अग्नि आलोक
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*सत्यकथा : वेश्या*

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       ~ प्रखर अरोड़ा

बात उस समय की है जब मैं जिला जामताड़ा मे इंटरमिडियट मे था. मै जब डेली शाम को अपने कोचिंग को जाता तो रोज आते-जाते मुझे एक बूढ़ी भिखारन महिला मिलती जो रेलवे स्टेशन पर भीख माँगती जिसे मैं डेली देखता था।

   हालांकि महिला बुजुर्ग थीं कपड़े फटे पुराने होते थे मगर देखने मे ऐसा लगता था जैसे जब ये जवान रही होंगी तो बेहद खूबसूरत रही होंगी.

मै जब प्रति दिन रेलवे फाटक पार करके कोचिंग से लौटता तो रोज देखता कि शाम को दो व्यक्ति आकर उस महिला से पैसे ले लेते थे.

वह बूढ़ी महिला उन दोनों व्यक्तियों को देखते ही डरने लगती थी।

   मैंने सोचा हो सकता है इनका भीख मांगना ही इनका पेशा हो। और ये दोनों जो इससे पैसा ले लेता है इनके कोइ रिस्तेदार हों.

    मुझे कभी-कभी उस भिखारन महिला को देखकर ऐसा महसूस होता था कि शायद वह महिला मुझसे कुछ कहना चाह रही हो.

एक दिन मुझसे नही रहा गया मेरे मन में उस महिला की दुर्दशा देखकर दया उठी और उसके तथा उन दो व्यक्तियों, जो रोज उससे पैसा लेकर चले जाते थे, उन सब के बारे में विस्तार से जानने की जिज्ञासा हुई।

  उस एक दिन मै चुपके से उस भिखारन महिला के पीछे-पीछे चल पड़ा। लेकिन यह क्या?

मैं चौक गया।

महिला एक रेड लाइट एरिया वाले इलाके में प्रवेश करने लगी और वहां एक कोठे पर चढ़ गई।

मेरे मन मे आया और मै सोचने लगा की क्या ये महिला वेश्या है?

और अगर नही तो वो आखिर वह यहाँ क्यों आयी हैं?

मुझे अब उस महिला से घृणा होने लगी। लेकिन मैं यहाँ ठहरने वाला कहां था।

दूसरे दिन मैं एक फर्जी कस्टमर बनकर उस बुजुर्ग महिला जिस कमरे मे गयीं थीं उसके पास पहुँचने में सफल हो गया।

मैंने जो दृश्य वहां का देखा, उससे मुझे खुद से नफरत होने लगी…मैं क्यों आया ऐसी गन्दी जगह पर.

मुझे क्या पड़ी थी इन सब मे.

   बदबूदार कमरे, कहीं ढोल की थाप और घुंघरुओं की मधुर ताल पर अश्लील नर्तन करती वेश्याएं, मुंह में पान की गिलौरी दबाए और मसनद पर लेटे ललचाई नजरों से उन वेश्याओं के अंग अंग को निहारते ग्राहक।

 पर मैंने देखा वहां वह बूढ़ी महिला नहीं थी। मैंने दूसरी तरफ नजर घुमाई, तो उस महिला को एक काल कोठरी में बन्द पाया।

उसकी तरह वहाँ और भी कई महिलायें थी।

लगभग 50 से ज्यादा महिलाये होंगी.

घुप्प अंधेरा, नीचे दरी पर बैठी घुटनों को उठाए और उसपर सिर झुकाए कुछ महिलायें बैठी थीं।

 मैंने ने वहां से लौट जाना ही उचित समझा।

 यहां की स्थिति में सुधार मेरे वश की बात नहीं थीं। लेकिन आज मुझे उस बूढ़ी महिला की सच्चाई का पता चल गया था।

अगले दिन मैंने छुट्टी ले थी और आज मै फिर स्टेशन गया था।

स्टेशन पर वह बूढ़ी महिला पहले दिन की तरह ही भीख मांगने के लिए बैठी थी और जमीन पर अपने एल्युमिनियम का कटोरा पिट-पिटकर लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रही थी।

मैं पहले तो उसके करीब जाकर बैठा और उसे प्यार से “माँ” के संबोधन से पुकारा।

माँ शब्दों को सुनकर वह अचंभित हो गई और बेचारी फूट-फूट कर रोने लगी।

मैने उसका परिचय पूछा, है माँ आप कौन हो, कहां से आयी हो, बच्चे और पति कहां हैं?

वह रोती रही और रो रोकर उसने जो दास्तान सुनाई, मेरे रोंगटे खड़े हो गए और इस समाज से मुझे घृणा होने लगी।

उस बूढ़ी भिखारन ने कहा कि –

बेटा हम प्यार मोहब्बत के झांसे मे पड़कर अपने माँ बाप के विरुद्ध जाकर दूसरे से शादी कर के घर से भाग गये थे.

जबतक मन नही भरा तब तक इस्तेमाल करता रहा.. और जिस दिन मन भर गया न बाबू तब हमें धोखे से कोठे पर लाकर बेच दिया!

    यहां प्रायः जितने भी लड़कियों को तुम देख रहे हो न सब अपने प्यार मोहब्बत के नाम पर विश्वास करके घर से माँ बाप के विरुद्ध जाकर भागी लड़किया हैं. बाद मे जब हमें बेच दिया गया तो फिर हमें मजबूर किया जाता है वेश्या बनने के लिए।

ना चाहते हुए भी ग्राहकों को खुश करना पड़ता है। सब नोचते हैं हमें भेड़िए की तरह मानो कितने दिनों से उनकी प्यास बुझी ना हो। कभी कभी तो एक साथ दो तीन ग्राहकों की भूख मिटानी पड़ती है।

जब तक जवानी रहती है बेटा, तब तक हम कोठे की शान रहते हैं।

    जब शरीर के अंग साथ देना छोड़ने लगते हैं और ग्राहक मिलने बन्द हो जाते हैं, तब मालिक हमें पागल घोषित कर देता है और सड़कों पर, रेलवे स्टेशन पर भीख माँगने के लिए बैठा देते है।

 डेली उनके भेजे दलाल हमसे पैसे वसूली करते हैं नही देने पर या विरोध करने पर मार पीट भी करते हैं अब बूढ़ी हो चुके हम महिलाओ के पास उतनी शक्ति तो नही होती की हम उनका विरोध कर पायें.

 हम बस जिंदा लाश बन उसके इशारे पर सारा काम करते रहते हैं।

जब हम भीख माँगने के लायक भी नहीं बचते, तो हमें ये लावारिश सड़क पर ले जाकर फेंक जाते हैं। यही है हम वेश्याओ की कहानी।

हम भी सोचते हैं की कास हमने अपने माता पिता के विरुद्ध ना जाकर गलत कदम ना उठाये होते तो हमारा भी एक हँसता खेलता घर-परिवार होता।

हर मोड़ पर हमारी आंखें तलाशती हैं कि कहीं किसी मोड़ पर कोई अपना मिल जाए, जो इस जिल्लत भरी जिंदगी से छुटकारा दिलाए।

     अफसोस हमारे बारे में ना समाज और ना ही सरकार कोई मुद्दा उठाती है. हम बस जी रहे हैं हर रोज कतरा-कतरा मरते हुए कल फिर जीने की आश में.

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