अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

‘ये क्या जगह है दोस्तों..’नक्सलवादी/माओवादी आंदोलन की एक बृहद झलक दिखा देती है यह पुस्तक

Share

मनीष आजाद

भारत में क्रांतिकारी वाम 1947 में मिली आज़ादी को झूठी या औपचारिक मानता है. विडंबना यह है कि वरवर राव इस समय ऐसी ही झूठी या औपचारिक ‘आज़ादी’ में अपना जीवन बिताने को बाध्य हैं. कुख्यात ‘भीमाकोरेगांव’ केस में मेडिकल जमानत पर ‘रिहा’ होने के बाद जिन शर्तों को उनपर थोपा गया है, वह ऐसी ही झूठी आज़ादी है.

पिछले साल सेतु प्रकाशन से उनके लेखों का संग्रह ‘ये क्या जगह है दोस्तों..’ छप कर आया. भारत में मिथकों के माध्यम से अपनी बात कहने के भारी खतरे हैं लेकिन फिर भी कहना चाहता हूं कि महाभारत के युद्ध में जिस तरह कृष्ण के मुख में अर्जुन ने पूरे ब्रह्मांड का दर्शन कर लिया था, ठीक उसी तरह 335 पृष्ठों वाली यह पुस्तक पाठक को भारतीय नवजनवादी क्रांति, ठोस रूप में कहें तो नक्सलवादी/माओवादी आंदोलन की एक बृहद झलक दिखा देती है.

वरवर राव बहुत रोचक तरीके से बताते हैं कि जब भारत 1980 के दशक में राजीव गांधी के 21वीं सदी के नारे के साथ साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण की ओर अपने लंबे डग भर रहा था तो ठीक उसी समय चंद नौजवान अपने छोटे-छोटे कदमों से आज के बस्तर में प्रवेश कर रहे थे. उस वक़्त उन्हें इस बात का शायद ही अंदाजा होगा कि महज 20 साल के अंदर भारत का यह क्षेत्र (जिसे मीडिया ‘अबूझमाड़’ के नाम से जानता है) एक ‘एपिक स्ट्रगल’ की युद्धभूमि बनने जा रहा है, जिसमें एक तरफ मुनाफे और लालच में डूबी देशी-विदेशी कंपनियां और उनकी सेना होगी वहीं दूसरी ओर समतामूलक समाज का सपना लिए ‘भूमकाल’ और ‘स्पार्टकस’ के उत्तराधिकारी आदिवासी/माओवादी होंगे.

वरवर राव साफ-साफ लिखते हैं कि भारत के मध्य क्षेत्र में चल रहा युद्ध दरअसल दो व्यवस्थाओं का युद्ध है. साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण की मानव द्रोही व्यवस्था बनाम ‘मावा नाटे मावा राज’ यानी ‘हमारे गांव में हमारा राज’ की व्यवस्था जिसका वर्तमान रूप ‘जनतन सरकार’ है. वरवर राव बताते हैं कि यह क्रांतिकारी आंदोलन की ही देन है कि आज पूरे दंडकारण्य में एक भी आदिवासी/दलित भूमिहीन नहीं है. प्रत्येक परिवार के पास कम से कम 3 एकड़ जमीन है.

वरवर राव तेलगु के महत्वपूर्ण दलित लेखक ‘बोज्जा तारकं’ को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि क्रांतिकारी आंदोलन की ही यह देन है कि बस्तर में आपको हल चलाती महिलाएं और बीज बोते पुरुष मिल जाएंगे. ‘झूम खेती’ से ‘स्थायी खेती’ की तरफ़ आदिवासियों को लाने में माओवादी आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

यह क्रांतिकारी आंदोलन का शानदार प्रतिरोध ही है जिसके कारण ‘सलवा जुडूम’ जैसे बर्बर दमन और लाखों की फौज उतारने के बावजूद टाटा, एस्सार, मित्तल जैसी देशी विदेशी दैत्याकार कम्पनियां आज भी इस क्षेत्र में खनिजों का दोहन करने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं.

दंडकारण्य के सांस्कृतिक आंदोलन के बारे में इस किताब में काफी शानदार जानकारियां है. वरवर बताते हैं कि यहां से हिंदी, गोंडी, तेलगु व अन्य भाषाओं में करीब 24 पत्रिकाएं निकलती हैं. नाटक, कविताएं, कहानी व अन्य विधाओं में अनेकों प्रयोग हो रहे हैं. यह हिस्सा पढ़ते हुए बरबस फिलिस्तीन का ‘स्टोन थियेटर’ (फिलिस्तीनी बच्चों द्वारा इज़राइली टैंकों पर फेंके जाने वाले पत्थरों से यह नाम पड़ा) और ‘फ्रीडम थियेटर’ याद आ जाता है, जो वहां के ‘सांस्कृतिक इंतेफादा’ (Cultural Intifada) का ही हिस्सा है.

प्रेमचंद की एक कहानी है ‘अनमोल मोती.’ इसे उस वक़्त अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था. इसमें प्रेमचंद देशप्रेम में गिरे रक्त को दुनिया का सबसे अनमोल मोती साबित करते हैं. ‘ये क्या जगह है दोस्तों…’ पेज दर पेज इसी अनमोल मोती के रक्त से रंगी हुई है. चाहे ‘इन्द्रवेल्ली’ में किसानों/आदिवासियों का गिरा रक्त हो, चाहे दंडकारण्य के पहले शहीद ‘पेद्दीशंकर’ का रक्त हो, लालगढ़ के शहीद ‘लालमोहन टूडू’ का रक्त हो या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर कवि ‘केन सारो वीवो’ का रक्त हो. ये कहानियां एक तरफ हिंसा-अहिंसा की छद्म बहस का पर्दाफाश करती हैं, तो दूसरी ओर मजबूती से यह स्थापित करती हैं कि क्रांति के पौधे को कितनी शहादतों से सींचा जा रहा है.

वरवर राव ने आंदोलन के कुछ शानदार व्यक्तित्वों पर बहुत मन से लिखा है. ‘नारायन सान्याल’ की ‘विलियम हिंटन’ से मुलाकात का जिक्र है. रायपुर से गिरफ्तार लेखक ‘असित सेन गुप्त’ का जिक्र है. जब वरवर राव ‘असित सेन गुप्त’ से मिलने रायपुर जेल पहुंचे तो ‘असित सेन गुप्त’ जेल की अपनी परेशानियों की चर्चा करने की बजाय वरवर राव के हाथ में कागज का एक पुलिंदा पकड़ा देते हैं. ये ‘जोस् मारिया सिसान’ की कविताओं का हिंदी अनुवाद था. वरवर राव चकित हो जाते हैं. जेल में भी उन्होंने क्रांति का काम जारी रखा हुआ है.

2004 में माओवादी पार्टी के साथ आंध्र प्रदेश सरकार की बातचीत का भी इसमें दिलचस्प वर्णन है. जब माओवादियों ने आंध्र प्रदेश सरकार को राज्य में सीलिंग से ज्यादा जमीनों की लिस्ट सौंपी और इसे भूमिहीन गरीबों में बांटने की मांग की तो सरकार ने अचानक बातचीत तोड़ दी. वरवर राव बताते हैं कि इस लिस्ट में पहले नम्बर पर राज्य के मुख्यमंत्री ‘राजशेखर रेड्डी’ की जमीनें थी.

यह महत्वपूर्ण किताब हिंदी पाठकों और विशेषकर हिंदी के बुद्धिजीवियों के लिए बहुत जरूरी है. हिंदी का अधिकांश बुद्धिजीवी समाज कभी हिंसा-अहिंसा की आड़ में तो कभी ‘लाइन’ की आड़ में इस शानदार क्रांतिकारी आंदोलन की ओर पीठ किये खड़ा है.
‘नामदेव ढसाल’ की एक कविता में कहें तो अब समय आ गया है ‘हमें अपना मुख सूरज की ओर कर लेना चाहिए.’

इस महत्वपूर्ण किताब का सीधे तेलगु से हिंदी अनुवाद करके हिंदी पाठकों को समृद्ध करने के लिए तुषार कान्ति निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें