नों का उत्तर है-सब।
माया वा प्रकृति रूप होने से स्वी जड़ है। यही कारण है कि वह हठी दुस्साहसी अवज्ञाशील होती है। पार्वती ने हठ किया, शिव की बात को भी न माना और अपने शरीर को जलाकर भस्म कर लिया।
【पार्वती = सती (दक्षपुत्री)】
अब भी लोक में देखा जाता है, स्त्रियाँ अपने को जला लेती हैं। ऐसी जड़ स्त्री का कैसे विश्वास किया जाय?
शंकराचार्य कहते हैं :
‘विश्वासपात्रं न किमस्ति ? नारी।”
राजा दशरथ कैकेयी का विश्वास कर पछताये।
मानस के शब्दों में :
‘कवने अवसर का भयउ ? गयऊ नारि विस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि, जतिहि अविद्या नास॥’
(अयोध्याकाण्ड)
स्त्री का विश्वास कर के व्यक्ति यह नहीं जान सकता कि किस अवसर पर क्या हो जाय ? स्त्री बने बनाये काम को बिगाड़ देती है, ठीक वैसे ही जैसे योग की सिद्धि रूपी फल के मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है। स्त्री के गहन चरित्र को अपने अनुभवानुसार राजा भर्तृहरि इस प्रकार व्यक्त करते हैं :
‘स्त्रीचरित्रं दैवो न जानाति, कुतो मनुष्यः?’
किन्तु ऐसा नहीं है। कुण्डली हर जातक का नग्न चित्र है। स्त्री की कुण्डली ज्योतिषी के सामने स्वयं बोलती है। लग्न और चन्द्र राशि से उसके अन्तर्बाह्य स्वरूप का पता कर लिया जाता है। इसमें नवांश. की महत्वपूर्ण भूमिका है। लग्न की राशि एवं उसके नवांश से तथा चन्द्रमा की राशि एवं उसके नवांश से फल कहना चाहिये।
लग्न और चन्द्रमा में से जो बलवान् हो उसी का फल प्रकट होता है। दोनों के समान बली होने पर मिश्रित फल होता है। नवांश का फल अमिट होता है। क्योंकि यह बीज है। यहाँ प्रत्येक राशि के नवांश को आधार मानकर फलानयन कर रहा हूँ।
ग्रहों के लग्न में होने एवं देखने से तथा चन्द्रमा से युति एवं दृष्टि संबंध करने से उनके स्वभाव के अनुसार स्त्री का आधार हो जाता है। फल कथन में इसको प्रश्रय देना चाहिये। प्रारब्धवश पुरुष को स्त्री जन्य सुख-दुःख मिलता है। इसको मेटना असम्भव नहीं तो सरल भी नहीं।
शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्रं स्नानमाचरेत्।
लक्षं विहाय दातव्यं, कोटिं त्यक्त्वा तुष्टमम् भवेत्॥
सौ काम छोड़कर भोजन करें। हजार काम छोड़ कर स्नान करें। लाख काम छोड़कर दान करें। करोड़ों काम छोड़कर स्वयं को संतुष्ट करें।