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….तो न्यायपालिका पर लोगों का विश्वास नहीं रह जाएगा

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सनत जैन

कोलकाता हाईकोर्ट के पूर्व जज अभिजीत गंगोपाध्याय द्वारा भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता लेने और चुनाव लड़ने की घोषणा की है। उसके बाद न्यायपालिका की निष्पक्षता को लेकर एक बार फिर सारे देश में बवाल शुरू हो गया है। उनका इस्तीफा मंजूर भी नहीं हुआ था। उसके पहले ही उन्होंने कह दिया, कि वह भाजपा के संपर्क में थे। वह लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं। पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में उन्होंने ममता बनर्जी की सरकार और उनकी पार्टी के प्रवक्ताओं के खिलाफ खुलकर आलोचना की।

पिछले दो वर्षों में उन्होंने जो फैसले दिए उसमें से लगभग 14 फैसला पश्चिम बंगाल सरकार के खिलाफ थे। हाईकोर्ट में उनके द्वारा दिए गए फैसले एक राजनैतिक पार्टी के पक्ष में गये। न्यायाधीश के पद पर रहते हुए उन्होंने मीडिया मे टीएमसी सरकार की आलोचना की। हाईकोर्ट के न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को भी नोटिस जारी करने में कोई कोताहि नहीं बरती। इससे स्पष्ट है, कि उनके केंद्र सरकार से जुड़े हुए तार बहुत मजबूत थे। पश्चिम बंगाल हाई कोर्ट में जज रहते हुए उनके फैसले उनका व्यवहार और अब वहीं से लोकसभा का चुनाव लड़ने की घोषणा से, न्यायपालिका की निष्पक्षता को लेकर बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हो रही है। सुप्रीम कोर्ट के जिन पांच जजों ने राम मंदिर निर्माण का फैसला सुनाया था। उन जजों में पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, पूर्व सीजेआई शरद अरविंद बोबडे, वर्तमान सीजे डीवाई चंद्रचूड़ पूर्व न्यायाधीश अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर शामिल थे। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई वर्तमान में राज्यसभा के सदस्य हैं। उन्हें भाजपा ने मनोनीत किया। डीवाई चंद्रचूड़ वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश है।

न्यायाधीश एस अब्दुल नजीर को राज्यपाल बनाया गया है। राम मंदिर निर्माण का फैसला देने वाले सभी जज सेवा निवृत्ति के बाद सरकार द्वारा तुरंत उपकृत किए गए हैं। अभी तक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की राजनीतिक निष्ठा और उनके फैसलों को लेकर दबे छुपे प्रतिक्रिया आती रही है। जिस तरह से अभिजीत गंगोपाध्याय ने समय पूर्व सेवा निवृत्ति लेकर भाजपा से लोकसभा का चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। पिछले दो वर्षों में उन्होंने जो फैसला ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ हुए हैं वह विवाद में आ गये है। क्या हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से निष्पक्ष न्याय मिलना संभव नहीं रहा। हालांकि यह भी कहा जाता है, कि कभी कोई व्यक्ति निष्पक्ष नहीं होता है। न्यायाधीश भी कहीं ना कहीं किसी विचारधारा या आस्था से बंधा हुआ होता है। इसके बाद भी गुण दोष के आधार पर न्यायपालिका नियमों को ध्यान में रखते हुए निर्णय करती है।

हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के प्रति लोगों की आस्था बनी हुई थी। अब जिस तरह के निर्णय न्यायापालिका में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें जहां भाजपा की सरकारे हैं। अथवा जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। वहां की हाईकोर्ट से भाजपा के पक्ष में जो फैसले आ रहे हैं। उसके बाद से न्यायपालिका की साख को लेकर सारे देश में असमजंस का माहौल बनने लगा है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में किस तरह का फैसला कौन सा जज देगा। इसका अनुमान पहले ही लगा लिया जाता है। न्यायपालिका के ऊपर सरकार का भय, दबाव और विचारधारा को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मुखर होकर डायस पर बैठकर जिस तरह की टिप्पणी कर रहे हैं, आधे अधूरे फैसला दे रहे हैं। जमानत के मामले कई महीनों और वर्षों तक पेंडिंग रखे जा रहे हैं। उससे न्यायपालिका की साख आम जनता के मन में खत्म होती जा रही है। न्यायाधीशों का राजनीति के मैदान में उतरना, सेवा निवृत्ति के तुरंत बाद या समय पूर्व इस्तीफा देकर राजनीति में आना न्यायपालिका की विश्वसनीयता को खत्म कर रहा है। गंगोपाध्याय का यह कहना कि उसके भाजपा नेताओं के साथ पहले से ही संपर्क बने हुए थे। इससे बड़ी अनैतिकता और क्या हो सकती है

। कार्यपालिका और विधायिका द्वारा किए गए कार्यों के बारे में न्यायपालिका द्वारा ही सही या गलत का निर्णय किया जाता है। लगभग 80 फ़ीसदी मुकदमे में सरकार संबधित होते है। प्रभावित व्यक्ति न्यायालयों से न्याय मिलने की आशा रहती थी। हाईकोर्ट ओर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश यदि सरकार के दबाव में आकर या सरकार से प्रभावित होकर फैसला करने लगेंगे। तो संविधान और लोकतंत्र को सुरक्षित रख पाना संभव नहीं होगा। वर्तमान में जांच एजेंसियां और सरकारी विभाग मनमानी कर रहे हैं। लोगों को महीनो और वर्षों तक जेलों में बंद करके रखा जा रहा है। सरकार की आलोचना करने पर नागरिकों को देशद्रोह के आरोप में वर्षों तक जेलों में बंद रखा जा रहा है। न्यायपालिका का सिद्धांत है, जेल अपवाद है, जमानत नागरिक का अधिकार है। यदि यह अधिकार खुद न्यायपालिका छीन रही है। ऐसी स्थिति में अब न्यायपालिका और नागरिक के भाग्य का भगवान ही मालिक है। जब-जब इस तरीके की स्थितियां पैदा होती हैं। उसके बाद अराजकता बढ़ती है।

लोग कानून को अपने हाथ में लेने लगते हैं। सरकार और जनता के बीच में विरोध बढ़ता है। कानून व्यवस्था की स्थिति और सामाजिक तथा आर्थिक विकास भी बाधित होता है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को सेवा निवृत्ति के बाद राजनीति के क्षेत्र में आना ही नहीं चाहिए ।यदि आते भी हैं तो कम से कम 3 साल से 5 साल तक की समयावधि का बंधन भी होना चाहिए यदि ऐसा नहीं किया गया, तो न्यायपालिका पर लोगों का विश्वास नहीं रह जाएगा। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए बहुत खराब होगी ।लोकतंत्र के स्थान पर राजतंत्र की जडें मजबूत होती चली जाएंगी।

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