अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

‘तारीख पर तारीख’ से आगे की सोच ही दिलाएगी सच्चा न्याय

Share

कर्नल (रिटा.) कौशल मिश्र

हमारे देश में कभी इस बात पर गंभीरता से चर्चा नहीं होती कि नीचे से लेकर ऊपर तक विभिन्न न्यायालयों में 50-60 करोड़ पीडि़त न्याय के लिए वर्षों से चक्कर काट रहे हैं। आखिर यह क्यों नहीं सोचा जाता कि इन्हें समय पर न्याय मिलना चाहिए, क्यों न्यायालय में तारीख पर तारीख पड़ती रहती है? पीडि़त मीलों चलकर न्याय की आस में न्यायालय आते हैं और निराश लौट जाते हैं, क्यों कोई इनकी फिक्र नहीं करता? आज हम सभी कुछ विश्व स्तरीय बनाने की ओर अग्रसर हैं, लेकिन न्याय व्यवस्था को सुधारने मे किसी की भी रुचि नहीं है। आज भी हमारी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के बनाए कानूनों पर ही निर्भर है। व्यवस्था में कोई खास बदलाव हम नहीं कर पाए। हजारों लोग न्याय के लिए हर दिन न्यायालयों के चक्कर काटते हैं। आंकड़े गवाह हैं कि सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं अगर हम हर मुकदमे से परिवार के 5-6 लोगों को भी प्रभावित मानकर चलें तो केवल इन कोर्ट में ही देश की 25 से 30 करोड़ आबादी न्याय की प्रतीक्षा कर रही है। इसके अलावा तहसील, एडीएम और एसडीएम की अदालतों में भी काफी मुकदमे लंबित हैं। न्याय की प्रतीक्षा में 30-35 वर्ष लगना तो सामान्य बात हो गई है। फैसला आने तक दूसरी-तीसरी पीढ़ी आ जाती है। वर्षों बाद अगर निचली अदालतों का फैसला आ भी जाए तो ऊपरी अदालत में अपील होती है। सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने में फिर 25-30 साल लग जाते हैं। जरा सोचिए, कैसा न्याय मिला?


उदाहरण के तौर पर गांव में अगर दबंग लोगों ने किसी की जमीन या मकान पर अवैध कब्जा कर लिया और उसे न्याय के लिए सालों इंतजार करना पड़ा तो जीवन के अंतिम पड़ाव पर उस न्याय का क्या मतलब? दिल्ली की एक विशेष अदालत ने 1984 में सिख विरोधी दंगों के दौरान दो सिखों की हत्या से संबंधित मामले में कांग्रेस के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को फरवरी 2025 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। न्याय में 41 वर्ष लगे, क्या पीडि़त परिवार को इस इंसाफ से सुकून मिला होगा? दिल्ली दंगों में 2733 लोग मारे गए थे, 240 को अज्ञात बताकर मुकदमा बंद कर दिया गया। 250 आरोपी छूट गए। इसी तरह 1971 में पंचकूला में एक कर्नल के मकान पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया था। मुकदमा डिस्ट्रिक्ट न्यायालय में अभी भी चल रहा है। 54 वर्ष बीत चुके हैं। अगर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से न्याय मिल भी जाए तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले हैं। उनको इस जीवन में तो न्याय मिलता नजर नहीं आता। ऐसे करोड़ों मुकदमे निचली और ऊपरी अदालतों में लंबित हैं। तारीख पर तारीख पड़ती रहती है। आज भी हम अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था पर चल रहे हैं। मई-जून में कोर्ट में छुट्टियां रहती हैं। दिसंबर में भी क्रिसमस की छुट्टियां होती हैं।
अगर हम विवेकपूर्ण ढंग से सोचें तो व्यवस्था पीडि़तों को न्याय दिलाने में सफल नहीं हो रही है बल्कि अनजाने ही अपराधियों के मुकदमे 25-30 वर्षों तक चलाकर उनके हौसले बुलंद कर रही है। ये लोग धन-बल और सांठ-गांठ से वर्षों अपराध करते रहते हैं जबकि पीडि़त इन वर्षों में अपना तन-मन-धन लगाकर अवसाद में चला जाता है। अत: यह कहना गलत नहीं होगा कि आज की न्याय व्यवस्था पीडि़तों को नहीं बल्कि अनजाने में ही अपराधियों को पोषित कर रही है। पीडि़त जीवन भर न्याय के लिए संघर्ष करता है, उसके बाद भी उसके बेटे-पोते न्याय का इंतजार करते रहते हैं। हमें एक नई न्याय व्यवस्था बनाने की जरूरत है ताकि पीडि़तों को समय पर न्याय मिल सके। किसी ने ठीक ही कहा है ‘देर से मिला न्याय, न्याय को नकारता है।’

Add comment

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें