छत्तीसगढ़ के कबीरपंथी प्रचारक रिसाल साहेब का यह साक्षात्कार
नवल किशोर कुमार
रिसाल साहेब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के दोंडेकला में कबीर आश्रम के कर्ता-धर्ता व पंथ प्रचारक हैं। सतनामी पंथ और कबीरपंथ के विषय में उनसे नवल किशोर कुमार ने दूरभाष पर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश
कबीरपंथ और सतनामी पंथ में समानता के कौन–कौन से सूत्र देखे जा सकते हैं?
कबीर साहेब सत्यद्रष्टा हैं और सतनामी पंथ के संस्थापक गुरु घासीदास जी भी सत्यद्रष्टा रहे। दोनों में समानता यही है । माने, चाहे राजा हो, रंक हो, फकीर हो, अरबपति हो, पदमपति हो, कोई भी हो, उसके मुंह के सामने ही सत्य को कह देना। बेबाक तरीके से कह देना। यह कबीर साहेब का भाव था और यही भाव गुरु घासीदास जी का रहा है। इसीलिए उन्होंने कहा है–
सत्यनाम को सुमरिके तरि गये पतित अनेक,
तांते कबहु ना छोड़िए, यही सतगुरु का टेक।।
सत्यनाम है सार, सुमिरो संत विवेक करी,
तो उतरो भव जल पार, सतगुरु के उपदेश यह।
यही सतनाम है।
कबीरपंथ और सतनामी पंथ में जो परंपराएं हैं, उनमें समानताएं क्या–क्या हैं?
ऐसा है कि तीन मुख्य बातें हैं– रुढ़ता, मूढ़ता और गूढ़ता। सतगुरु कबीर साहेब किसी परंपरा को लेकर नहीं चले और जीवनभर पीछे मुड़कर नहीं देखे कि कौन उनके पीछे आ रहा है। वे कहते थे– “जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।”
कबीर तेरी झोपड़ी गलकटियन के पास,
जो करेगा सो भरेगा, तूं क्यों होत उदास।
और–
कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ,
जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।।
तो इस प्रकार से सतगुरु कबीर साहेब की परंपराओं के बारे में एक प्रकार से यह कहना चाहिए कि परंपरा को आंख मूंद कर नहीं माना जाना चाहिए। वे कहते थे–
‘वेद कितेब कहो किन झूठा, झूठा जो न विचारै’
सत्य के सामने उन्होंने वेद और कुरान को भी नहीं बख्शा है। मने, वेद हो या कुरान हो, सभी में कुछ सही बानी लिखी हुई है। लेकिन कुछ झूठी बानियां भी लिखी हुई हैं। तो कर वंदगी विवेक का, भेद गए सब कोय। अपने परमात्माप्रदत्त विवेक का जीवन में सम्मान करें। अरे, विवेक तो करो, कोई कुछ भी कह रहा है। रुढ़ता, मूढ़ता और गूढ़ता का मतलब क्या है, पहले यह समझिए। बिना सोचे-विचारे किसी की कही हुई बानी को मान लेना मूढ़ता है। और किसी ने कुछ कह दिया उसको बिना विचार के करना, यह रुढ़ता है। और गूढ़ता– यह तो अंत:करण में उतार करके ही इसको समझा और जाना जा सकता है। कबीर साहेब की वाणी और गुरु घासीदास जी की वाणी गूढ़ वाणी है। सत्य वाणी है। और विज्ञान सम्मत वाणी है। आज से साढ़े पांच सौ साल पहले कही हुई कबीर की एक भी बानी विज्ञान को खारिज नहीं करती, क्योंकि विज्ञान सम्मत है। लेकिन कबीर साहेब का और गुरु घासीदास जी का लेबुल लगाकर कोई अपनी वाणी परोस रहा है, और विज्ञान को चुनौती दे रहा है तो समझ लीजिए वह कबीर साहेब और गुरु घासीदास जी की कही हुई बानी नहीं है।
आप यह मानते हैं कि कबीरपंथ और सतनामी पंथ में विचार के स्तर पर कोई अंतर नहीं है?
बिल्कुल कोई नहीं है। अगर इस दृष्टिकोण से देखा जाय तो गुरु घासीदास और सतगुरु कबीर, देखिए गुरु शब्द दोनों में लगा है। और सतगुरु सत्य कबीर हैं, सत्य वक्ता हैं। गुरु घासीदास भी सत्य वक्ता हैं। दोनों किसी के सामने नहीं झुके। इस प्रकार से सतनामी पंथ और कबीरपंथ में समरूपता तो है।
क्या हम इस निष्कर्ष पर भी पहुंच सकते हैं कि जो सतनामी पंथ है, वह कबीर पंथ का ही दूसरा रूप है?
