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ध्यान : सरल मुद्रा द्वारा दोनों कांखों के बीच वक्ष-स्थल में केंद्रीयकरण से रूपांतरण

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डॉ. विकास मानव
डायरेक्टर : चेतना विकास मिशन

_यह ध्यानविधि चमत्कारिक ढंग से काम करती है. किसी भी आरामदेह मुद्रा में बैठ जाओ, जो आसान लगे. आराम से कुर्सी पर भी बैठ सकते हो। बस शरीर एक विश्रांत अवस्था में होना चाहिए।_
   अपनी आंखें बंद कर लो. सारे शरीर को अनुभव करो। पैरों से शुरू करो, महसूस करो कि उनमें कहीं तनाव तो नहीं है।
  _यदि लगे कि तनाव है तो एक काम करो: उसे और तनाव से भर दो। यदि लगे कि दाहिने पाँव में तनाव है तो उस तनाव को जितना सघन कर सको,उतना सघन करो। उसे एक शिखर तक ले आओ, फिर अचानक उसे जितना सघन कर सको उतना सघन करो। उसे एक शिखर तक ले आओ। फिर अचानक उसे ढीला छोड़ दो। ताकि यह महसूस कर सको कि कैसे वहां विश्राम उतर रहा है।_

  फिर पूरे शरीर में देखते जाओ कि कहां-कहां तनाव है। जहां भी लगे कि तनाव है उसे और गहराओ, क्योंकि तनाव सघन हो तो विश्राम में जाना सरल है। आधे-अधूरे तो यह बड़ा कठिन है, क्योंकि उसे महसूस ही नहीं कर सकते। एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत सरल है। क्योंकि एक अति स्वयं ही दूसरी अति पर जाने के लिए परिस्थिति पैदा कर देती है।
   _तो चेहरे पर अगर कोई तनाव महसूस करो तो चेहरे की मांस पेशियों को जितना खींच सको खीचों। तनाव को एक शिखर पर पहुंचा दो। उसे ऐसे बिंदु तक ले आओ जहां और तनाव संभव ही न हो। फिर अचानक ढीला छोड़ दो। इस तरह से देखो कि शरीर के साथ अंग विश्रांत हो जाएं।_
     चेहरे की मांस-पेशियों पर विशेष ध्यान दो, क्योंकि वे नब्बे प्रतिशत तनावों को ढोती है। बाकी शरीर में केवल दस प्रतिशत तनाव है। सब तनाव मस्तिष्क में होता है। इसलिए  चेहरा उनका भंडार बन जाता हे।
  _तो अपने चेहरे पर जितना तनाव डाल सको डालों, शर्माओ मत। चेहरे को पूरी तरह से संताप युक्त, विषादयुक्त बना डालों। फिर अचानक ढीला छोड़ दो। पाँच मिनट के लिए ऐसा करो। ताकि शरीर का हर अंग विश्रांत हो जाए।_
      यह बड़ी सरल मुद्रा है। इसे बैठकर, या बिस्तार में लेटे हुए या जैसे भी आसान लगे कर सकते हो।

दूसरी बात:
जब लगे कि शरीर किसी सुखद मुद्रा में पहुंच गया है—इस बात को अधिक तूल मत दो—जब महसूस करो कि शरीर विश्रांत है। फिर शरीर को भूल जाओ। क्योंकि असल में, शरीर को स्मरण रखना एक प्रकार का तनाव है।
इसीलिए इस विषय में बहुत झंझट मत करो। शरीर को विश्रांत हो जाने दो और भूल जाओ। भूल जाना ही विश्राम है। जब भी बहुत याद रखते हो तो वह स्मरण ही शरीर को तनाव से भर देता है। इसके लिए एक बड़ा सरल प्रयोग है। अपना हाथ अपनी नाड़ी पर रखो और उसकी धड़कनों को गिनो। फिर अपनी आंखों को बंद कर लो और सारे ध्यान को पाँच मिनट के लिए नाड़ी पर ले आओ, फिर उसे गिनो। नाड़ी अब तेज धड़केगी, क्योंकि पांच मिनट के ध्यान ने उसे तनाव दे दिया है। जब भी कोई डाक्टर धड़कन को मापता है तो वह माप कभी असली नहीं होता। वह माप हमेशा डाक्टर के माप शुरू करने से पहले के माप से अधिक होता है। जब भी डाक्टर हाथ अपने हाथ में लेता है तो उसके प्रति सजग हो जाते हो। यदि डाक्टर महिला हो तो और भी सजग हो जाते हो। धड़कन और तेज चलने लगेगी। तो जब भी कोई महिला डाक्टर धड़कन गिने तो उसमें से दस घटा लेना। तब वह असली धड़कन होगी। नहीं तो दस धड़कने प्रति मिनट अधिक रहेंगी।_
तो जब भी अपनी चेतना को शरीर के किसी अंग पर ले जाते हो। वह अंग तनाव से भर जाता है। जब कोई घूरता है तो तनाव से भर उठते हो। सारा शरीर तनाव युक्त हो जाता है। जब अकेले होते हो तब भिन्न होते हो। जब कोई कमरे में आ जाता है तब वही नहीं रहते। पूरे शरीर की गति तेज हो जाती है। तनाव से भर जाते हो। तो विश्राम को कोई बहुत अधिक महत्व न दो। वरना उसी के साथ अटक जाओगे।
पाँच मिनट के लिए बस आराम करो और भूल जाओ। भूलना सहयोगी होगा और शरीर को और गहन विश्राम में ले जाएगा।
‘दोनों कांखों के मध्य क्षेत्र वक्षस्थल में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो।
अपनी आंखें बंद कर लो और दोनों कांखों के बीच के स्थान को महसूस करो; ह्रदय क्षेत्र को, अपने वक्षस्थल को महसूस करो।
पहले केवल दोनों कांखों के बीच अपना पूरा अवधान लाओ,पूरे होश से महसूस करो। पूरे शरीर को भूल जाओ और बस दोनों कांखों के बीच ह्रदय-क्षेत्र और वक्षस्थल को देखो। और उसे अपार शांति से भरा हुआ महसूस करो।
जिस क्षण शरीर विश्रांत होता है ह्रदय में स्वत: ही शांति उतर आती है। ह्रदय मौन, विश्रांत और लयबद्ध हो जाता है। जब अपने सारे शरीर को भूल जाते हो और अवधान को बस वक्षस्थल पर ले आते हो और उसे शांति से भरा हुआ महसूस करते हो तो तत्क्षण अपार शांति घटित होगी।

शरीर में दो ऐसे स्थान है, विशेष केंद्र है, जहां होश पूर्वक कुछ विशेष अनुभूतियां पैदा की जा सकती है। दोनों कांखों के बीच ह्रदय का केंद्र है। और ह्रदय का केंद्र तुममें घटित होने वाली सारी शांति का केंद्र है।
जब भी शांत हो, वह शांति ह्रद से आती है। ह्रदय शांति विकीरित करता है। इसीलिए तो संसार भर में हर जाति ने, हर वर्ग, धर्म, देश और सभ्यता ने महसूस किया है कि प्रेम कहीं ह्रदय के पास से उठता है।
इसके लिए कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं है। जब भी प्रेम के संबंध में सोचते हो ह्रदय के संबंध में सोचते हो। असल में जब भी प्रेम में होते हो विश्रांत होते हो। और क्योंकि विश्रांत होते हो, एक विशेष शांति से भर जाते हो। वह शांति ह्रदय से उठती है। इसलिए प्रेम और शांति आपस में जुड़ गए है।
जब भी प्रेम में होते हो शांत होते हो। जब भी प्रेम में नहीं होते तो परेशान होते हो। शांति के कारण ह्रदय प्रेम से जुड़ गया है।
तो दो काम कर सकते हो, प्रेम की खोज कर सकते हो: फिर कभी-कभी शांत अनुभव करोगे। लेकिन यह मार्ग खतरनाक है, क्योंकि जिस व्यक्ति को प्रेम करते हो वह अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। और दूसरा तो दूसरा ही है। एक तरह से पराधीन हो गए। प्रेम तुम्हें कभी-कभी शांति देगा, पर सदा नहीं। कई व्यवधान आएँगे, संताप और विषाद के कई क्षण आएँगे।
क्योंकि दूसरे से केवल परिधि पर ही मिल सकते हो। परिधि विक्षुब्ध हो जाएगी। केवल कभी-कभी,जब दोनों बिना किसी संघर्ष के गहन प्रेम में होओगे, केवल तभी विश्रांत होओगे। और ह्रदय शांति से भर सकेगा।_
लौकिक प्रेम केवल शांति की झलकें दे सकता है। लेकिन कोई स्थाई गहरी शांति नहीं दे सकता है। इससे किसी शाश्वत शांति की संभावना न ही है। बस झलकों की संभावना है। और दो झलकों के बीच कलह की, हिंसा की, घृणा और अतृप्ति की गहरी घाटियाँ होगी।
शांति को खोजने का दूसरा उपाय है—उसे लौकिक प्रेम के द्वारा नहीं, सीधे ही खोजना। यदि शांति को सीधे ही पा सको—और उसी की यह विधि है। तो जीवन प्रेम से भर जाएगा। लेकिन अब प्रेम का गुणधर्म अलग-अलग होगा.
उसमें मालकियत नहीं होगी। वह किसी एक पर केंद्रित नहीं होगा। न तो वह स्वयं पराधीन होगा, न किसी को अपने आधीन बनाएगा। प्रेम बस एक भाव, एक करूणा, एक गहन समानुभूति बन जाएगा। और अब कोई भी, कोई भी, प्रेमिका- प्रेमी भी, अशांत नहीं कर पाएगा। क्योंकि शांति की जड़ें गहरी है और प्रेम आंतरिक शांति की छाया की भांति है। पूरी बात उलटी हो गई है।
बुद्ध भी प्रेमपूर्ण है, पर उनका प्रेम एक विषाद नहीं है। यदि लौकिक प्रेम करो तो कष्ट भोगोगे और प्रेम न करो तो भी कष्ट भोगोगे। यदि प्रेम न करो तो प्रेम की अनुपस्थिति से कष्ट होगा। और प्रेम करो तो प्रेम की उपस्थिति से कष्ट होगा। क्योंकि तुम परिधि पर हो। इसलिए तुम कुछ भी करो,वह क्षणिक तृप्ति देगा, फिर अंधेरी घाटियाँ आ जाएंगी।
पहले अपनी स्वयं की शांति में स्थिर हो जाओ, फिर स्वतंत्र हो। फिर लौकिक प्रेम की जरूरत नहीं है। फिर कभी यह नहीं लगेगा कि प्रेम एक तरह की परतंत्रता है। एक गुलामी है, एक बंधन बन गया है। तब प्रेम बस एक दान होगा।
अब इतनी शांति है कि उसे बांटना चाहते हो। फिर वह बस देना मात्र होगा,जिसमे वापस पाने का कोई विचार नहीं होगा; वह बेशर्त होगा। और यह एक राज है कि जितना देते हो उतना ही मिलता है।
जितना ही देते हो और बांटते हो उतना ही आप पर बरस जाता है। जितना इस खजानें में गहरे प्रवेश करते हो, जो कि अनंत है, उतना ही सब लुटा सकते हो। यह कभी समाप्त नहीं हो सकता।
लेकिन प्रेम आंतरिक शांति की छाया की भांति घटित होना चाहिए। साधारणत: इससे उलटा होता है, शांति प्रेम की छाया की भांति आती है। प्रेम शांति की छाया होना चाहिए, तब प्रेम सुंदर होता है। वरना तो प्रेम भी कुरूपता निर्मित करता है, एक रोग, एक ज्वर बन जाता है।

‘दोनों कांखों के मध्य–क्षेत्र (वक्षस्थल) में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो।’ कांखों के मध्य क्षेत्र के प्रति जागरूक हो जाओ और महसूस करो कि वह अपार शांति से भर रहे है। बस शांति को अनुभव करो।
पाओगे कि वह भरी जा रही है। शांति तो सदा से भरी है। पर इस का कभी पता नहीं चलता। यह केवल होश को बढ़ाने के लिए, घर की ओर लौटा लाने के लिए है।
जब यह शांति अनुभव होगी, परिधि से हट जाओगे। ऐसा नहीं कि वहां कुछ नहीं होगा, लेकिन जब इस प्रयोग को करोगे और शांति से भरोंगे तो एक दूरी महसूस होगी। सड़क से शोर आ रहा है, पर बीच में अब बहुत दूरी है। सब चलता रहता है, पर इससे कोई परेशानी नहीं होती; बल्कि इससे मौन और गहरा होता है।
यह चमत्कार है। बच्चे खेल रहे होंगे। कोई रेडियों सुन रहा होगा। कोई लड़ रहा होगा, और पूरा संसार चलता रहेगा। लेकिन आपको लगेगा कि आपके और सब चीजों के बीच में एक दूरी आ गई है। यह दूरी इसलिए पैदा हुई है कि परिधि से अलग हो गए हो।
परिधि पर घटनाएं होंगी और लगेगा कि वे किसी और के साथ हो रही है। सम्मिलित नहीं हो। कुछ परेशान नहीं करता इसलिए सम्मिलित नहीं हो। अतिक्रमण कर गए हो। यह अतिक्रमण है।
ह्रदय स्वभावत: शांति का स्रोत है। कुछ भी पैदा नहीं कर रहे। तो बस उस स्रोत पर लौट रहे हो जो सदा से था। यह कल्पना इस बात के प्रति जागने में सहयोगी होगी कि ह्रदय शांति से भरा हुआ है। ऐसा नहीं है कि यह कल्पना शांति पैदा करेगी।
तंत्र और पाश्चात्य सम्मोहन के दृष्टिकोण से यही अंतर है।
सम्मोहनविद सोचते है कि वे कल्पना के द्वारा कुछ पैदा कर रहे हे। पर तंत्र का मानना है कि कल्पना के द्वारा कुछ पैदा नहीं करते। बस उस चीज के साथ लयवद्ध हो जाते हाँ जो पहले से ही है। क्योंकि कल्पना से जो भी पैदा कर सकते हो वह स्थाई नहीं हो सकता: यदि कोई चीज वास्तविक नहीं है तो वह झूठी है, नकली है, एक भ्रम निर्मित कर रहे हो।
तो शांति के भ्रम में पड़ने से तो वास्तविक रूप से परेशान होना बेहतर है. क्योंकि वह कोई विकास नहीं है। बस अपने को उसमें भुला दिया है। देर अबेर उससे बाहर निकलना होगा। क्योंकि जल्दी ही वास्तविकता भ्रम को तोड़ देगी। सच्चाई भ्रमों को नष्ट करेगी ही। केवल उच्चतर वास्तविकता को नष्ट नहीं किया जा सकता। उच्चतर वास्तविकता उस यथार्थ को नष्ट कर देगी जो कि परिधि पर है।
इसीलिए शंकर तथा दूसरे कई बुद्ध पुरूष कहते है कि संसार माया है। ऐसा नहीं है कि संसार माया है। लेकिन उन्हें एक उच्चतर वास्तविकता का बोध हो गया है। उस ऊँचाई से संसार स्वप्नवत प्रतीत होता है। वह शिखर इतनी दूर है, इतनी दूर है कि यह संसार वास्तविक नहीं लग सकता।
तो सड़क पर आता हुआ शोर ऐसे लगेगा जैसे अपना सपना देख रहे हो, वह वास्तविकता नहीं है। वह कुछ नहीं कर सकता बस आता है और गूजर जाता है। और अस्पर्शित रह जाते हो। और जब वास्तविक से अस्पर्शित रह जाओ तो कैसे लगेगा कि यह वास्तविक है, वास्तविकता केवल तभी महसूस होती है जब वह गहरी प्रवेश कर जाए। जितनी गहरी वह प्रविष्ट होगी उतनी ही वास्तविक लगेगी।
शंकर कहते है, पुरा संसार मिथ्या है। वह ऐसे बिंदु पर पहुंच गए होंगे जहां से दूरी इतनी बढ़ जाती है कि संसार में जो भी हो रहा है। सपना सा ही प्रतीत होता हे। उसकी प्रतीति होती है। लेकिन उसके साथ कोई वास्तविकता की प्रतीति नहीं होती। क्योंकि वह भीतर प्रवेश नहीं कर पाती। प्रवेश ही वास्तविकता का अनुपात है।
यदि मैं आपको पत्थर मारू और चोट लगे तो उसकी चोट भीतर प्रवेश करती है। और चोट का प्रवेश करना ही पत्थर को वास्तविक बनाता है। यदि मैं एक पत्थर फेंकूं और वह आपको छुए, पर चोट भीतर प्रवेश न करे। तो गहरे में कही अपने पर पत्थर गिरने की आवाज सुनाई देगी। पर उससे कोई व्यवधान पैदा नहीं होगा। वह झूठ लगेगी। मिथ्या लगेगी। माया लगेगी।
लेकिन आप परिधि से इतने करीब हो कि यदि मैं पत्थर मारू तो चोट लगेगी। अगर मैं बुद्ध पर पत्थर फेंकूं तो उनके शरीर को भी उतनी ही चोट लगेगी जितनी आप को लगेगी। लेकिन बुद्ध परिधि पर नहीं है। केंद्र में स्थित है। और दूरी इतनी अधिक है कि उन्हें पत्थर की आवाज तो सुनाई देगी पर चोट नहीं लगेगी। अंतस अस्पर्शित रह जाएगा। उस पर खरोंच भी न आएगी। इस निर्विचार अंतस को लगेगा कि जैसे सपने में कुछ फेंका गया। यह माया है।
तो बुद्ध कहते है, किसी चीज में कोई सार नहीं है। सब कुछ असार है। संसार असार है। यह बही बात है जैसे शंकर कहते है कि संसार माया है।

इसे करके देखो। जब भी अनुभव होगा कि दोनों कांखों के बीच, ह्रदय के केंद्र पर शांति व्याप्त हो रही है तो संसार तुम्हें भ्रामक प्रतीत होगा। यह इस बात का संकेत है कि ध्यान में प्रवेश कर गए—जब संसार माया लगने लगे।
ऐसा सोचो मत कि संसार माया है। ऐसा सोचने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा महसूस होगा। अचानक मन में आएगा, संसार को क्या हो गया है? अचानक संसार स्वप्नवत हो गया है। एक स्वप्न की तरह से सारहीन हो गया है। बस इतना ही वास्तविक प्रतीत होता है। जैसे पर्दे पर फिल्म। भले ही थ्री-डायमेंशनल हो, पर ऐसा लगता है जैसे कोई प्रक्षेपण हो। हालांकि संसार प्रक्षेपण नहीं है।
संसार वास्तव में माया नहीं है। नहीं,संसार तो वास्तविक है, लेकिन दूरी पैदा कर लेते हो। और दूरी बढ़ती ही जाती है। और दूरी बढ़ रही है। या नहीं, यह इस बात से पता लगा सकते हो कि संसार अब कैसा लगता है।
यही कसौटी है। यह एक ध्यान की कसौटी है। यह लौकिक सच नहीं है कि संसार मिथ्या है। लेकिन ध्यान आपको अलौकिक बनाकर यह अनुभव देता है. शुरू में अगर कुछ अनुभव न हो तो निराश मत होना। प्रतीक्षा करो, और करते रहो।
यह विधि किसी भी समय प्रयोग कर सकते हो। रात अपने विस्तर पर लेटे-लेटे कर कसते हो। सुबह जब लगे कि नींद खुल गई है। उस समय इसे कर सकते हो। पहले इसे करो फिर उठो। दस मिनट भी पर्याप्त होंगे।
रात सोने से पहले दस मिनट इसे करो। संसार को मिथ्या बना दो।
नींद इतनी गहरी हो जाएगी जितनी पहले कभी नहीं थी। यदि सोने से ठीक पहले संसार मिथ्या हो जाए तो सपने कम आएँगे। क्योंकि यदि संसार ही कल्पना बन जाए तो सपने नहीं चल सकते। और यदि संसार मिथ्या हो जाए तो बिलकुल विश्रांत हो जाओगे। क्योंकि संसार की वास्तविकता तुम पर चोट नहीं करेगी। असर नहीं करेगी।
यदि संसार मिथ्या है तो तनाव समाप्त हो जाते है। और यदि परिधि पर हट सको तोस्वयं ही नींद की गहरी अवस्था में चले गए। इससे पहले कि नींद आए उसमें गहरे चले गए।
और फिर सुबह बहुत अच्छा लगेगा। क्योंकि बहुत ताजा हो गए हो और युवा हो गए हो। ऊर्जा तरंगायित है, क्योंकि केंद्र से परिधि पर लौट रहे हो।
जिस क्षण लगे कि नींद जा चुकी है तो आंखें मत खोलों। पहले इस प्रयोग को दस मिनट करो, फिर अपनी आंखें खोलों। शरीर पूरी रात के बाद विश्राम में है। और ताजा तथा जीवंत अनुभव कर रहा है। पहले ही विश्रांत हो तो अब अधिक समय नहीं लगेगा। बस विश्राम करो। अपने चेतना को दोनों कांखों के बीच ह्रदय पर ले आओ। उसे गहन शांति से भरा हुआ अनुभव करो। दस मिनट तक उस शांति में रहो। फिर आंखें खोल लो।
संसार अलग ही नजर आयेगा। क्योंकि शांति आंखों में भी झलकेगी। और सारा दिन अलग ही अनुभव होगा। शांति एक चुंबक है। जब शांत होते हो तो लोग अधिक निकट आते है। जब परेशान होते हो तो सब पीछे हटते है।
यह इतनी भौतिक घटना है कि इसे सरलता से देख सकते हो। जब भी शांत हो, लगेगा सब करीब आना चाहते है। क्योंकि शांति विकीरित होने लगती है। चारों और एक तरंग बन जाती है। चारों और शांति के स्पंदन होते है और जो आता है करीब होना चाहता है। जैसे किसी वृक्ष की छाया के नीचे जाकर विश्राम करना चाहते हो।
शांति व्यक्ति के चारों और एक छाया होती है। वह जहां भी जाएगा सब उसके पास जाना चाहेंगे। खुले होंगे। जिस व्यक्ति के भीतर संघर्ष है, विषाद है, संताप है, तनाव है, वह लोगों को दूर हटाता है। जो भी उसके पास जाता है घबड़ाता है।
आप खतरनाक हो।आपके करीब होना खतरनाक है। क्योंकि वही दोगे जो पास है। लगातार वही दे रहे हो। किसी को प्रेम करना चाहो; पर यदि भीतर से परेशान हो तो प्रेम भी तुमसे दूर हटेगा। भागना चाहेगा. क्योंकि उसकी ऊर्जा को चूस लोगे। और वह सुखी नहीं होगा। जब उसे छोड़ोगे बिलकुल थका हुआ हारा छोड़ोगे। क्योंकि आपके पास कोई जीवनदायी स्रोत नहीं है. भीतर विध्वंसात्मक ऊर्जा है।
ध्यान योग्यता-पात्रता के विकास के लिए जागरण देता है. जागरण के अलोक में ही समकालीन सदाचरण यानी युगधर्म का पालन संभव होता है. इस तरह से ध्यान दृष्टि, सृष्टि, संतुष्टि, समग्र तृप्ति और मुक्ति का बेस है. ध्यान की कई विधियां हैं. अपने अनुकूल विधि का सेलेक्शन आप एक बार हमसे मिलकर कर सकते है

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