प्रतिभा नाथानी
1839 से 1842 के बीच चले अफगान-ब्रिटिश युद्ध में अफ़ग़ानिस्तान के शासक दोस्त मोहम्मद ख़ान के हार जाने से उन्हें देश निकाला हुआ। तब अपने परिवार समेत बादशाह मसूरी आ बसे थे। मसूरी की आबोहवा उन्हें बहुत पसंद आई, लेकिन खानपान में शामिल चावलों में अफ़गानी स्वाद और ख़ुशबू की कमी उन्हें रास ना आई।
इसे पूरा करने की मुराद से उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान से बासमती धान के बीज मंगवाकर मसूरी और दून घाटी के खेतों में डलवा दिए। अब यह मिट्टी का असर हो या चाहे फिर मौसम का कि वहां की बासमती यहां और ज़्यादा महकने लगी। स्वाद, आकार और ख़ुशबू बढ़ी तो बड़े स्तर पर खेती करने की संभावना भी बढ़ गई , और इस तरह देहरादून की बासमती की धाक देश-दुनिया में जम गई।
बासमती की तरह ही यहां की विश्व प्रसिद्ध चाय की कहानी भी विदेशी है । अंग्रेज जो पौधे अपने साथ लेकर आए थे, उन्हें यहां की हवा, पानी और मिट्टी ऐसी मन भाई कि देहरादून के आधे से अधिक भाग में चाय की खेती होने लगी। आम और लीची के बड़े-बड़े बगीचों के साथ-साथ गन्ना भी यहां प्रचुर मात्रा में उगाया जाता था।
सन 2000 में जब उत्तराखंड अलग प्रदेश बना तो पर्वतीय अंचलों की आबादी का सैलाब एकाएक राजधानी देहरादून में बहने लगा। आम के बगीचों पर दनादन कुल्हाड़ियां चलने लगीं। लीची के बाग आरियों से रेत दिए गए। चाय बागानों की जगह बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कर दी गईं । गन्ने के खेत रातों-रात साफ हो गए। इन सबका असर जलवायु पर पड़ा और बासमती धान ने अपनी गुणवत्ता खो दी। किसान क्या कर सकते थे ? उन्होंने बासमती वाले खेत बिल्डरों को बेचकर रुपयों की फसल उगानी शुरू कर दी।
देहरादून के पुराने मौसम को भी एसी और कूलर की हवा लग गई। जाने कहां ये खो गया है , जो इसे तलाशने अब दूरदराज के गांवों की सैर पर निकलना पड़ता है। पिछले बरस की एक शाम बासमती की वही चिर-परिचित ख़ुशबू नथुनों से जा लगी जब जौलीग्रांट एयरपोर्ट की तरफ़ एक गांव से लगी सड़क से गुज़र रही थी। मन एक दशक पहले की डगर पर कुलांचे भरने लगा। धान की सुनहरी बालियां लिए एक बड़ा सा खेत सामने था। हां ! यह वही धान था, जिसके किसी एक घर में पकने पर मोहल्ले भर में ख़ुशबू की दावत हो जाया करती थी ।
इस मौसम की असली धनक है ये महक। इसे चुराने को एक छोटा सा घर मैंने बना लिया है यहीं। घर के आसपास कुछ लीची, आम और कटहल के पेड़ उगाकर फिर पुराने मौसम को लौटाने की कोशिश करुंगी।