डॉ. विकास मानव
_जी हां ! जो कहते हैं, ‘सोचने से कुछ नहीं होता ‘ वो जड़ हैं, चेतन नहीं_
सोचिये! जो चाहिए, मिलेगा। ये हमारा एक नहीं, कई बार का अनुभव है। सोचिये,आप को भी मिलेगा: न मिले तो हमें बताइए।
*लेकिन :*
सच में सोचिये! बेईमानी से नहीं, ईमानदारी से सोचिये: पूरी सिद्दत से सोचिये।
*एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाए।* कबीर के इस सूत्र को ध्यान में रखकर सोचिये। जो चाहते हो, सिर्फ़ उसी को सोचिये: बकी सब कूड़े में डालिए।
_*इच्छा को अभिप्सा बनाइए:* उसकी पूर्ति के लिए ही जीना-मरना तय कीजिए। यानी मंजिल स्वीकारिए उसे: जीवन- मरण का मुद्दा बनाइए उसे।_
*चाह को राह मिलती है, राह मंजिल देती है।* जो आपकी मंजिल है, उसे पूरी सिद्दत से ‘चाहिए’ आप। पूरी कायनात सपोर्ट करने को आमादा होगी: माध्ययम भी देगी।
*मनोविज्ञान का भी सूत्र है :*
_जो जैसा सोचता है, वैसा करने को उद्धत होता है और वैसा ही बन जाता है।_
*विषय~ विश्लेषण :*
मन में जो बात पूर्ण विश्वास के साथ सोचकर बैठा ली जाय वह एक दिन अवश्य पूरी होती है.
मनःशक्ति के विषय में आज के मनो- वैज्ञानिक भी यही कह रहे हैं। अमेरिकी विश्वविद्यालय के डा. जे वी रिनेन जिन्होंने अतीन्द्रिय शक्तियों पर व्यापक कार्य किया है, अपने निष्कर्षों में पाया कि मानसिक चित्र एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क में भेजे जा सकते हैं।
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘The Reach of the Mind’ में मन की अपार शक्तियों का उल्लेख किया है और यह स्वीकार किया है कि मन में जो बात पूर्ण विश्वास के साथ सोचकर बैठा ली जाय, वह पूरी अवश्य होती है।
इसी बात को बाइबिल में बहुत पहले कहा गया था लेकिन तब उसे सत्य के रूप में स्वीकार करने का कोई वैज्ञानिक साधन नहीं था।
भादुड़ी महाशय ने कहा–इस कथन में एक बात जो गौर करने की है, वह है विश्वास और श्रद्धा की।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्राक्- काल से ही सत्यनिष्ठ महापुरुषगण यह कहते आये हैं कि श्रद्धा और विश्वास ही अध्यात्म विज्ञान के प्रथम सोपान हैं और उनके अभाव में अध्यात्म का द्वार खुलता ही नहीं।
महाकवि कालिदास ने कहा है–
*”भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ”।*
श्रद्धा साक्षात् महामाया पराशक्ति है और विश्वास है साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर रूप भगवान् शंकर।
अध्यात्म मार्ग पर चलने के पूर्व ही मेरी अन्तरात्मा में श्रद्धा और विश्वास के बीज अंकुरित हो चुके थे–इसमें सन्देह नहीं।
दोनों स्तर के सूक्ष्म शरीरों और जगतों पर मेरा अधिकार तो हो ही चुका था और अब मैं प्रयासरत था तीसरे स्तर के सूक्ष्मशरीर पर अधिकार प्राप्त करने की दिशा में। यहां यह जान लेना आवश्यक है कि तीसरे स्तर का सूक्ष्मशरीर मनोमय शरीर के अति निकट है।
इसलिए सूक्ष्म शरीर पर अधिकार प्राप्त करने के लिए विशेष् यौगिक क्रिया द्वारा प्राण और मन की एकता स्थापित करना आवश्यक होता है। अर्थात् प्राण का विलय मन में और मन का विलय प्राण में सम्पन्न होने पर साधक को अपने मनोमय शरीर की झलक मिलने लगती है।
इसी प्रकार और आगे बढ़ने पर उसी मनोमय शरीर में उसको अपने विज्ञानमय शरीर का भी बोध होने लगता है।
थोड़े ही समय में तीसरे स्तर के सूक्ष्मशरीर को उपलब्ध् हो गया मैं जिसे योग की भाषा में ‘कारण शरीर’ कहते हैं। मेरी आत्मा जब कारणशरीर में प्रविष्ट हुई तो उस समय सच कहता हूँ कि एक ऐसे नैसर्गिक आनंद की अनुभूति हुई कि जिसको बतला सकना मेरे लिए अति कठिन है बन्धु। शब्दकोष में ऐसा कोई शब्द ही नहीं है उस परमानन्द के भाव को व्यक्त करने के लिए।
मेरे कारणशरीर का वर्ण अत्यन्त चमकीला शुभ्र था। उसकी अपनी गति थी और था उसका अपना समय जो भौतिक स्तर के समय से बिलकुल भिन्न था। कुछ ही क्षणों के पश्चात मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मेरी विचारशक्ति भी असाधारण रूप से बढ़ गयी है।
उसका अनुभव मुझे उस समय हुआ जब मैंने विचार किया कि किसी शान्त, एकान्त और रमणीक स्थान पर मुझे होना चाहिए और यह विचार उत्पन्न होते ही उसीके अनुरूप तत्काल अपने आप को शान्त, एकान्त और रमणीक स्थान पर पाया मैंने।
घोर आश्चर्य हुआ मुझे। सुदूर तक फैला हुआ हराभरा मैदान था जिसके एक ओर विभिन्न प्रकार के हरे भरे वृक्षों की श्रृंखला थी और दूसरी ओर हरे, नील, पीले और भगवा रंग के पाषाण पर्वतों की रमणीक और मनमोहक घाटियां।
चारों ओर घोर निस्तब्धता बिखरी हुई थी और साम्राज्य था अपूर्व शांति के वातावरण का।
जब मैं चारों ओर सिर घुमा घुमा कर देख रहा था, उसी समय एक सुनहरा प्रकाशपुञ्ज मेरे सामने प्रकट हुआ। धीरे धीरे उसमें से एक मानवाकृति उभरने लगी। दिव्य कैवल्य की थी वह मानवाकृति। आप यहां ?–मैंने आश्चर्य व्यक्त किया फिर मेरे मुख से निकला–आप !
दिव्य कैवल्य थोड़े मुस्कराए और बोले–आपकी साधना को देखते हुए मैं समझ गया था कि किसी न किसी दिन आप कारण शरीर को उपलब्ध् हो जायेंगे और सर्वप्रथम ऐसे ही किसी रमणीक स्थान की कल्पना करेंगे। थोड़ा रुककर दिव्य कैवल्य आगे कहने लगे–जिसे हम कल्पना कहते हैं और उसका जो अर्थ निकालते हैं, वैसा कुछ भी नहीं है।
कल्पना कहीं न कहीं अपने यथार्थ रूप में विद्यमान रहती है, भले ही उसका यह यथार्थ रूप लौकिक जगत् में हो या हो किसी पारलौकिक जगत् में। आपने- अपने विचारों में जिस स्थान की कल्पना की थी, वह स्थान यही है जो पृथ्वी की कक्षा के अन्तर्गत उसके सूक्ष्मतम भाग् में अवस्थित है। यह और ऐसे अनेक रमणीक सुन्दर आनंदमय स्थान हैं जो पृथ्वी पर ही हैं लेकिन वे चर्मचक्षु से परे हैं जिनको वही देख सकता है जो दिव्यदृष्टि संपन्न है और दिव्यदृष्टि संपन्न वही हो सकता है जो कारणशरीर को उपलब्ध् हो चुका हो।
यह सुनकर घोर आश्चर्य हुआ मुझे। उस अनिर्वचनीय अवस्था में सोचने लगा मैं–मनुष्य कितना छुद्र प्राणी है और कितना निरीह और असहाय है वह। उसकी बुद्धि, उसकी कल्पना और उसका ज्ञान कितना सीमित है !
वह कभी सोचने-समझने की कोशिश ही नहीं करता कि उसकी बुद्धि, उसकी कल्पना और उसके ज्ञान से परे भी बहुत कुछ है।
मेरा विचार भँग हुआ। दिव्य कैवल्य कह रहे थे–आइये, चलें अभौतिक सत्ता के वातावरण में। वहां उच्चकोटि के ज्ञान-विज्ञान की श्रेष्ठ आत्माएँ निवास करती हैं। उनकी अपनी ज्ञान-विज्ञान मण्डली है। उस मण्डली द्वारा आपकी अनेक जिज्ञासाओं का समाधान हो जायेगा–ऐसा मैं समझता हूँ।
दिव्य कैवल्य के साथ चल पड़ा मैं। वास्तव में विचारों और जिज्ञासाओं का सागर लहरा रहा था उस समय मेरे मन में। धर्म के प्रति, संस्कृति के प्रति, योग के प्रति और तंत्र के प्रति जिज्ञासाओं का लहराता एक सागर।
मैं यह जानता था कि भौतिक स्तर पर मेरी जिज्ञासाओं का समाधान सम्भव नहीं है। इसीलिए दिव्य कैवल्य की बात सुनकर आकुल हो उठा मैं ज्ञान-विज्ञान मण्डली से साक्षात्कार करने के लिए।
कुछ ही समय में दिव्य कैवल्य के साथ मैं एक ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ एक बहुत बड़ी झील थी और जिसमें पर्वतों के ऊपर से निकलकर पानी की एक काफी चौंडी निर्मल धारा गिर रही थी और जिसकी मधुर ध्वनि शान्त और निस्तब्ध वारावरण में गूंज रही थी। झील के चारों ओर विभिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्पों के छोटे छोटे घने पौधे थे जिनपर लाल, नीले और पीले रंग के और छोटे आकार के पक्षियों के झुंड कलरव कर रहे थे।
सचमुच बड़ा ही मनोरम और चित्ताकर्षक दिव्य स्थल था वह। ऐसा लगा कि जैसे स्वर्ग के किसी कोने में आ गया हूँ मैं।