अग्नि आलोक
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*”यह कोई आंदोलन नहीं है, यह एक क्रांति है*”

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आंदोलन में जीत या हार होती है, परंतु क्रांति में केवल जीत या मृत्यु होती है।”*

*रचनाकारों की नजर में*          *(भाग- 4 )*

 *प्रोफेसर राजकुमार जैन*

प्रोफेसर रमा मित्रा, लोहिया की अंतरंग मित्र, निजी क्षणों की गवाह तथा साथ रहने के कारण, पल-पल की आंखों देखी लोहिया के आनंद और अवसाद के लम्हों को ज्यों का त्यों बयाँ करने की हकदार थी। अपने लेख में रमा जी ने अनेकों ऐसे अनछुए दृश्यों, अवसरों, घटनाओं को पेश किया है जिन्हें सिर्फ वे ही बता सकती थी। लोहिया शख्सियत की बहुत सारी खूबियां हमें कभी पढ़ने को नहीं मिलती, अगर रमा जी न लिखती। मुझे फख्र है कि मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग में उनका छात्र रहने तथा लोहिया की मृत्यु के बाद दिल्ली की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में कुछ वक्त के लिए उनकी रहनुमाई में काम करने का मौका भी मुझे मिला। उन्होंने अपने लेख “निर्णायक वर्ष -1967″ में चुनाव और लोहिया की भूमिका को हुबहू उतार दिया। लोहिया कन्नौज से खुद उम्मीदवार थे। लोहिया मुल्क भर में सोशलिस्ट उम्मीदवारों के लिए घूम-घूम कर प्रचार कर रहे थे, “मैंने (रमा मित्रा) उनसे कन्नौज को ज्यादा समय देने की विनती की – उन्होंने मुझे सख्ती से चुप करा दिया: “मत भूलो, मैं पार्टी के साथ -साथ विपक्ष के लिए भी लड़ रहा हूं और मुझे राजनीति मत सिखाओ।” फिर वे चले गए। शरीर पर बहुत भार पढ़ने से उनका स्वास्थ्य गिर रहा था।

 “अथक विद्रोही” की लेखिका उषा मेहता ने खुद आजादी की जंग मे जान जोखिम में डालकर विद्रोही की भूमिका निभाई थी। महात्मा गांधी ने 1942 में “करो या मरो का ” आव्हान हिंदुस्तानियों से कर दिया था। बड़े कांग्रेसी नेता पकड़े जाने पर जेलों में बंद थे। सुभाष बोस पहले जर्मनी बाद में जापान चले गए। उन्होंने दोनों जगह रेडियो से अंग्रेजो के खिलाफ ऐसे भाषण दिए कि हिंदुस्तानियों का खून खौल उठा। ऐसे हालात में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने हिंदुस्तान में ही भूमिगत “कांग्रेस रेडियो” चलाने का निर्णय किया। इस कार्य में उषा मेहता एक प्रमुख भूमिका निभा रही थी। डॉक्टर लोहिया तीखी, तमतमाती आवाज में अंग्रेज़ी राज को फटकारते थे, और उषा मेहता एक एंकर का रोल निबाहती थी। 5 महीने तक कांग्रेस रेडियो से जनता को उद्वेलित किया गया, परंतु मुखबिरी के कारण उषा मेहता पकड़ी गई । जब उन्हें पकड़ा गया तब रेडियो से वंदे मातरम् का गीत आ रहा था, बीच में ही ऐसी आवाज आई कि कोई दरवाजा तोड़ रहा है। पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर थाने में यातनाएं दी, यह जानने के लिए कि और नेता कहां है? उन्हें अधमरा कर राजद्रोह तथा सरकार उलटने की कोशिश का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया।

 लोहिया ने एक बार फिर प्रोफेसर कौशल्यानंद गैरोला की मदद से रेडियो चालू किया। तीसरी बार1944 में कांग्रेस रेडियो फिर शुरू किया गया।

 एक प्रतिबद्ध सोशलिस्ट, मुंबई विश्वविद्यालय की प्रोफेसर रही उषा मेहता ने बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी कांग्रेस रेडियो पर अपने भाषणों में दी थी। डॉक्टर लोहिया ने उस समय के आंदोलन पर कहा था, “यह कोई आंदोलन नहीं है यह एक क्रांति है। आंदोलन में जीत या हार होती है, परंतु क्रांति में जीत या मृत्यु होती है, क्योंकि इसमें कोई पीछे नहीं हटता है”

 उषा जी ने अपने स्मरण में 1942 के समय हिंसा बनाम अहिंसा पर डॉक्टर लोहिया के एक भाषण का जिक्र कर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रकाश डाला।

