शशिकांत गुप्ते
चुनाव की नाव में सवार उम्मीदवार,थाम कर विभिन्न चुनाव चिन्ह की पतवार, दलों के प्रमुख होते हैं, नैया के खेवनहार।
नैया पार लगेगी या नहीं यह चुनाव के नतीजे जिस दिन आएंगे,उस दिन ही पता चलेगा?
सभी अपने सियासी पैतरे आजमा रहें हैं।
स्वयं की लकीर बड़ी करने के बजाए दूसरों की लकीर पोंछ ने के लिए जांच एजेंसियों की आंच से प्रतिद्वंदी को झुलसाने प्रयास किया जाता है।
जिस पर जांच की आंच का उपयोग होता है,यदि वह शातिर खिलाड़ी हो तो, वह पाला बदल लेता है। पाला बदलते ही जांच की आंच का शमन हो जाता है।
समाचार माध्यमों में,जब किसी को खाली कुर्सियों को संबोधित करते हुए देखते हैं, तब गीतकार साहिर लुधियानवी रचित सन 1965 में प्रदर्शित फिल्म वक्त के गीत की पंक्तियों का स्मरण होता है।
जहाँ बस्ती थी खुशियाँ, आज हैं मातम वहाँ
वक़्त लाया था बहारें वक़्त लाया है खिजां
व्यवहारिक समझ का उपयोग करने पर ज्ञात होता है,झूठ के पांव नहीं होते हैं,झूठ पहले तो बहुत तेज दौड़ने की कोशिश करता है,और भ्रमवश कुछ हद तक सफल भी हो जाता है।
लेकिन जब भ्रम टूटता है, तब अपंग झूठ, लखड़ाने लगता है,और जोर से औंधे मुंह गिर जाता है। औंधे मुंह गिरने से उसकी ज़बान हकलाने लगती है और वह शब्दों के उच्चारण स्पष्ट रूप से कर ही नहीं पाता है।
बहरहाल मुद्दा है, नैया में सवार को पार लगाने का?
खेवनहार अपने खेमे की नाव में सवार किए गए लोगों येनकेनप्रकारेण पार लगाने के लिए साम-दाम- दंड और भेद इन चारों “अ”नीतियों का उपयोग करते हैं।
कोई लाख करें चतुराई रे, करम का लेख मिटे ना रे भाई
इस संदर्भ में वक़्त फिल्म के गीत की निम्न पंक्तियां भी एकदम प्रासंगिक हैं।
वक़्त की गर्दिश से है, चाँद तारों का निजाम
वक़्त की ठोकर में है क्या हुकूमत क्या समाज
इसी गीत की निम्न पंक्तियों में हिदायत है।
आदमी को चाहिए वक़्त से डर कर रहे
कौन जाने किस घडी वक़्त का बदले मिजाज़
नैया खेने वालें खेवनहार,कितने ही निपुण हो, लेकिन यदि वक़्त का मिजाज़ बदलता है,तो नतीजा गीतकार शकील बदायुनी रचित निम्न पंक्तियों जैसा भी हो सकता है।
दिखला के किनारा मुझे मल्लाह ने लूटा
कश्ती भी गई, हाथ से, पतवार भी छूटा
समझने वालों के लिए इतना ही पर्याप्त है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर