सत्येंद्र रंजन
क्या नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में शासन करने के लिए लगातार तीसरा कार्यकाल मिलेगा? यह सवाल इस समय लगभग सभी जागरूक भारतवासियों के मन में सर्वोपरि है- और ऐसा होना उचित भी है।
वर्तमान सरकार के दस साल के लगातार शासन के बाद सत्ताधारी जमात की वास्तविक सोच और एजेंडे से वे लोग भी भलीभांति परिचित हो चुके हैं, जो अपने अज्ञान में कभी यह मान बैठे थे कि भाजपा के पास विकास का कोई खास एजेंडा है। 2014 में मोदी के नेतृत्व में नए तेवर के साथ चुनाव मैदान में उतरी भाजपा ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे पर विकास का कवर चढ़ा कर उसे मतदाताओं के सामने पेश किया था। इसे ‘हिंदुत्व प्लस’ के नाम से जाना गया था।
कॉरपोरेट मीडिया के जरिए कथित गुजरात मॉडल के धुआंधार प्रचार के कारण बहुत से लोग यह मान बैठे थे कि मोदी हिंदुत्व के साथ-साथ उस प्लस के भी वाहक हैं, इसलिए अब सचमुच ‘अच्छे दिन’ आएंगे। 2019 तक विकास का लबादा तो काफी हद तक उतर चुका था, लेकिन हिंदुत्व के जोश और लाभार्थी की नई संस्कृति के जोरदार प्रचार ने मोदी ब्रांड की तरफ 2014 की तुलना में भी कहीं ज्यादा मतदाताओं को आकर्षित किया। तब तक ‘अच्छे दिन’ को लेकर मायूसी जरूर थी, लेकिन बहुत से मतदाताओं की निगाह में संभावनाएं अभी पूरी तरह चूकी नहीं थीं।
2014 की ‘मोदी लहर’ तैयार करने में कुछ स्वार्थी लोगों- खासकर ऐसे बुद्धिजीवियों ने भी बड़ा योगदान किया, जिनकी महत्त्वाकांक्षाएं पुरानी सरकार के समय पूरी नहीं हो सकी थीं। साथ ही जो कुछ वो, जो एक ओबीसी नेता के सबसे अहम पद पर पहुंचने में एक ‘सामाजिक क्रांति’ देख रहे थे। फिलहाल ऐसे लोगों की चर्चा हम छोड़ देते हैं, क्योंकि वे जो कुछ करते हैं, जानबूझ कर करते हैं। जबकि नाजानकारी या विश्लेषण क्षमता कम होने के कारण जो लोग प्रचार से भ्रमित हो जाते हैं, उन्हें अलग श्रेणी में रखा जाना चाहिए। चुनावी नतीजे तय करने में ऐसे लोगों के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। सियासी बोलचाल में इन लोगों को फ्लोटिंग वोट कहा जाता है। क्या 2024 के आम चुनाव का परिणाम तय करने में ऐसे ही लोगों की भूमिका निर्णायक होगी?
गौरतलब है कि 2024 का आम चुनाव आते-आते मोदी और उनकी भाजपा ने विकास या लाभार्थी जैसी बातों को अपने अभियान में हाशिये पर धकेल दिया है। बल्कि अब मोदी खुलेआम कल्याण योजनाओं का मखौल उड़ा रहे हैं, आर्थिक गैर-बराबरी का महिमामंडन कर रहे हैं, और उनकी सरकार की मिलीभगत से जिन क्रोनी उद्योग घरानों ने अर्थव्यवस्था पर अपनी मोनोपॉली कायम कर ली है, उन्हें वेल्थ क्रियेटर (धन निर्माता) बताकर उनका वे महिमामंडन कर रहे हैं।
क्या ऐसा करने के पीछे एक कारण उनका यह आत्म-विश्वास है कि अब हिंदुत्व का एजेंडा मतदाताओं के एक बहुत बड़े वर्ग के मन इस हद तक उतर चुका है कि उनके लिए कोई दूसरी बात अहम नहीं रह गई है। यानी हिंदुत्व का वोट बैंक इतना सघन है कि जन कल्याण की सोच के खिलाफ मुहिम चलाकर भी भाजपा चुनाव जीत सकती है?