 “हमारा एक नया सिद्धांत है जो एक नई दुनिया का है, जहां कोई दूसरे को नहीं मारता या दूसरों का शोषण नहीं करता है; और एक नई दुनिया के लिए हम अपना रक्त देने को तैयार हैं। गंगा रक्त से बहेगी लेकिन यह भारतीय रक्त से बहेगी। हमने जो कुछ भी झेला है उसके बदले में हम दुश्मन के खून की एक बूंद भी नहीं मांगते हैं। — अहिंसक क्रांति में क्रांति उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि अहिंसा।

     लोहिया ने अपनी जिंदगी एक यायावर के रूप में गुजारी। इस सफर में उनका अनेकों अफलातून तथा सामने वाले को दोयम दर्जे का सिद्ध करने वाले लोगों से भी सामना हुआ, परंतु जो एक बार लोहिया के संपर्क में आया वह हमेशा के लिए लोहिया का प्रशंसक बन गया।

 ई नारायणन, जो पेशे से पत्रकार तथा ‘जनता’ (जो कि सोशलिस्टो का एक मुख्य पत्र बन गया) का संपादन भी उन्होंने किया। “राममनोहरः कुछ व्यक्तिगत संस्मरण” में लोहिया की मौलामस्ती की एक नजीर पेश करते हुए उन्होंने लिखा की 1947 में बिना बताए रात के 2:00 बजे कपड़ों की एक गठरी लिए लोहिया उनके घर पहुंच गए। लोहिया के कई रोमांचक किस्सों तथा गांधी जी के साथ उनके रिश्तो को उन्होंने अपने लेख में शब्द पहना दिये।

जेड ए अहमद, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के पोलितब्यूरो के सदस्य तथा ऑल इंडिया किसान सभा के महासचिव रहे थे। लोहिया से 1929 में पहली बार बर्लिन (जर्मनी) मैं तथा 1930 में इंग्लैंड में जब अहमद ‘लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ के छात्र थे तथा डॉक्टर लोहिया जर्मनी की होमबोल्ट यूनिवर्सिटी के छात्र थे वह अपने रिसर्च के सिलसिले में ब्रिटिश संग्रहालय पुस्तकालय में आए हुए थे तब उनकी मुलाकात हुई। जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद इलाहाबाद में कांग्रेस के हेड क्वार्टर में डॉक्टर लोहिया को विदेश विभाग तथा जेड ए अहमद को अर्थशास्त्र विभाग का सचिव बना दिया। सचिव पद से इस्तीफा देने के कुछ समय बाद वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। बाद में वह पूर्णतया कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय हिस्सेदारी निभाने लगे।

 अहमद ने अपने लेख ” लोहिया के साथ मेरे दिन” में उनके कार्यों तथा कांग्रेस के वामपंथी बनाम दक्षिण दक्षिणपंथी ग्रुपों, सोशलिस्टो कम्युनिस्टों के संबंधों का लेखा- जोखा प्रस्तुत किया है। और अंत में लिखा कि मेरी उनसे मुलाकात और बातचीत परस्पर स्नेह और सम्मान की भावनाए रखने वाले साथी की तरह हुई। विलिंगडन अस्पताल में जिंदगी मौत से संघर्ष करते हुए लोहिया ने जब प्यार से उनका हाथ छुआ, उनसे अलविदा कहते हुए मेरी आंखों मे आंसू छलक आए।

 सुगत दासगुप्ता ने “लोहिया और भारतीय बुद्धिजीवी” शीर्षक से ही स्पष्ट कर दिया कि लेख में उसकी विषयवस्तु, मजमून क्या होगा? लोहिया का बुद्धिजीवी जगत से रिश्ता, टकराव तथा उसके प्रभाव को ऐतिहासिक, सैद्धांतिक आधारों पर लंबान में विवेचना की है लोहिया ने जनता को लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा में दीक्षित करने के लिए एक ऐसे स्कूल की कल्पना की थी। हालांकि उनका सपना अभी तक पूरा नहीं हुआ।

 ‘राममनोहर लोहिया: एक प्रशंसा’ में गोपाल कृष्ण ने लोहिया की मार्फत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुए आंदोलन का सिलसिलेवार इतिहास ही दर्ज कर दिया। लोहिया की वैचारिक व निजी यात्रा के बहुत से पड़ावों का विस्तार से रेखांकन किया है। इसको किसी किताब का एक संक्षिप्त रूप भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

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 चित्र  : डॉ. राम मनोहर लोहिया, उषा मेहता और कांग्रेस रेडियो के इतिहास पर आधारित ‘ए वतन मेरे वतन’ फिल्म का पोस्टर।

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