बिल्कुल कह सकते हैं, क्योंकि गुरु घासीदास जी, जिनके जन्म को अभी तकरीबन दो सौ साल हुए हैं और 1398 में जन्मे सतगुरु कबीर साहेब की करीबन 625वीं जयंती है, तो सतगुरु कबीर की छाप गुरु घासीदास पर आई है। जैसे गोस्वामी तुलसीदास जी हैं, कबीर से सौ साल बाद पैदा हुए हैं तो कबीर की छाप गोस्वामी जी में भी आई है। साहेब शब्द जो आया है उनकी रचनाओं में, वह तुलसी ने कबीर से लिया है।[1] इसी प्रकार से गुरुनानक जी हैं…।
क्या आपको नहीं लगता है कि तुलसीदास ने कबीर की साहित्य शैली का उपयोग किया, उनके विचारों का नहीं?
हां, उन्होंने [तुलसीदास ने] कबीर साहेब के विचारों का इस्तेमाल नहीं किया। उसमें बात ऐसी है कि उस समय पंडितवाद और मुल्लावाद इतना ज्यादा था कि सच कहनेवाले को प्रताड़ित किया जाता था। देखिए कि जितने भी संसार में महापुरुष हुए और सत्य का प्रकाशन करना चाहा, उनको प्रताड़ित किया गया। किसी को जहर दे दिया गया। इसके बावजूद अपनी कथनी-करनी पर कबीर साहेब खरे उतरे। गुरु घासीदास जी को भी सताया गया। उन्हें अस्पृश्य कहकर सताया गया। पंडितों ने अपने-आपको बहुत ज्यादा समझा, लेकिन सतगुरु कबीर साहेब की बानी सत्य बानी थी, उनकी बानी कर्कश बानी थी, एकदम तिलमिला देने वाली। उन्होंने पंडितों के सामने कहा–
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढै सो पंडित होय।
सतनामी पंथ आदिवासी परंपरा के साथ किस तरह जुड़ा है?
सतनामी समाज आदिवासियों से कहां जुड़ा है! मुझे तो नहीं लगता, क्योंकि उनका रीति-नीति कुछ अलग है और सतनामी पंथ का रीति-नीति अलग है। सतनाम पंथ और कबीर पंथ में चेतंत देव [चेतना] की पूजा है। इसमें जड़ का भाव नहीं आता है। दोनों में मूर्तिपूजा का खंडन हे। लेकिन आदिवासियों में तो अलग है।
सतनामी पंथ को स्वीकार करने वाले जो लोग हैं, वे अलग–अलग जातियों के हैं। उनमें दलित भी हैं और पिछड़े भी। इसके बारे में विस्तार से बताइए।
जैसे कबीर पंथ में कहा गया है–
नाना पंथ जगत में निज-निज गुन गावैं,
अपने को सार बताकर सदमारग लावैं।
कबीरपंथियों में भी अनेक जातियां हैं, साहू भी हैं, सतनामी भी हैं, कुर्मी भी हैं, केवट भी हैं, यादव भी हैं और चंद्राकर भी मने-
देसे-देसे मैं फिरा गांव गली का खोर,
ऐसा जियरा ना मिला जो लेवैं फटक पछोर।
सतगुरु कबीर साहेब एक जगह गद्दी तान के नहीं बैठे। वे तो जगह-जगह फिरते रहे। सत्य ज्ञान को प्रचारित करने के लिए सतगुरु कबीर साहेब गली-कूची सब जगह गए। और जहां गए, वहीं की भाषा में उन्होंने बोला। इसलिए जाति, मत और पंथ से ऊपर उठकर सत्यमार्ग का अन्वेषण किया।
वर्ष 1860 में सतनामी पंथ के गुरु बालक दास जी की हत्या का मामला क्या है? कृपया बताएं।
(थोड़ा रूककर) 1860 में बालक दास की हत्या हो गई थी, ऐसा तो नहीं है!
यह बात सामने आती है कि गुरु बालक दास की हत्या गुरु पद प्राप्त करने के लिए की गई और यह भी कि तबसे इस पद पर कुछ खास लोगों ने कब्जा कर लिया है।
देखिए साहब जी। मेरा पंथ खारे का धारा, जो चले सो उतरे पारा। सत्य के रास्ते में जो भी चलता है, वह समझ ले कि तलवार की पैनी धार पर चल रहा है। सत्य बानी का प्रकाशन समाज में कोई भी करना चाहे, उसको प्रताड़ित किया गया। हो सकता गुरु बालक दास जी को भी इसी प्रकार से प्रताड़ित किया गया हो। प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा हो। खरी-खरी कहने वाले कबीर के ऊपर कितने… वह सिकंदर लोदी के गुरु शेख तकी ने उनके ऊपर बावन बार निशाना साधा, लेकिन वे खरे उतरे। देखिए कि उन्होने तो मुल्लाओं को भी नहीं बक्शा है–
कांकर पाथर जोड़के मस्जिद लियो बनाय,
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।
जिस समय एकछत्र मुसलमान शासन था देश में। उस समय मस्जिद में जाकर कबीर साहेब ने ऐसा कहा कि ‘कांकर पाथर जोड़के मस्जिद लियो बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय’। तुम्हारा खुदा बहरा हो गया है क्या जो जोर-जोर से चिल्ला रहे हो। लेकिन आज अल्पसंख्यक मुसलमान होते हुए भी कोई मस्जिद में जाकर ऐसा कह सकता है क्या? उसका सिर कलम कर दिया जाएगा। तो ऐसे रहे कबीर साहेब। कबीर साहेब की छाप गुरु घासीदास पर पड़ी है और इसलिए उनको भी प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ा।
लेकिन मैं यह देख रहा हूं कि गुरु पद को लेकर अभी भी विवाद है। इसकी वजह क्या है?
वे कबीर साहेब और गुरु घासीदास जी को समझ नहीं पाए हैं। अपने आपको गुरु घासीदास के पंथ का धर्माचार्य बता रहे हैं। अपने आपको कबीरपंथ को पंथाचार्य बता रहे हैं। लेकिन कबीर की बानी को हृदय में नहीं रखा है इन लोगों ने। कबीर साहेब ने अपने जीवन में दास शब्द का उपयोग किया है– रोवैं दास कबीरा होय। मने [मतलब] हर जगह दास। अपने आपको जुलाहे का बेटा कहा। अपने आपको कितना विनम्र साबित किया। लेकिन उनके ही पंथ में जो धर्माचार्य हैं कभी खुद को पंथरी कहते हैं, कभी हुजूर तो कभी एक सौ आठ, एक हजार आठ आदि दुनिया भर की चीजें लिख रहे हैं। इनलोगों ने कबीर साहेब और गुरु घासीदास जी को समझा नहीं हैं।
ये कौन लोग हैं जो गुरु के पद पर कब्जा करना चाहते हैं? क्या ये ऊंची जाति के लोग हैं?
कबीर के नाम पर और गुरु घासीदास जी के नाम पर ये लोग अपनी रोटी सेंक रहे हैं। अपना बिजनेस चला रहे हैं। कबीर को किनारे पर छोड़ दिए हैं और अपने विचारों को समाज में प्रेषित कर रहे हैं। ऐसा भी कह सकते हैं।
इससे सतनामी पंथ को काफी नुकसान पहुंच रहा है, ऐसा आपको नहीं लगता है?
बिल्कुल नुकसान पहुंचता है। सतनामी समाज को देखिए … मैंने कई बार कहा हमारे गांव के जो सतनामी समाज के प्रमुख लोगों को कि इतने बड़े सत्यवेत्ता गुरु घासीदास जी की जयंती आप लोग मनाते हैं, लेकिन घासीदास जी के नाम पर पच्चीस हजार-पचास हजार के नाटक-नौटंकी लाते हैं, लेकिन किसी एक सत्यवेत्ता को बुलाकर एक घंटे का प्रवचन नहीं कराते। उनसे हर साल यही बात कहता हूं। लेकिन लोग उसी ढर्रे पर चले जा रहे हैं और लेबुल गुरु घासीदास जी का लगाए हैं। घासीदास जी ने तो ऐसा कभी नहीं कहा।
अभी एक और विकृत्ति देखने में आ रही है जो पंथीय नृत्य हैं और जो पंथीय गीत हैं उनमें हिंदू धर्म की कुछ पात्र, कहानियां भी जोड़ दी जा रही हैं।
देखिए, नृत्य और पंथीय गीत के माध्यम से गुरु घासीदास जी ने अपना जो प्रचार-प्रसार किया है, वही पूर्व में सौ साल तक के उसी रूप में बढ़िया चला। कालांतर में उस पंथीय गीत में और पंथीय नृत्य में विसंगतियां आईं। ठीक इसी प्रकार से कबीर साहेब की भी बानी में धीरे-धीरे मिलावट आती गई। कबीर साहेब ने अपनी बानी में जो विचार कहे और जिस विचार का प्रचार-प्रसार होता रहा और लोग उस पर चलते रहे, लेकिन उसमें धीरे-धीरे विसंगतियां आईं। यह तो नियति का सिद्धांत है। ऐसा ही सतनामी पंथ में भी हुआ है।
इसके लिए दोषी किसको मानते हैं, क्योंकि गुरु घासीदास जी के बाद उनके सब चीजों का दस्तावेजीकरण तो होता रहा कबीरदास के समय में तो ऐसा नहीं था, लेकिन गुरु घासीदास जी के समय में तो चीजों को लिखने का उपाय था फिर ऐसा कैसे हो गया?
समरथ को नहीं दोष गोसाईं। सतगुरु कबीर को और गुरु घासीदास जी का इसमें क्या दोष। हम मत मान्यता वाले हैं न तो हमारे में जो पंथाचार्य बने हुए हैं, उनके ऊपर दोषारोपण किया जा सकता है, क्योंकि कबीर कुछ कह रहे हैं और आप कुछ और कह रहे हैं। इसलिए विसंगतियां आ रही हैं।
सतनामी पंथ से जुड़े हुए लोगों में हिंदू धर्म के प्रति झुकाव बढ़ता जा रहा है। इसे आप किस रूप में देख पा रहे हैं?
यह ऐसा है कि सतनामी हों या कबीरपंथी हों, अगर वह विदेश में जाएगा तो अपने आपको मैं सतनामी हूं नहीं कहेगा, मैं हिंदू हूं, हिंदुस्तानी कहेगा। और एक मुसलमान भी अगर विदेश जाएगा तो मैं मुसलमान हूं नहीं कहेगा, वह भी अपने आपको हिंदुस्तानी कहेगा। जो सिंधु नदी के किनारे रहते थे, उनके लिए हिंदू शब्द का उपयोग किया गया है। यह फारसी का शब्द है, जिसमें स को ह कहा जाता है। हिंदुस्तान वहीं से बना है। तो हिंदू किसी खास धर्म का शब्द नहीं है। जो हिंदुस्तान में रहता है, वह हिंदू है। फिर चाहे वह किसी मजहब को मानता हो या किसी भी पंथ को मानता है।
मैं अपने सवाल को बदलता हूं। जो सतनामी समाज के लोगों का झुकाव सनातन प्रथाओं की तरफ बढ़ रहा है।
जिसको जीवन भर सतगुरु कबीर साहेब और गुरु घासीदास जी ने छुआ तक नहीं, आजीवन खंडन करते रहे और सत्य का अन्वेषण करते रहे, उसी को आज हम सब कर्मकांड के रूप में अपना रहे हैं। हम चौका-आरती करते हैं। चौका-आरती करना भी कर्मकांड ही तो हुआ। इसी प्रकार से सतनामी समाज में भी आ रहा है। देखिए साहब जी, मन का स्वभाव और जल का स्वभाव नीचे की ओर जाना है। जल को अगर ऊपर टंकी में चढ़ाना हो टुल्लू पंप लगाएंगे तभी ऊपर चढ़ेगा। ठीक इसी प्रकार से मन को भी उर्ध्वगति में ऊपर चढ़ाने के लिए – सत्संग, स्वाध्याय और साधना – इन तीन चीज की आवश्यकता होगी। इसकी समाज में आज कमी है। इसीलिए लोग कर्मकांड की ओर बढ़ रहे हैं। जगह-जगह वही दिखाया जा रहा है। ब्राह्मणवाद चल रहा है। सब इसी फेर में हैं कि क्यों न हम भी अपना रोटी सेंकें।
मतलब यह रोटी सेंकने की बात है?
सभी अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। अपना एक प्रकार से व्यवसाय चला रहे हैं। अगर कहीं कबीर की सही बानी को या गुरु घासीदास जी की सही बानी को समाज में प्रेषित कर दूंगा तो मेरा तो धंधा बंद हो जाएगा, ऐसा भी मन में भाव बना लिए हैं और कबीर साहेब को और गुरु घासीदास जी को किनारे छोड़ दिए हैं।
सतनामी समाज का विस्तार हो, इसके लिए रास्ते क्या होने चाहिए?
किसी का टूटे चाहे, किसी का फाटे। कबीर ने गुरु घासीदास जी ने जो बानी आज से पांच सौ साल पहले और दो सौ साल पहले कही है, उसी बानी को लेकर आगे बढ़ें तभी समाज परिष्कृत हो सकता है।
संदर्भ –
[1] निगम अगम साहेब सुगम, राम सांचिली चाह।
अंदु असन अवलोकिअत, सुलभ सबै जग माह॥
(संदर्भ : तुलसीदास, दोहावली, गीताप्रेस, गोरखपुर, पृ. 36)