भाजपा नेतृत्व में पैदा हुए इस यकीन की कई ठोस मिसालें हैं। मसलन,
- 2023-24 के बजट और 2024-25 के अंतरिम बजट में मोदी सरकार ने लोक-लुभावन योजनाएं पेश करने की जरूरत महसूस नहीं की। जबकि आम रुझान यह रहा है कि चुनाव से पहले के अंतिम बजट में सरकारें ऐसी योजनाओं की बौछार लगा देती हैं।
- दरअसल, इन दोनों मौकों पर मोदी सरकार ने जन कल्याण की योजनाओं के लिए आवंटन में भारी कटौती की। वैसे इस कटौती का सिलसिला इस सरकार ने सत्ता में आने के बाद ही शुरू कर दिया था, लेकिन दूसरे कार्यकाल का अंत आते-आते ऐसी योजनाएं आम बजट के हाशिये पर पहुंच गईं। (Welfare Spending in the Past Two Decades | The India Forum)
- प्रधानमंत्री मोदी ने कल्याण कार्यक्रमों और लोक-लुभावन योजनाओं के खिलाफ माहौल बनाने की शुरुआत चुनाव से लगभग दो साल पहले ही कर दी थी। ऐसी योजनाओं को उन्होंने ‘रेवड़ी’ बांटना बताया। उनकी समझ में ‘रेवड़ियां’ बांटना ‘विकास’ में रुकावट डालना है, जो देश के दीर्घकालिक हितों के खिलाफ है।
यह बात वे चुनाव अभियान के बीचो-बीच टीवी चैनलों से बातचीत में दो टूक कह रहे हैं।
- एक टीवी चैनल के चार अनुकूल पत्रकारों से बातचीत में मोदी ने महिलाओं को फ्री बस यात्रा की सुविधा देने के कुछ राज्य सरकारों के फैसलों पर हमला बोला। इसे उन्होंने मेट्रो ट्रेन सेवाओं में यात्रियों की कमी की वजह बताया। कहा कि इस कारण पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले परिवहन को बढ़ावा मिल रहा है। पूछा कि यह नजरिया रहा, तो देश का विकास कैसे होगा?
(https://x.com/newt0nlaws/status/1791133446389281034)
- (अगर यह टीम अनुकूल पत्रकारों की नहीं, बल्कि वास्तविक प्रश्न पूछने वाले पत्रकारों की होती, तो वह तुरंत जवाबी सवाल दाग सकती थी कि जिन राज्यों में ऐसी योजनाएं नहीं हैं, वहां मेट्रो में यात्रियों की संख्या कम क्यों है? अभी हाल ही में आईआईटी-दिल्ली के एक अध्ययन से सामने आया था कि भारत में मेट्रो ट्रेनों में कुल यात्री क्षमता की तुलना में औसतन आधी जगहें खाली रहती हैं।
वे पत्रकार यह भी पूछ सकते थे कि क्या मेट्रो और बसों के रूट समान होते हैं और क्या इन दोनों से सफर करने वाले यात्रियों का प्रोफाइल एक जैसा होता है? आम समझ यह है कि ये दोनों तरह के वाहन एक दूसरे के पूरक हैं। फिर पूछा यह भी जा सकता था कि क्या दुनिया में कोई ऐसा देश है, जिसने मेट्रो और बस के बीच अंतर्विरोध की समझ के आधार पर सार्वजनिक परिवहन को आकार दिया हो?)
- भारत में अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई अब अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय है। हाल ही में फ्रांस स्थित इनइक्विलिटी लैब ने भारत की भयावह तस्वीर पेश करते हुए इस बारे में एक बहुचर्चित रिपोर्ट पेश की है। जब अनुकूल पत्रकारों ने इस ओर ध्यान खींचा कि देश में यह खाई बढ़ रही है, तो प्रधानमंत्री ने जवाबी सवाल दागा- तो क्या सभी गरीब हो जाएं!
(https://x.com/newt0nlaws/status/1791116596792176890)
(तो इस अति गंभीर प्रश्न पर प्रधानमंत्री का ऐसा अपमान भरा और हलका नजरिया है। अनुकूल पत्रकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिलाया कि यह सवाल आज दुनिया भर में चिंता और चर्चा का विषय है। उन देशों में भी जिन्हें पूंजीवाद का गढ़ या मुख्यालय कहा जाता है। और आईएमएफ जैसी वे अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी इससे चिंतित हैं, जो नव-उदारवादी नीतियों को फैलाने की औजार रही हैं।)
- मोदी के सामने यह आरोप भी रखा गया कि उनकी सरकार कुछ उद्योगपति घरानों के फायदे लिए काम करती है। सवाल को इस रूप में रखा गया कि उनकी सरकार की अंबानी-अडानी घरानों से करीबी को राहुल गांधी ने मुद्दा बनाया है। इस पर मोदी ने पहले तो राहुल गांधी का मखौल उड़ाया, और फिर कहा- ‘वेल्थ क्रियेटर देश का गौरव हैं। उनका सम्मान होना चाहिए। उन्हें फूलने-फलने का सही वातावरण मुहैया कराने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं।’ मोदी ने कहा कि वे इसे छिपाते नहीं, बल्कि इस बात को खुलेआम लाल किला से कहते हैं।
(तो प्रधानमंत्री को यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि उनकी सरकार अर्थव्यवस्था में मोनोपॉली कायम करने में सहायक बनी है। बल्कि वे इसे सही नीति मानते हैं)
मोदी की इस समझ और इससे प्रेरित उनकी सरकार की नीतियों के कारण देश में आज व्यापक रूप से आर्थिक बदहाली का आलम है। इसका असर सामाजिक और मानव विकास के सूचकांकों पर भी पड़ा है। इसके बावजूद वर्तमान चुनाव के लिए भाजपा ने ‘विकसित भारत’ की कहानी तैयारी की और उसके आधार पर लगातार तीसरा जनादेश मांगने के लिए चुनाव मैदान में उतरी। मगर यह नारा परवान नहीं चढ़ा, क्योंकि इसका आम मतदाताओं के अपने रोजमर्रा के तजुर्बे से कोई रिश्ता नहीं है। नतीजतन, पहले चरण के मतदान के बाद भाजपा नेताओं ने इसकी चर्चा रोक दी।
उससे पैदा हुए खालीपन को मोदी और उनके साथी नेताओं ने ‘हिंदू-मुस्लिम’ के नैरेटिव से भरा है। इस तरह कहा जा सकता है कि मोदी ने ‘हिंदुत्व प्लस’ के प्लस को दरकिनार करते हुए सिर्फ ‘हिंदुत्व’ पर अपने चुनाव अभियान को टिका दिया है। उस प्लस की कमी पूरी करने के लिए उन्हें ‘हिंदुत्व’ को अधिक तीखा और आक्रामक बनाना पड़ा है। यह रणनीति कितनी कारगर है, फिलहाल यह मापने का कोई पैमाना मौजूद नहीं है, अतः इसके लिए हमें चार जून तक इंतजार करना होगा। उस रोज हमें पता चलेगा कि मोदी के नेतृत्व में ‘हिंदुत्व’ के ठोस रूप लेने (consolidation) की प्रक्रिया अब राजनीतिक बहुमत जुटाने की हद तक सक्षम हो गई है या नहीं?
इसे परखने का एक पैमाना भाजपा का वोट प्रतिशत होगा। क्या वह विभिन्न राज्यों में 2019 के अपने वोट प्रतिशत की रक्षा कर पाएगी? क्या वह वोट प्रतिशत को बढ़ाने में सफल होगी या उसके वोट प्रतिशत में उल्लेखनीय गिरावट आएगी? इस सूचना से भारत का निकट भविष्य तय होगा। अगर हिंदुत्व एक चुनाव जिताऊ एजेंडा बन चुका है, तो फिर इस देश का कैसा भविष्य होने वाला है, इस पर विचार करने का वक्त आ गया है।
राजनीति-शास्त्रियों ने भाजपा के देश की प्रमुख राजनीति धुरी बनने की प्रक्रिया को समझने की कोशिश में बताया है कि इसके प्रमुख रूप से तीन दौर रहे हैं।
- 1989 से 1992 के बीच भाजपा बाबरी मस्जिद मुद्दे को केंद्र में रखकर उग्र हिंदुत्व की रणनीति के साथ आगे बढ़ी।
- 1996 के चुनाव में जब उसकी राजनीतिक सीमाएं सामने आईं, तो पार्टी ने “मुख बनाम मुखौटे” की रणनीति अपनाई। अटल बिहारी वाजपेयी के कथित उदार और नरम चेहरे को हिंदुत्व का मुखौटा बनाया गया। इस रणनीति से पार्टी को गठबंधन सहयोगी जुटाने और ‘सेकुलर’ दलों की सिद्धांतहीनता को बेनकाब करने में कामयाबी मिली। कुछ विश्लेषकों की राय है कि इसमें मिली तात्कालिक सफलता से भाजपा में यह भरोसा बन गया कि हिंदुत्व का अंडरकरंट समाज में प्रभावी हो चुका है। इसे पृष्ठभूमि में रखते हुए अब विकास के एजेंडे का मुखौटा पहन कर पार्टी सत्ता में बनी रह सकती है। इसलिए इंडिया शाइनिंग और फील गुड फैक्टर के कथानक गढ़े गए। (Suhas Palshikar writes: BJP’s electoral pitch shows duality, not inconsistency | The Indian Express).
लेकिन इस भरोसे का तब तक आधार मजबूत नहीं था। नतीजतन, 2004 से 2014 के आम चुनाव तक भाजपा को सत्ता से बाहर रहना पड़ा।
- इस बीच गुजरात में नरेंद्र मोदी हिंदुत्व प्लस की रणनीति का चेहरा बनकर उभरे। 2014 में इसके जरिए उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पार्टी के लिए चुनावी बहुमत जुटाया। मगर दस साल के शासन काल में उन्होंने उस प्लस को गंवा दिया है। संभवतः इसलिए कि वह एक बनावटी कहानी था। ना तो गुजरात में उस कथित प्लस से आम जन के जीवन पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा था, और ना ही गुजरे दस साल में देश के स्तर पर ऐसा हुआ है। तो अब उन्होंने अपनी पार्टी की रणनीति को पूरी तरह उग्र और तीखे हिंदुत्व पर केंद्रित कर दिया है। अब हिंदुत्व अंडरकरंट नहीं, बल्कि ओवर कैंपेन का हिस्सा है।
बेशक 2004 से 2024 के बीच देश के राजनीतिक एवं वैचारिक वातावरण में गुणात्मक बदलाव आया है। इसलिए संभव है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा सिर्फ हिंदुत्व के जरिए विजयी होकर उभरे। ऐसा हुआ, तो आम जन के लिए उसका क्या परिणाम होगा, उसका ठोस अनुमान प्रधानमंत्री की उपरोक्त उक्तियों के आधार पर लगाया जा सकता है। एक वाक्य में कहें, तो उसका अर्थ होगा- आम जन की बदहाली का और बढ़ना। उसके बाद शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक परिवहन और सर्व सुलभ इन्फ्रास्ट्रक्चर का सपना भी दूभर हो जाएगा।
चूंकि इस बार प्रधानमंत्री ने गैर-बराबरी और जन कल्याण जैसे सवालों पर भी हिंदू-मुसलमान का मुद्दा बना दिया है, तो उनकी अगली जीत का मतलब सामुदायिक वैमनस्य एवं सामाजिक तनाव में बढ़ोतरी के रूप में भी देखने को मिल सकता है। कुल मिलाकर संदेश यह है कि भारत की बहुसंख्यक आबादी के लिए यह सोचने का वक्त आ गया है कि भारत में उनका और उनकी अगली पीढ़ियों का भविष्य क्या होने वाला है?