प्रदीप सिंह
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा सरकार बनाने की तैयारी में है। कांग्रेस के अंदर घमासान मचा है कि कैसे हम मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीती बाजी को हार गए। मुख्यधारा की मीडिया में भाजपा-कांग्रेस की जीत-हार को आधार बनाते हुए चर्चा हो रही है। लेकिन हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव में एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना हुई है, जिसे देखते हुए भी राजनीतिक पर्टियां और मीडिया नजरंदाज कर रही हैं। यह घटना आदिवासी पार्टियों के प्रदर्शन की है, जहां तीन आदिवासी पार्टियों ने चुनाव में स्वतंत्र पहलकदमी करते हुए अपने प्रत्याशी उतारे थे।
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में इस बार तीन आदिवासी पार्टियां-भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी), गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी), और भारतीय आदिवासी पार्टी (बीटीपी)–ने तीनों राज्यों में एसटी वर्ग के लिए आरक्षित 101 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, तीनों राज्यों में कुल सीटों में से लगभग एक-तिहाई सीटों पर आदिवासी पार्टियों ने अच्छा प्रभाव डाला।
आदिवासी पार्टियों के इस राजनीतिक पहलकदमी से मध्य प्रदेश में आदिवासी नेता फग्गन सिंह कुलस्ते को हार का सामना करना पड़ा। जहां वह कांग्रेस प्रत्याशी से चुनाव हार गए।
आदिवासी पार्टियों ने इस बार स्वतंत्र राजनीतिक पहलकदमी लेते हुए एसटी रिजर्व सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। इस कड़ी में सबसे अनोखा प्रयोग भारत आदिवासी पार्टी (BAP) ने किया। चुनाव से कुछ महीने पहले ही अस्तित्व में आई बीएपी ने पांच विधानसभा सीटों पर जीत और चार सीटों पर दूसरे नंबर पर आकर सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया है।
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्य रूप से कांग्रेस और भाजपा के बीच लड़ाई थी। लेकिन आदिवासी पार्टियों ने इस बार मैदान में आकर कहीं पर कांग्रेस तो कहीं पर भाजपा को संकट में डाल दिया। आदिवासी पार्टियों को इस बार मात्र पांच सीटों पर विजय मिली है। लेकिन 24 सीटों पर उनकी धमक महसूस की गयी।
24 निर्वाचन क्षेत्रों में से चार में पार्टियां दूसरे स्थान पर रहीं। बाकियों में उन्हें कांग्रेस या भाजपा की जीत के अंतर से अधिक वोट मिले। भाजपा ने इनमें से 12 सीटें अपने नाम कीं और कांग्रेस ने आठ सीटें जीतीं।
राजस्थान
राजस्थान में भारत आदिवासी पार्टी ने 27 सीटों पर चुनाव लड़ा। जिसमें से 17 एसटी रिजर्व सीटें थीं। बीएपी को 3 सीटों पर जीत मिली और 4 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही, और आठ निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा या कांग्रेस के जीत के अंतर से अधिक वोट प्राप्त किए। इनमें से छह सीटों पर बीजेपी और दो पर कांग्रेस ने जीत हासिल की।
आमतौर पर देखा जाता है कि छोटी पार्टियां चुनाव में वोट-कटवा की भूमिका में आ जाती है और उनका वोट शेयर इतना बड़ा होता है कि किसी विशेष पार्टी की हार सुनिश्चित हो जाती है, बीएपी उन सीटों पर भी वास्तविक मुकाबले में दिखाई दी, जहां वह तीसरे स्थान पर रही। इन आठ निर्वाचन क्षेत्रों में, BAP को प्रत्येक में 43,000 से अधिक वोट मिले, और दो अन्य सीटों पर 33,000 से अधिक वोट मिले। सलूम्बर और प्रतापगढ़ जैसे निर्वाचन क्षेत्रों में, इसने क्रमशः 50,000 से अधिक और 60,000 से अधिक वोट प्राप्त किए, जो भाजपा और कांग्रेस दोनों की संख्या के बहुत करीब पहुंच गए।
वहीं 17 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बीटीपी ने खेरवाड़ा विधानसभा को छोड़कर कहीं और विशेष प्रभाव नहीं छोड़ा, जहां वह 53,000 से अधिक वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रही। बीएपी का प्रदर्शन भी उल्लेखनीय है क्योंकि यह 2018 में बीटीपी का हिस्सा था, लेकिन बीटीपी ने तब जो दो सीटें जीती थीं, उन्हें छोड़कर, पार्टी को किसी भी एसटी सीट पर जीत के अंतर से अधिक वोट नहीं मिले।
मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश में भी आदिवासी पार्टियों ने चुनाव में व्यापक प्रभाव डाला। राज्य में आदिवासी पार्टियों ने जिन 47 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से न केवल एक सीट बीएपी के खाते में गई। लेकिन नौ सीटों पर आदिवासी पार्टियों को जीत के अंतर से ज्यादा वोट मिले थे, उनमें से पांच सीटें कांग्रेस ने और चार सीटें भाजपा ने जीतीं। इनमें से बसपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाली जीजीपी को सात और बीएपी को दो सीटों पर प्रभाव पड़ा। जीजीपी को निवास में 19,000 से अधिक वोट मिले, जहां फग्गन सिंह कुलस्ते कांग्रेस से 9,723 वोटों से हार गए।
छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ में, जीजीपी ने एक सीट पर जीत दर्ज की है और तीन सीटों पर उसके वोट विजेता और उपविजेता के बीच जीत के अंतर से अधिक हैं। कांकेर के अलावा, जहां कांग्रेस केवल 16 वोटों से भाजपा से हार गई थी और जहां जीजीपी को 4,000 से अधिक वोट मिले थे, जीजीपी का भरतपुर और प्रतापपुर दोनों निर्वाचन क्षेत्रों पर प्रभाव था, जिन्हें भाजपा ने कांग्रेस से छीन लिया था।
पिछले कुछ वर्षों से कांग्रेस औऱ भाजपा आदिवासियों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रही है। लेकिन उनके वास्तविक मुद्दों की बजाए कुछ प्रतीकों के आधार पर वह आदिवासियों को अपने पक्ष मे करना चाह रहे हैं। लेकिन अब आदिवासी जाग गया है।
हिंदी पट्टी के जिन तीन राज्यों में चुनाव हुए, उनमें आदिवासी आबादी काफी है – छत्तीसगढ़ की 31% आबादी आदिवासी है, एमपी की 21% आबादी और राजस्थान में 13.5% लोग आदिवासी हैं।
राजस्थान में आदिवासी मतदाताओं, विशेष रूप से युवा लोगों के बीच पारंपरिक पार्टियों के प्रति असंतोष बढ़ रहा था, उन्हें लगता था कि उन्होंने उनके वोट तो ले लिए, लेकिन संपन्न समुदायों की सेवा की। दूरदराज के आदिवासी इलाकों में आरक्षण, पानी की कमी और अच्छी शैक्षिणिक सुविधाओं और स्वास्थ्य देखभाल की कमी के मुद्दे उन कारणों में से हैं, जिनकी वजह से आदिवासियों का झुकाव नई पार्टियों की ओर हुआ है।