अग्नि आलोक
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सत्य-कथा : अपार्थिव सुंदरी सुवर्णा 

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       (यथार्थपरक घटनाक्रमों से प्राप्त अनुभूतियों पर आधारित यह सत्यकथा तभी पढ़ेंगे जब आपके पास डेढ़-दो घंटे का ‘डिस्टर्वेंस- फ्री’ टाइम हो. ”गहराई से समझते हुए” नहीं पढ़ना व्यर्थ होगा.

    पार्थिव-अपार्थिव जीवन-जगत के रहस्यों को समझना आसान नहीं होता. इसी लिए यह हर किसी का सब्जेक्ट नहीं बनता.)

       ~डॉ. विकास मानव

      पूर्व कथन : आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी. अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है. मेरा स्पस्ट और चुनौतीपूर्ण उद्घोष है : बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.

    आप अदृश्य को और उसकी शक्तियों को अविश्वसनीय मान बैठे हैं, क्योंकि इनके नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों, कथित गुरुओं की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः प्राच्य विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।

तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. 

      यही परख की कसौटी है.

तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे मुझ से संपर्क कर सकते हैं. 

अभी तो पढ़िए. यह सिर्फ़ कहानी नहीं है. इसमें प्राच्य विद्या का गूढ दर्शन भी अर्थ पाया है : जो विषय से संबंधित तमाम सवालों के जबाब भी देता है. सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में विज्ञान स्वीकार कर चुका है.

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 कार्तिक का महीना था। हवा में हलकी सिहरन थी। साँझ की स्याही बिखर चुकी थी चारों ओर। मैं रोज की तरह लाली घाट [वाराणसी] की सीढ़ियों पर बैठा जीवन और मृत्यु के दर्शन पर चिन्तन कर रहा था। अपने आप में एक अजीब शून्यता का अनुभव कर रहा था मैं।

    वातावरण में गहरी नीरवता छाई हुई थी। समय धीरे-धीरे व्यतीत होता जा रहा था और उसी के साथ रात्रि की कालिमा भी प्रगाढ़ होती जा रही थी। श्मशान भी खामोश था उस समय।

   कुछ देर पहले कोई लाश जलाई गयी थी जिसकी चिता की राख अभी गरम ही थी क्योंकि उसके सीने से धुएं की एक पतली लकीर निकल कर हवा में चक्कर काट रही थी।

   पूरब के आकाश के स्याह पटल पर शुक्र तारा झिलमिला रहा था। अपलक निहारने लगा मैं उसी की ओर। फिर जैसे बड़बड़ाने लगा मैं अपने आप से–कहाँ मिलेगी मुझे शान्ति…कैसे समझाऊँ मैं अपने मनको ..?

  उसी समय किसी के खिलखिलाकर हंसने की आवाज़ सुनाई  पड़ी तो एकबारगी चौंक पड़ा मैं। चारों तरफ सिर घुमाकर अँधेरे में देखने की चेष्टा की। सीढ़ियों के बगल में लाश रखने के लिए एक चबूतरा बना हुआ था। अँधेरे में डूबे टूटे-फूटे उसी चबूतरे पर बैठी एक भिखारिन मेरी ओर देखती हुई हंस रही थी।

     अधेड़ उम्र, जटा-जूट जैसी केशराशि धूल में सनी हुई थी। गन्दे शरीर पर मैली-कुचैली, फटी-पुरानी धोती लिपटी हुई थी। बगल में एक सोटा, गठरी और अल्युमिनियम का एक कटोरा पड़ा था जिसमें सवेरे का सुखा भात पड़ा था। निश्चय ही उसी भिखारिन के हंसने की आवाज़ थी वह।

  लेकिन वह भिखारिन क्यों हंसी थी ?–मैं समझ न सका। मगर जब उठकर चलने लगी तो वह मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी और पूर्ववत ‘खी-खी’ कर हंसती हुई बोली–समझती थी कि एक मैं ही पागल हूँ, पर तू तो मुझसे भी बढ़कर पागल निकला रे। 

   तभी दुर्गन्ध का एक तेज भभका न जाने किधर से आकर बिखर गया मेरे चारों ओर। निश्चय ही वह दुर्गन्ध भिखारिन के गन्दे कपड़ों से निकल रही थी। मुझसे अब और नहीं रुका गया वहां। इसलिए अँधेरे में ही जल्दी-जल्दी सीढियां चढ़कर ऊपर आ गया मैं।

   भिखारिन फिर ‘खी-खी’ कर हंस पड़ी। मैंने एक बार सिर घुमा कर फिर उसकी ओर देखा। इसके बाद तेज कदमों से आगे बढ़ गया।

  उन दिनों मेरे एक तांत्रिक मित्र थे। उनका नाम था–तारानाथ भट्टाचार्य। वह कालीबाड़ी में रहते थे। एक दिन न जाने कैसे बातों-ही- बातों में मैंने उस भिखारिन की चर्चा उनसे कर दी। मेरी बात सुनकर भट्टाचार्य महोदय पहले तो मुस्कराये, फिर अचानक गम्भीर हो गए। वे क्यों मुस्कराये और फिर क्यों गम्भीर हो गए ?–मैं समझ न सका। भौंचक्का-सा मैं उनकी ओर देखता ही रह गया ।

 कुछ क्षणों के बाद वे गम्भीर स्वर में बोले–जो भिखारिन तुमको श्मशान में मिली थी, जानते हो वह कौन है ?

  क्या जवाब देता मैं। मैं तो एक दुर्गंधमयी, मैली-कुचैली, पागल-सी भिखारिन से मिला था जो मुझे भी पागल समझकर ‘खी-खी’ कर हंस पड़ी थी।

  फिर उन्होंने बतलाया–वह पागल भिखारिन नहीं, उच्चकोटि की तांत्रिक सन्यासिनी है।

   ऐं ! क्या कहा आपने !–चौंक कर बोला मैं–वह तांत्रिक सन्यासिनी है ?

   हाँ, उच्चकोटि की शव-साधिका है वह। उसे शव-सिद्धि प्राप्त है। इसके आलावा और कई प्रकार की दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त हैं उसे। उसकी उम्र कितनी है–यह कोई नहीं बतला सकता। मैं भी नहीं जानता.

भट्टाचार्य पलभर रुके फिर बोले : किसी रियासत की राज कुमारी थी वह। नाम था स्वर्णा, जिसे सुवर्णा बुलाया जाता था। जब सुवर्णा 16 वर्ष की हुई तो रियासत के राज- तान्त्रिक ने उसे दीक्षा देकर अपनी भैरवी बना लिया। इसके लिए स्वयं रियासत के महराज ने स्वीकृति दी थी।

  उस राज-तान्त्रिक का नाम क्या था ?

   राजेश्वरानन्द अवधूत. वे अवधूत स्वयं उच्च कोटि के शव-साधक थे। पिशाच सिद्ध था उन्हें। स्वर्णा के सहयोग से उन्होंने अपनी साधना के अन्तिम लक्ष्य-‘कुण्डलिनी-जागरण’ करने का प्रयास किया था।

 शायद इसी अनुष्ठान के निमित्त स्वर्णा भैरवी बनायी गयी थी। लेकिन अपने प्रयास में वे सफल न हो सके। हाँ, स्वर्णा अवश्य सफल हो गयी। उसकी प्रसुप्त कुण्डलिनी एकाएक ही जागृत हो गयी। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मैंने स्वयं अपनी आँखों से कुण्डलिनी से सम्बंधित उसके कई चमत्कारों को देखा है।_

  थोड़ा रूककर भट्टाचार्य आगे बोलने लगे–राजेश्वरानंद काशी के ही थे। उनका शरीर तो अब नहीं है, मगर उनका रहस्यमय साधनाश्रम अभी भी यहीं कहीं है। लोगों का कहना है कि उस रहस्यमय आश्रम से पारलौकिक जगत का अगोचर सम्बन्ध है।

 आज भी कभी-कदा गुप्त रूप से संचरण-विचरण करने वाले मानवेतर शक्तिसंपन्न योगी और तान्त्रिक साधक उस आश्रम में आते हैं, मगर उन्हें न कोई समझ सकता है और न पहचान ही सकता है।

      यह सब सुनकर मेरा मन उद्भ्रान्त-सा हो गया। पूरी रात नींद नहीं आई। बार-बार उस भिखारिन का रूप मेरे सामने थिरक उठता था। आखिर जैसे-तैसे सवेेरा हुआ। मैं श्मशान पहुंचा और इधर-उधर खोज करने लगा। कई लोगों से पूछा भी मैंने मगर न वह भिखारिन मुझे मिली और न उसका पता ही चला।

  हताश और निराश होकर लौट आया मैं। इसके बाद भी मैं रोज शमशान जाता रहा। पर उस भिखारिन का दर्शन नहीं हुआ मुझे। समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहाँ चली गयी ?

   धीरे-धीरे तीन-चार महीनों का समय गुजर गया। एक दिन मैं अपने मित्र के साथ पिच्चर देखने गया था। नावेल्टी हॉल में ‘चैतन्य महाप्रभु’ फ़िल्म लगी थी। भीड़ काफी थी। टिकिट मिलना मुश्किल देखकर  मैं खड़ा-खड़ा सोच रहा था कि क्या किया जाय ?

  तभी मेरी नज़र एक नारी पर पड़ी। उसका व्यक्तित्व असाधारण था। शायद उसके असाधारण व्यक्तित्व ने ही मुझे आकर्षित किया था। उम्र करीब 25-30 की रही होगी। लेकिन चेहरे पर अभी भी किशोर वय-सा लावण्य था। दूध में आलता मिला देने से जो रंग बनता है, वैसा ही था उस प स्त्री के शरीर का रंग।

   बाल भी काफी घने और काले थे। महाराष्ट्रीयन स्त्रियों की तरह बालों में चम्पा की वेणी लगा रखी थी। हाथों में सोने की जड़ाऊ चूड़ियाँ पड़ीं थीं। कीमती कश्मीरी शॉल लपेटे थी वह अपने शरीर पर। मस्तक पर सिन्दूर का बड़ा- सा गोल टीका लगा था। चेहरा दप-दप करके किसी अज्ञात तेज से दमक रहा था। आँखें असाधारण थीं। एक विचित्र किस्म का आकर्षण था उनमें। मगर आँखों में स्थिरता, गहराई और असीम करुणा भरी थी।

   जब मैं निराश होकर अपने मित्र के साथ वापस लौटने लगा तो वह मुस्कराते हुए धीरे-धीरे चलकर मेरे करीब आई और हंसकर बोली–टिकिट नहीं मिला ? यह लो। और उसने बालकनी के दो टिकिट मेरी ओर बढ़ा दिए।

  एक अपरिचित स्त्री का इस तरह से प्रश्न करना और बिना मांगे टिकिट देने की पेशकस करना मुझे बड़ा ही आश्चर्यजनक लगा । सकपका कर बोला–मैं तो आपको जानता-पहचानता तक नहीं। कौन हैं आप ?

  मेरा प्रश्न सुनकर वह खिलखिलाकर हंस पड़ी एकबारगी। फिर बोली–मैं स्वर्णा हूँ–श्मशान की वही पगली भिखारिन जो उस रात तुमको मिली थी।

  एकबारगी चौंक पड़ा मैं। फिर अपने को सँभालते हुए बोला–क्या कहती हैं आप ? मुझे विश्वास नहीं होता। कहाँ आप और कहाँ वह मैली-कुचैली दुर्गंधयुक्त,  पागल, भिखारिन ?

**

     मेरी बात सुनकर उस रूपसी ने जवाब तो नहीं दिया, मगर एक क्षण के लिए मैंने जो कुछ देखा, उसने मुझे एकदम स्तब्ध और रोमांचित कर दिया।

उस एक क्षण में मैंने उस प्रौढ़ा महिला को उसी भिखारिन के रूप में देख लिया था। उसके बाद उसने मुझे कब टिकिट दिए, कब मैंने उसके हाथ से टिकिट लिए और कब हॉल में जाकर फ़िल्म देखी–इसका जैसे कुछ होश ही न रहा मुझको। लगातार एक तन्द्रा-सी मुझ पर और मेरी चेतना पर छाई रही।

     हाँ, इतना अवश्य स्मरण है कि उस महिला के रूप में वह भिखारिन रहस्यमय ढंग से बराबर मेरे साथ बनी रही। फ़िल्म भी देखी थी उसने। उसके अस्तित्व की मुझे बराबर अनुभूति होती रही।

आखिर शो ख़त्म हो गया। जब सिनेमा हॉल से बाहर निकला तो देखा वह भी मेरे साथ चल रही थी। सहसा मेरे कान में फुसफुसा कर बोली–शराब पिलाएगा ?

ऐं ! शराब ?…क्या आप शराब पीएंगी ?

हाँ रे ! बहुत दिनों से नहीं पी है। बहुत प्यास लगी है रे !

नावेल्टी (अब दीपक टॉकीज़) के बगल में एक संकरी सी गली है। उसी गली में उस समय संगम बार था। खाने-पीने का अच्छा प्रबन्ध था उसमें। मैं स्वर्णा को उसी बार में ले गया। फिर खूब छक कर मदिरा-पान कराया। मुर्गा भी उसने खाया। बिल आया दो सौ बीस रूपये का। अपने मित्र से रूपये लेकर बिल चुकाया मैंने। मेरे पास रुपया कहाँ था इतना।

दूसरे दिन मेरे मित्र फिर मिले मुझसे : विकास यार, बड़े ही आश्चर्य की बात है। जो रूपये मैंने दिए थे बिल के रूप में, वे तो मेरी जेब में ही पड़े हैं। भाई यह चमत्कार तो मेरी समझ में नहीं आया। कौन थी वह महिला ? क्या तुमसे फिर भेंट हुई उससे ?

हंसकर टाल दिया मैंने। जवाब भी क्या देता ? यदि मित्र को वास्तविकता से परिचय भी कराता तो क्या वे विश्वास करते ? वे तो मुझे बेवकूफ ही समझते।

उसी दिन तारानाथ भी मिल गए मुझको। मैंने उन्हें एक-एक करके सारी घटनाएं बतलायीं। सब कुछ सुनने के बाद वे बोले–तुमको तो बतलाया ही था कि उच्च कोटि की तंत्र-साधिका है स्वर्णा। कुण्डलिनी जागृत है उसकी। स्वर्णा को कुण्डलिनी के कारण ही मानवेतर शक्ति प्राप्त है। वह अपनी शक्ति के बल पर असम्भव से असम्भव कार्य कर सकती है–इसमें किसी भी प्रकार का आश्चर्य नहीं।

   फिर एक दीर्घ अन्तराल ! उस चमत्कारी सन्यासिनी के दर्शन दुर्लभ हो गए। खोजने का प्रयास भी किया मगर असफल रहा।

  आखिर थक-हार कर बैठ गया।

  एक दिन साँझ के समय मैं अपने कमरे में बैठा कुछ लिख-पढ़ रहा था, तभी अचानक आ गयी स्वर्णा।   

   आश्चर्यचकित हो उठा मैं। उस समय भी वह भिखारिन की वेशभूषा में नहीं थी, बल्कि बिलकुल किसी राजकुमारी की तरह एकदम राजसी परिधान में सज-धज कर आई थी उस समय। आयु भी कम ही लग रही थी। जान पड़ता था कि 17-20 वर्ष की है। कमरे में घुसते ही वातावरण में जैसे इत्र का सैलाव उमड़ आया हो।

   चौंक कर पूछा मैंने–अरे ! आप ? यहाँ कैसे आयीं ? मेरा  मकान कैसे मिला आपको ? इतने दिनों तक रहीं कहाँ आप ?

   इस प्रकार एक साथ मेरे कई प्रश्न सुन कर वह हंस पड़ी एकबारगी। फिर बोली–यह आप-आप क्या लगा रखा है तुमने ? अरे तुम मुझे खोज रहे थे न ? पागल हुए जा रहे थे मेरे लिए, इसलिए सोचा– मिल लूँ, नहीं तो….!

    नहीं तो क्या ?

    फिर हंसने लगी वह, बोली–तुम न जाने कितने योगियों से मिले हो। न जाने कितने साधक-साधिकाओं से मिले हो। उन सबकी स्मृतियाँ तुम्हारे साथ हैं। सोचा, चलो, मैं भी तुम्हारे मस्तिष्क के किसी एक कोने में स्मृति बनकर हमेशा के लिए रह जाऊँ। कभी तो याद करोगे तुम मुझे ?

   स्वर्णा को क्या हो गया है कि इस तरह की बहकी- बहकी बातें कर रही है। कहीं शराब तो नहीं पी रखी है उसने ?

  मेरा अनुमान सही निकला। शराब पी रखी थी उसने। उसके मुख से शराब का एक तेज भभका निकला और वातावरण में घुल-मिल गया।

  मैंने नाक पर रूमाल रख लिया।

 अच्छा तो तुम शराब से घृणा करते हो ?–लड़खड़ाते स्वर में बोली स्वर्णा–देखना एक दिन शराब ही तेरी सिद्धि बन जायेगी। बिना शराब के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकोगे तुम..समझे।

   सचमुच आज भी उस तान्त्रिक सन्यासिनी की स्मृति सुरक्षित है मेरे मस्तिष्क में। लगभग 15 वर्ष का लम्बा अरसा बीत गया, मगर आज भी वह महान तंत्र -साधिका मेरे मानस-पटल पर छाई हुई है। जब-कभी उसकी स्मृतियों में डूब जाता हूँ, तो ऐसा लगता है कि वह मेरे सामने ही आकर खड़ी हो गयी है और मेरी ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्करा रही है।

**

      सावन-भादों का महीना था। कुछ देर पहले तक आसमान साफ था, मगर देखते-ही-देखते हवा तेज हो गयी और काले-भूरे बादलों से आसमान भरकर काला हो गया। पहले ‘टप-टप’ करके बूंदें टपकी फिर झर झर कर बरसने लगा पानी। उद्दाम हवा का विलाप भी गूंज उठा बारिश के लय के साथ। धीरे- धीरे उसकी गति तेज हो गयी।

थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद अचानक शराब की मांग कर बैठी स्वर्णा। कहने लगी–शराब चाहिए, प्यास लगी है, गला सूख रहा है। जल्दी जाकर ले आओ कहीं से।

    मैं घबरा गया। शराब पीने को कौन कहे, उसे स्पर्श तक नहीं किया था मैंने कभी। उस समय इतना पैसा भी नहीं था कि किसी को भेजकर मंगवा लेता।

  शायद मेरे संकोच को समझ गयी वह साधिका। उसने एक बार गहरी नज़र से मेरी ओर देखा, फिर दोनों हाथों को हवा में हिलाया।

  उसकी यह रहस्यमयी क्रिया मेरी समझ में नहीं आई, मगर दूसरे ही क्षण आश्चर्य और कौतूहल के मिले-जुले भाव से  भर गया मेरा मन।    

   देखा–उसके दोनों हाथों में न जाने कब और कैसे बिलायती शराब से भरी हुई दो बोतलें आ गयी थीं। मुस्करा कर बोली वह–ले, तू नहीं लाया तो मैंने ही मंगवा लीं।

  मैं क्या बोलता। मुंह बाये शराब की बोतलों की ओर देखता रहा। फिर दोनों बोतलें खाली हो गयीं। कुछ ही क्षणों में सारी शराब पी गयी वह। चेहरा उसका तमतमा उठा और आँखें उसकी गुड़हुल के फूल की तरह लाल हो गयीं।

   हवा में हाथ लहरा कर कीमती शराब की बोतल उत्पन्न करने का चमत्कार देखकर मैं उसका रहस्य जानने के लिए उत्कण्ठित हो उठा।

   योगी-साधकों के द्वारा किसी भी वस्तु की सृष्टि तीन प्रकार से हुआ करती है–योग-बल से, विज्ञान-बल से और प्रेत-बल से। यह मैं जानता था और यह भी जानता था कि प्रेत-बल से इस प्रकार का कार्य निम्न कोटि की सिद्धि है। न वह यथार्थ होता है और न तो स्थायी ही।

  सहज भाव से मैंने पूछा–आपने शराब की बोतल किस शक्ति के बल पर मंहवाई है ?

  आतंरिक मनः-शक्ति की सहायता से जिसे विज्ञान-बल भी कहा जाता है। आतंरिक मनोबल ही एकमात्र विज्ञान-बल  है।

    फिर योग-बल क्या है ?

    जिस प्रकार मन में आकर्षण-विकर्षण है, उसी प्रकार प्राण में भी आकर्षण-विकर्षण है। यह वेद-विज्ञान का विषय है। वेद में प्राण के आकर्षण-विकर्षण को ‘एतिच्-प्रेतिच’ कहते हैं। श्वास-प्रश्वास उसके स्थूल या भौतिक रूप हैं। प्राण-बल ही एकमात्र योग-बल है।

  क्या दोनों की सहायता से समान रूप से सृष्टि सम्भव है ?

  हाँ, जहाँ आकर्षण और विकर्षण तत्व की मात्रा समान और अधिक होगी, वहाँ उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। फिर भी योग-बल सर्बश्रेष्ठ है क्योंकि उससे मौलिक सृष्टि होती है।

  मौलिक सृष्टि से आपका क्या तात्पर्य है ?–समझा नहीं मैं।

  शरीर में ऐसे बहुत से स्थान हैं, जहाँ शून्य के सिवाय और कुछ नहीं है। योगियों का कहना है कि जहाँ शून्य है, वहीँ शक्ति का केंद्र समझना चाहिए। शरीर में 10-12 शक्ति केंद्र हैं जिनमें कुछ मनः-शक्ति के केंद्र हैं तो कुछ प्राण-शक्ति के। विद्युत् शक्ति की तरह उस शक्ति की भी धनात्मक और ऋणात्मक धाराएँ हैं। पहली धारा में आकर्षण क्रिया और दूसरी धारा में विकर्षण क्रिया कार्य करती है।

      मैंने कहा–जैसा कि बतलाया गया है, मन और प्राण के दो रूप हैं। पहला है–बाह्य रूप और दूसरा है आतंरिक रूप। आपके सिद्धान्त का सम्बन्ध किस रूप से है ?

  दोनों के आतंरिक रूप से। आतंरिक मन और प्राण को ही सूक्ष्म मन और सूक्ष्म प्राण कहते हैं। बाह्य मन और प्राण के संयम से सूक्ष्म मन और सूक्ष्म प्राण पर अधिकार किया जा सकता है। प्राण पर अधिकार योग का और मन पर अधिकार तंत्र का विषय है। सूक्ष्म प्राण पर अधिकार हो जाने पर उसकी आकर्षण-विकर्षण शक्ति की सहायता से किसी भी वस्तु की मौलिक सृष्टि की जा सकती है।

**

    सुवर्णा बोली : किसी भी वस्तु की सृष्टि में दो तत्व कार्य करते हैं–चेतन तत्व और जड़ तत्व जिन्हें वैदिक विज्ञान में–‘देवतत्व’ और ‘भूततत्व’ कहते हैं। सूक्ष्म प्राण-चेतना या शक्ति ‘तत्व’ है पर उसके द्वारा सृष्टि के लिए भूततत्व का होना भी अनिवार्य है।

वायुमण्डल में सभी प्रकार के भूततत्व के अणु-परमाणु विद्यमान हैं। योगी लोग सूक्ष्मतम प्राण की आकर्षण व विकर्षण शक्ति के माध्यम से उन अणु-परमाणुओं को केंद्रित कर इच्छानुसार किसी भी वस्तु की सृष्टि कर देते हैं। सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं में ‘पृथ्वीतत्व’ मुख्य होता है। पृथ्वीतत्व सबसे अधिक स्थूल होता है जिस कारण वे वस्तुएं आँखों को दिखाई पड़ती हैं, शेष तत्व गौण होते हैं। इसलिए यौगिक सृष्टि में पृथ्वी तत्व के अणु-परमाणुओं को मुख्य आधार बनाया जाता है। योगी की इच्छा-शक्ति भी वहीँ केंद्रित रहती है। शेष तत्व ‘चेतना’ की सहायता से वस्तु या पदार्थ के निर्माण में सहयोग देते हैं। प्राकृतिक सृष्टि और यौगिक सृष्टि के मूल से कोई अन्तर नहीं है, और अन्तर है भी।

वह क्या–मैंने पूछा।

प्राकृतिक सृष्टि ‘स्वयंभू’ सृष्टि है। उसके आधार पर किसी की इच्छा नहीं है, इसलिए प्रकृति-प्रदत्त वस्तु धीरे-धीरे नाश की ओर उन्मुख होती जाती है। प्रकृति में जहाँ निर्माण है, वहीँ नाश भी है, मगर यौगिक सृष्टि में यह बात नहीं है। वह स्वयंभू सृष्टि नहीं है। उसके पीछे योगी की इच्छा है जो कार्य करती है। इच्छा के आधार पर ‘भूततत्व’ और ‘चेतनतत्व’ मिलकर वस्तु की रचना करते हैं, इसलिए जिस वस्तु की यौगिक सृष्टि होती है, उस का कभी किसी काल में नाश नहीं होता। उसके रूप और गुण में भी कोई परिवर्तन नहीं होता या विकृति नहीं पैदा होती।

मनोबल से कैसे सृष्टि सम्भव है ?

प्राण सबसे ‘सूक्ष्म’ और ‘सूक्ष्मतर’ है, मगर ‘मन’ प्राणों से भीे ‘सूक्ष्मतर’ और ‘सूक्ष्मतम’ है। इसलिए मन की शक्ति और गति प्राण से अधिक है और यही कारण है कि योग से तंत्र को ऊँचा माना गया है।

स्वप्न और कल्पना बहिर्मन का विषय है। बहिर्मन सपने देखता है और कल्पना करता है। यही दो विषय बहिर्मन के हैं, मगर जब वही सपना और कल्पना अंतर्मन की सीमा में प्रवेश करते हैं और अंतर्मन का विषय बनते हैं तो उनके रूप और गुण– दोनों बदल जाते हैं। सपना ‘अतीन्द्रिय दर्शन’ एवं ‘ज्ञान’ तथा कल्पना ‘संकल्प’ का रूप धारण कर लेती है। एक हो जाता है–अतीन्द्रिय दर्शन व ज्ञान तथा दूसरा हो जाता है–संकल्प। मतलब यह कि सपना और कल्पना का चरम विकसित रूप है–अतीन्द्रिय दर्शन और संकल्प।

इन दोनों का चरम विकास सम्भव कैसे है ?

इसके लिए केवल एक ही उपाय है और वह है एकमात्र ध्यान, और वह ध्यान भी ऐसा कि जिसमे चित्त एकाग्र और विचारशून्य हो। कहीं कोई विकार न हो। विकारशून्य और विचारशून्य ध्यान ही हमें बहिरमन से अंतर्मन में ले जा सकता है। हम जितना इसमें सफल होंगे, उतने ही मन के आतंरिक रूप को पकड़ सकेंगे। एक बात और समझ लो तुम, वह यह कि मन के दोनों रूप जहाँ जिस सीमा पर मिलते हैं, वहीँ ‘समाधि’ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मतलब यह कि हम मन के आतंरिक रूप के द्वारा ‘समाधि की स्थिति’ में पहुँचते हैं। विकारशून्य और विचारशून्य अवस्था का नाम ही समाधि है।

    आतंरिक मन के दो विषय हैं। पहला है–संकल्प और दूसरा है–अतीन्द्रिय दर्शन या ज्ञान। अंतर्जगत की ये दो महान शक्तियां हैं–इसमें सन्देह नहीं। यदि इन दोनों शक्तियों की उपलब्धि हो जाये तो निस्संदेह मनुष्य एक विशेष सीमा तक अपने आप में मानवेतर कार्य कर सकने की क्षमता उत्पन्न कर सकता है। संकल्प में असीम शक्ति है।

      संकल्प-शक्ति के द्वारा वह इच्छानुसार किसी भी वस्तु या पदार्थ का निर्माण कर सकता है। इसके आलावा वह जो चाहे, वह कर सकता है। कुछ भी असम्भव नहीं उसके लिए।

   इसी प्रकार अतीन्द्रिय दर्शन या ज्ञान के द्वारा वह एक स्थान पर बैठे-बैठे ही सैकड़ों-हज़ारों मील दूर घटने वाली घटनाओं और सम्बन्धित दृश्यों को आँख बंद करके देख-सुन और समझ सकता है।

    संकल्पसृष्टि के अंतर्गत क्रम से चार प्रक्रियाएं हैं। पहली है–संकल्प, दूसरी है–वस्तु का ध्यान, तीसरी है उस ध्यान के सहयोग से समाधि की स्थिति में पहुँचना और चौथी प्रक्रिया है–सम्बंधित वस्तु के रूप-गुण और स्वभाव का उस स्थिति में बोध करना। मैंने इन्हीं चार प्रक्रियाओं द्वारा शराब की बोतलों की सृष्टि की थी।

**

     तो आपको दूसरी शक्ति भी उपलब्ध होगी ?–मैंने स्वर्णा से पूछा।

मेरी बात सुनकर हँसने लगी स्वर्णा। फिर बोली–तुम तो बिलकुल बच्चों जैसी बात करते हो। जब साधक को सिद्धि या शक्ति प्राप्त हो जाती है तो दूसरी सिद्धि या शक्ति प्राप्त होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती उसे। लेकिन प्रयास बराबर करते रहना चाहिए। अच्छा, अब बोलो तुम क्या चाहते हो ?

    अब तक यह सब देख-सुन कर मैं स्वर्णा के व्यक्तित्व के प्रति अत्यधिक आकर्षित हो चुका था। मेरे मस्तिष्क में उस समय तरह-तरह की जिज्ञासाएँ उमड़-घुमड़ रही थीं। मन में तरह-तरह के विचारों के तूफ़ान उठ रहे थे। क्या अतीन्द्रिय शक्ति की सहायता से मनुष्य भूत, भविष्य और वर्तमान–तीनों कालों की घटनाओं और उनसे संबंधित दृश्यों को देख सकता है, जान-समझ सकता है अथवा बतला सकता है ?–मैंने प्रश्न किया।

क्यों नहीं ? जिसे अतीन्द्रिय शक्ति उपलब्ध है, उसके लिए यह अत्यन्त सरल है।

     एकाएक मैंने पूछा–अच्छा, क्या आप अतीन्द्रिय शक्ति का कोई चमत्कार दिखा सकेंगी इस समय ?

क्या देखना चाहते हो ? बोलो।

मेरे एक मित्र हैं–नाम विपिन है, चार साल से गायब हैं वह, काफी खोजा गया, मगर कोई पता न चला उनका। क्या आप बता सकतीं हैं वह महाशय कहाँ हैं ?

     सुवर्णा ने ध्यान की मुद्रा में आसन लगा कर थोड़ी देर के लिए आँखे बंद कर लीं, फिर उसी स्थिति में कहने लगीं–मैं तुम्हारे मित्र के तीनों काल बताऊंगी। पहले भूतकाल सुनो।

18 जनवरी को सायंकाल तुम्हारा मित्र सिनेमा देखने के लिए कहकर घर से निकला, मगर सिनेमा गया नहीं। उसके पास उस समय दो हज़ार रूपये नगद और लगभग पांच हज़ार रुपयों के जेवर थे। वह एक लड़की के चक्कर में था। उसी को लेकर कराची चला गया। उस लड़की का नाम था–सावित्री। पूरे दो महीने कराची में रहने के बाद वे दोनों बम्बई चले गए। वहाँ उन्होंने शादी कर ली।

इतनी सारी बातें मुझे मालूम नहीं थीं। बाद में मैंने पता लगाया तो 18 जनवरी को सायंकाल विपिन के जाने तथा रुपयों और जेवर की बात सच निकली।

     सुवर्णा ने आगे बतलाया–

बाद में विपिन को धोखा देकर उसकी पत्नी किसी पारसी युवक के साथ गोवा चली गयी। उसकी बेवफाई से टूटा विपिन इस समय बम्बई में अकेला रह कर एक फ़िल्म स्टूडियो में नौकरी कर रहा है। वह घर आना चाहता है, मगर लाज और संकोचवश उसकी आने की हिम्मत नहीं हो रही है।

   थोड़ा रुककर सुवर्णा ने आगे कहा–यह तो हुआ तुम्हारे मित्र का भूत और वर्तमान काल। अब भविष्य भी थोड़ा सुन लो।

दीपावली के ठीक दो दिन पहले वह घर वापस लौट आएगा। अकेला नहीं आएगा वह, उसके साथ उसकी दूसरी पत्नी भी होगी।

कहने की आवश्यकता नहीं– स्वर्णा की कही हुई ये सारी बातें अक्षरशः सच निकलीं।

       काले आकाश का बदन जलाती हुई बिजली चमकी। प्रकाश की एक रेखा आसमान के एक कोने से दूसरे कोने तक कांप गयी। गीली बरसाती हवा का तेज झोंका आया और ठंडी हवा का सैलाव कमरे के भीतर फ़ैल गया। कमरे में जलती लालटेन की पीली लौ सहसा बुझ गयी।

  शराब की दोनों बोतलें खाली हो चुकीं थीं। स्वर्णा ने सुषुप्तिभरी दृष्टि से मेरी ओर देखा, फिर भर्राये स्वर में कहने लगी वह–अशरीरी अथवा सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं की सहायता से भी मनचाही वस्तुओं और पदार्थों को प्राप्त किया जा सकता है। इतना ही नहीं, उनके द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान की किसी भी घटना की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसे तमोबल कहते हैं। विज्ञान-बल का ही एक अंग समझना होगा इसे।

     आन्तरिक-मानसिक शक्ति के साथ-साथ मंत्र-शक्ति का भी प्रयोग होता है। इस दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए योगी भी होना आवश्यक है। मन, प्राण और मन्त्र–तीनों की शक्ति, इच्छा में केंद्रित होनी चाहिए तभी अशरीरी आत्माओं से संपर्क स्थापित हो सकता है, वर्ना नहीं। तभी इच्छानुसार कार्य भी होता है और उनसे सहायता भी मिलती है हर दिशा में, मगर खतरा भी है साथ-साथ।

   ये जो लोग पान, सुपाड़ी, लोंग, इलाइची अथवा फल-फूल, मिठाई, भभूत आदि दर्शकों के सामने हवा में हाथ लहराकर पैदा करते हैं–वह सब क्या है ?

     मामूली प्रेत-लीला समझो। नेत्रबंध भी कह सकते हो उसे, मगर ऐसी सृष्टि में स्थायित्व नहीं होता। उसका उपयोग भी निरर्थक होता है। कोई फायदा नहीं। वासना और कामना लिए हुए जो लोग मरते हैं, वे ही प्रेत होते हैं। प्रेतात्मायें सूक्ष्म शरीरधारी नहीं, वासना शरीरधारी होती हैं। अपनी वासनाओं के अनुरूप स्वयं अपने शरीर की रचना कर लेती हैं वे।

      ये सब सुनकर प्रेतों के सम्बन्ध के साथ और कुछ जानने की उत्सुकता जागृत हो गयी मेरे मन में। एक साथ कई प्रश्न कर डाले मैंने जिनके उत्तर में स्वर्णा ने बतलाया– शरीर एक यंत्र के सिवाय और कुछ नहीं है। महत्वपूर्ण है ‘आत्मा’ और उसके बाद मूल्य है ‘मन’ का। आत्मा और मन –बस ये ही दो हैं महत्वपूर्ण।

    क्या ‘प्राण’ का कोई प्रयोजन नहीं है ?–मैंने बीच में ही टोककर प्रश्न किया–क्या जीवन का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है ?

     आत्मा, मन और शरीर–ये तीनों जिस सूत्र में बंधते हैं और बंधकर जो जीवनी-शक्ति के रूप में प्रकट होते हैं, वही हैं–‘प्राण’। साधारण लोगों के लिए प्राण का मूल्य है, मगर योगी और साधकों के लिए उसका न कोई महत्व है और न कोई मूल्य ही। इसलिए कि वे बिना प्राण के भी जीवित रह सकते हैं और आत्मा तथा मन से शरीर का सम्बन्ध बनाये रख सकते हैं।

    शरीर में प्राण से सम्बंधित महत्वपूर्ण केंद्र है–ह्रदय। आत्मा और मन से शरीर का प्राण-सम्बन्ध इसी केंद्र के द्वारा जुड़ता है। प्राण की आकर्षण-विकर्षण शक्ति से ह्रदय बराबर धड़कता रहता है जिसके फलस्वरूप शरीर से मन का और मन से आत्मा का तारतम्य बना रहता है। साधारण लोगों की भाषा में इसी का नाम ‘जीवन’ है।

     मगर योगीगण ह्रदय की धड़कन को बंद कर सकते हैं। बिना प्राण के भी जीवित रह सकते हैं वे और बिना प्राण के शरीर से मन और आत्मा का सम्बन्ध भी बनाये रख सकते हैं।

**

      सुवर्णा बोली : तुमने स्वामी ब्रह्मयोगी का नाम सुना होगा। उन्होंने सन् 1960 ई. में कलकत्ता, रंगून, ऑक्सफ़ोर्ड आदि विश्वविद्यालयों में अपने ह्रदय की धड़कन बन्द करने के कई प्रयोग किये थे। वह 10 से 25 मिनट तक अपने ह्रदय की धड़कन को बन्द कर लेते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक साथ 10 डॉक्टरों ने उनकी जाँच की थी क्योँकि ब्रह्मयोगी ने कहा था कि जब मेरे ह्रदय की गति बन्द हो जाये तो आप समझ लीजिये कि मैं मर गया या जीवित हूँ, इस पर दस्तखत कर दें। अतः 10 डॉक्टरों ने उनकी मृत्यु के प्रमाण-पत्र पर दस्तखत किये कि यह आदमी मर गया….मरने के सभी लक्षण पूरे हो गए।

     लेकिन 25 मिनट के बाद ब्रह्मयोगी वापस लौट आये। ह्रदय फिर धड़कने लगा। साँस फिर चलने लगी। नाड़ी फिर दौड़ने लगी। आखिर ब्रह्मयोगी अपना मृत्यु प्रमाण- पत्र जब मोड़कर जेब में रखने लगे, तो उन डॉक्टरों ने विनम्रता से कहा–कृपा करके यह प्रमाण-पत्र हमें वापस कर दें। क्योंकि इसमें हम फंस सकते हैं। हमने लिख दिया कि आप मर चुके हैं।

जानते हो ब्रह्मयोगी ने क्या कहा ?    

  वह बोले– इसका अर्थ यह हुआ कि तुम जिसे ‘मृत्यु’ कहते हो, वह मृत्यु नहीं है। ह्रदय की धड़कन बन्द होने से मरने का कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है। हम सिर्फ इसलिए मर जाते हैं क्योंकि हमें यह पता नहीं है कि अब इस ह्रदय को फिर कैसे धड़काया जा सकता है।

निश्चय ही जिसे डा.या हम लोग मृत्यु कहते हैं, वास्तव में वह मृत्यु नहीं है। जहां तक हम सम्बंधित हैं, वह मृत्यु है क्योंकि हम अपने आपको बाहर से जानते-समझते हैं। फेफड़े से जानते हैं, ह्रदय से नहीं। शरीर से जानते हैं, आत्मा से नहीं। परिधि से जानते हैं, केंद्र से नहीं। परिधि मर जाती है और उसी को हम मृत्यु कह देते हैं।

      हमें केंद्र के अस्तित्व का कोई पता नहीं है। इसीलिए हम म्रत्यु मान लेते हैं। वह केवल मान्यता है। अगर हमें अपने केंद्र का पता चल जाये तो फिर कोई मृत्यु नहीं है। मृत्यु से बड़ा इस जगत में कोई असत्य नहीं है। लेकिन मृत्यु से बड़ा कोई सत्य भी नहीं जान पड़ता इस जगत में। मृत्यु बड़ा ही गहन सत्य है जिसे बाहर से समझना मुश्किल है। हम बाहर-बाहर जीते हैं और बाहर मृत्यु ही सब कुछ है।

अगर भीतर जा सकें और भीतर का जीवन जी सकें तो जीवन ही सब कुछ है। बाहर है मृत्यु और भीतर है जीवन।

  सुवर्णा पलभर रुककर बोली–

  अब मैं मुख्य विषय पर आती हूँ। मन बीच में है। उसके एक ओर शरीर है और दूसरी ओर है आत्मा, मगर एक बात का ख्याल रखना होगा कि आत्मा स्वतंत्र है, वह कभी भी परतंत्र नहीं हो सकती। मन परतंत्र है मगर वह प्रयास से स्वतंत्र हो सकता है। मन और शरीर दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं।–इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा। बिना मन के, शरीर कुछ नहीं कर सकता। वह मृतक है बिना मन के।

    मन भी बिना शरीर के, कुछ कर सकने में असमर्थ है। जब आत्मा मन के साथ जुड़ती है तो शरीर अनिवार्य हो जाता है क्योंकि मन की वासनाओं की तृप्ति बिना शरीर के नहीं हो सकती। भूत-प्रेत, बाधा के मूल में यही कारण है। यदि प्रेत हैं तो वे मनुष्य के शरीर में क्यों प्रवेश करते है ?–यह समझने की बात है।

   प्रेतात्मा वह है जिसका शरीर तो छूट गया है लेकिन उसका मन उससे अलग नहीं हुआ है। मन शरीर की मांग करता है। क्योंकि मन की सारी वासनाएं शरीर के द्वारा तृप्त हो सकती हैं, पूर्ण हो सकती हैं।

  मरते समय सारी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती हैं और मन लीन हो जाता है आत्मा में लेकिन जैसे ही शरीर में आत्मा प्रवेश करती है, वैसे ही शरीर में सारी इन्द्रियां प्रकट होकर अपना-अपना कार्य करने लग जाती हैं और मन उन इन्द्रियों के द्वारा हुए कार्यों को अनुभव करने लग जाता है। मन से शरीर का सम्बन्ध जुड़ते ही इन्द्रियां अपने आप प्रकट होती हैं। प्रेतात्माओं के मन तो वासनाओं से लवालव भरे होते हैं।

  लेकिन शरीर की तरह इन्द्रियां नहीं हैं। ये अभाव ही उनके दुःखों के कारण हैं और यही कारण हैं प्रेतों के जीवित व्यक्तियों के शरीर में प्रवेश करने के। प्रेत का जो मन है, वह उस व्यक्ति के शरीर और इन्द्रियों की सहायता से अपनी वासनाओं को तृप्त करने लग जाता है।

   सुवर्णा पुनः पलभर रुकी, इसके बाद बताने लगी- प्रेत का मतलब केवल इतना ही है कि जिसके पास शरीर नहीं है, मन है मगर वह भी वासनाओं का भरा हुआ। सामान्यतया मरते ही व्यक्ति को दूसरा शरीर मिल जाता है। इधर मरे और उधर जन्मे। कोई अन्तर नहीं पड़ता। जीवन के प्रति जिसके मन में प्रबल लालसा है, उसका जन्म तत्काल सम्भव है। जन्म उस व्यक्ति का  जल्दी नहीं होता और प्रेतयोनि भी उसी व्यक्ति को मिलती है, जिसका मन मरते समय आत्मा में लीन नहीं हो पाता है। ऐसी अवस्था में मन यदि बुरी और तामसिक वासनाओं से भरा है तो उस व्यक्ति को प्रेतयोनि मिलती है। यदि मन अच्छी और राजसी वासनाओं से भरा है तो उसे सूक्ष्म शरीर मिलता है। प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा में बस यही अन्तर है।_

     इसी प्रकार जिस मृत व्यक्ति का मन सात्विक गुणों, भावों और वासनाओं से भरा है और मरते समय वह आत्मा से अलग रह गया है, उसमें लीन नहीं हो पाया है तो उस मृत व्यक्ति की आत्मा को ‘देवात्मा’ कहा जाता है।

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      सुवर्णा ने स्पस्ट किया : इस प्रकार पारलौकिक जगत में तीन प्रकार की आत्माएं हैं। पहली है–प्रेतात्मा, दूसरी है–सूक्ष्मात्मा और तीसरी है–देवात्मा।

इस दृष्टि से पारलौकिक जगत भी तीन मुख्य भागों में विभक्त है। पहले में देवत्माएँ निवास करती हैं। दूसरे में सूक्ष्मात्मायें और तीसरे में रहती हैं–प्रेतात्माएँ। तमोबल का सम्पूर्ण विषय पारलौकिक जगत से ही सम्बंधित है।

मैंने पूछा–मरते समय मन आत्मा में कैसे लीन हो सकता है ?

एकाग्रता से. स्वर्णा ने बताया–मरते समय मन कहीं भटक नहीं रहा है अथवा किसी प्रकार वासना में डूबा हुआ नहीं है तो ऐसी स्थिति में वह अपने आप आत्मा में लीन हो जाता है। मरते समय शरीर से आत्मा अलग होते समय मन स्थिर और एकाग्र रहे–इसी कारण उस समय लोगों को धार्मिक पुस्तकों को पढ़कर सुनाया जाता है..भगवान का नाम सुनाया जाता है। इन सबसे केवल इतना ही लाभ है कि मन कुछ क्षणों के लिए स्थिर और एकाग्र हो जाता है। यदि उन्हीं कुछ क्षणों में आत्मा ने शरीर छोड़ दिया तो समझ लो कि मन उसमें लीन हो चुका है।

तीनों प्रकार की आत्माएं अपनी-अपनी सीमा में भटकती रहती हैं शरीर पाने के लिए, लेकिन शरीर उन्हें तभी मिलता है जब उनके मन की प्रमुख वासनाएं क्षीण हो जाती हैं और वह आत्मा में लीन हो जाता है। इसमें एक दिन भी लग सकता है और एक हज़ार वर्ष भी। वे तीनों प्रकार की आत्माएं अपनी-अपनी वासनाओं के अनुरूप मनुष्य की अच्छी-बुरी सहायता करने के लिए बराबर तैयार रहा करती हैं। अनजाने में सहायता किया भी करती हैं।

पारलौकिक जगत के रहस्यों से जो लोग परिचित हैं और तमोबल पर जिनका अधिकार है, वे इन तीनों प्रकार की आत्माओं से इच्छानुसार संपर्क स्थापित कर सकने में समर्थ होते हैं और संपर्क स्थापित करके उनसे इच्छानुसार सहयोग भी प्राप्त करते हैं।

      प्रेतात्माओं की स्थिति तो तामसिक वासनाओं के कारण पागलों जैसी होती है, इसलिए उनसे किसी प्रकार का स्थायी सहयोग नहीं प्राप्त किया जा सकता है। वे केवल मंत्र-बल के प्रभाव के वशीभूत होकर भभूत, लोंग, इलाइची आदि ही ला सकती हैं। इनसे कहीं अधिक प्रबल व शक्तिशाली होती हैं–सूक्ष्मात्माएँ।

उनसे जो सहायता या सहयोग प्राप्त होता है, उनमें थोड़ा स्थायित्व होता है। उनसे संपर्क स्थापित करने के लिए मंत्र-बल के साथ-साथ इच्छा-शक्ति का होना भी आवश्यक है। मन्त्र और इच्छा इन दोनों की मिश्रित शक्तियों के वशीभूत होकर वे सूक्ष्मात्मायें एक विशेष सीमा तक मनुष्य की सहायता करती हैं। मनोनुकूल कार्य भी करती हैं।

तीसरी हैं–देवात्माएँ। वे बहुत ही शक्तिशाली और क्षमता वाली होती हैं। सूक्ष्म जगत की सबसे प्रबल एवं शक्ति-संपन्न आत्मा समझी जाती हैं। उनसे संपर्क स्थापित करने और मनोनुकूल सहयोग प्राप्त करने के लिए विशेष यौगिक क्रियाओं की आवश्यकता पड़ती है।

     विशेष रूप से वे देवात्माएँ मनुष्य के विचारों और भावों को प्रभावित करती हैं। आध्यात्मिक और बौद्धिक चिंतन-मनन की दिशा में उनका सहयोग विशेष रूप से प्राप्त होता है। ज्ञान-विज्ञान के तिमिराच्छन्न रहस्यों को समझने तथा उन्हें प्रकाश में लाने की दिशा में भी वे सहायता करती हैं।

     सुवर्णा ने कहा–यह बताने की आवश्यकता नहीं है–अब तक भारतीय साहित्य, संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो भी प्रगति हुई है या हो रही है–वह सब उन्हीं की अगोचर सहायता से हुई है और हो रही है।

    मनुष्य मस्तिष्क में फैले हुए सूक्ष्म ज्ञान-तंतुओं से उन आत्माओं का सम्बन्ध रहता है। मनुष्य जिस दिशा में सोचता-विचारता है, तत्काल उसी दिशा में वे उसकी सहायता करने लग जाती हैं। वास्तव में सूक्ष्म अथवा पारलौकिक जगत की इन तीनों प्रकार की आत्माओं का कार्य-व्यापार अत्यधिक रहस्यमय है।

     उनकी मति-गति और क्रिया-कलाप भी कम रहस्यमय और विलक्षण नहीं है, फिर भी उन्हें मानवीय श्रेणी में ही लिया जाता है, क्योकि वे कभी मनुष्य थीं और भविष्य में भी उनके मनुष्य होने की पूरी संभावना है।

**

       धीरे-धीरे रात का पहला प्रहर बीत गया। विषय कुछ ऐसा था कि समय का कुछ पता ही न चला किसी को। बारिश अभी भी हो रही थी। बीच-बीच में बिजली कौंध जाती थी और उसी के साथ बादल भी बुरी तरह से गरज उठते थे। सम्मोहनभरी दृष्टि से स्वर्णा ने फिर एक बार मेरी ओर देखा और भर्राये स्वर में बोली–फिर प्यास लग गयी रे !

मैं क्या बोलता ! मेरा मन तो चमत्कारों की दुनियां में उलझा हुआ था उस समय। अचानक कमरे का वातावरण कुछ अजीब-सा हो उठा। लालटेन की पीली रौशनी का दायरा एक बार कसमसाया फिर फ़ैल गया। कमरे के दरवाजे अपने आप खुल गए और उसी के साथ एक काली छाया प्रकट हो गयी वहां। उसे देखकर एकबारगी सहम गया।

      वह छाया बड़ी वीभत्स और बड़ी भयानक थी। पहले तो मेरी समझ में ही नहीं आया कि कैसी थी वह छाया, लेकिन बाद में जब उसका आकार-प्रकार स्पष्ट हुआ तो मैंने देखा कि वह एक ऐसी आकृति की छाया थी जो मनुष्य से मिलती-जुलती होते हुए भी मनुष्य की नहीं थी।

काफी लम्बी-चौड़ी काठी का था वह विचित्र व्यक्ति। कोहड़े की तरह बेडौल उसका सिर, माथा हद से ज्यादा चौड़ा, कान काफी लंबे, आँखे बड़ी-बड़ी तथा कानों तक खिंची हुई और उनमें पीले रंग की अजीब-सी चमक !

      नाक भी हद से ज्यादा लम्बी और नुकीली, नीचे का जबड़ा काफी बड़ा और भद्दे ढंग से झूल रहा था। वह ज़ोर-ज़ोर से उस समय साँस ले रहा था जिसकी आवाज़ कमरे में स्पष्ट रूप से सुनाई दे रही थी।

ऐसा रूप कभी देखने को मिलेगा–इसकी कल्पना तक मैंने नहीं की थी। स्तंभित हो गए मेरे मन-प्राण। भय से रोमांचित हो उठा मेरा सारा शरीर। उस गीली रात में उस अमानवीय छाया की उपस्थिति अत्यन्त डरावनी लगी मुझे। प्राण सूखने लगा मेरा।

      न जाने कब और कैसे मेरी दृष्टि स्वर्णा की ओर घूम गयी। देखा–पहले तो उसकी ऑंखें भावशून्य थीं लेकिन बाद में एकाएक जल उठीं जैसे। उस समय एक अतीन्द्रिय ज्योति थी उसकी आँखों में। दूसरे ही क्षण उसके होंठों पर एक पैशाचिक मुस्कान खेल गयी।

     मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। डरा-सहमा और भयभीत-सा दुबका रहा मैं कमरे के एक कोने में।

थोड़ी देर बाद सब कुछ सामान्य हो गया पहले जैसा। मैं जैसे सोते से जागा तो देखा कि स्वर्णा के सामने चमचमाती थाली में पूड़ी, सब्जी, खीर और तरह-तरह की मिठाइयां रखी हुई हैं। एक पात्र में पका हुआ मांस भी रखा हुआ था। इतना ही नहीं, बगल में शराब से भरी एक बोतल भी थी। निश्चय ही कीमती शराब थी वह।

हे भगवान ! कहाँ से आया यह सब ? उस गीली बरसाती रात में खाने-पीने की ये तमाम चीजें कौन और कब रख गया यहाँ ? यह सब मैं सोच ही रहा था कि स्वर्णा खिलखिला कर हंस पड़ी।

     शायद वह मेरे मन की बात समझ गयी। कहने लगी–क्या करूँ, भूख और प्यास दोनों लगीं थीं। जानती थी कि तुम तो कुछ खिलाओगे-पिलाओगे नहीं, इसीलिए सोचा कि अपने साथी से ही कुछ क्यों न मंगवा लूँ खाने-पीने के लिए ?

जब वह बोतल खाली कर चुकी और खाना भी खा चुकी तो मैंने पूछा–वह छाया कैसी थी ? किसकी छाया थी वह ? खाने की थाली और शराब की बोतल कैसे आई ?

     मेरी बात सुनकर पहले तो कुछ पल चुप रही स्वर्णा फिर धीमे स्वर में बोली–वह पिशाच था।

पिशाच ?–एकबारगी मेरे मुंह से निकल गया।

     हाँ, मुझे पिशाच सिद्ध है। उसी ने ये सब लाकर दिया है। उसके लिए ये चीजें मामूली हैं। मगर किसी से कहना मत ये सब बातें।

    यह सुनकर छाती के भीतर कुछ खाली-खाली-सा प्रतीत हुआ। भूत, प्रेत, पिशाच आदि का नाम तो सुना था। पर उनका इस तरह प्रत्यक्ष अनुभव भी होगा–सोचा तक न था। भय, संशय और आतंक के मिले-जुले भाव से भर गया मेरा मन।

     सुवर्णा ने बतलाया–जहाँ उन तीनों प्रकार की आत्माओं के लोक की सीमा समाप्त होती है, उसके बाद अंतरिक्ष में काफी विस्तृत शून्यक्षेत्र है। वह कितना लम्बा-चौड़ा है–यह बतलाया नहीं जा सकता। जानकार लोगों का कहना है कि उस क्षेत्र में सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर पातीं। फिर भी हल्का-सा प्रकाश सदैव विद्यमान रहता है वहां।

     अंतरिक्ष के उसी विस्तृत शून्यक्षेत्र में अनेक प्रकार की ऐसी दुर्धर्ष आत्माएं निवास करती हैं जो न कभी मनुष्य थीं और न कभी मनुष्य शरीर धारण कर सकती हैं। वे इस भव-चक्र से बिलकुल अलग हैं। प्रकृति पर उनका पूरा अधिकार होता है। वे चाहें तो प्रकृति में विकृति पैदा कर सकती हैं, संसार में भयानक उत्पात उत्पन्न कर सकती हैं, भयानक प्रलयंकारी स्थिति पैदा कर सकती हैं…जो चाहे वह कर सकने में समर्थ हैं वे। सामूहिक रूप से मनुष्यों पर प्रभाव डाल कर वे युद्ध की भी भयानक विभीषिका उत्पन्न कर सकती हैं।

     उनके अधिकार-क्षेत्र में बहुत कुछ है। उनकी तमोगुणी शक्ति की कोई सीमा नहीं। उन्हीं आत्माओं को हाकिनी-डाकिनी-शाकिनी, पिशाच, बेताल आदि कहते हैं। उनका कोई आकार-प्रकार अथवा रूप-रंग नहीं है। फिर भी वे इच्छानुसार,  आवश्यकतानुसार किसी भी रूप में प्रकट हो सकती हैं।

     कभी-कदा मनोरंजन या किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे मनुष्य का रूप धारण कर संसार में विचरण भी करती हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें पहचानना कठिन है।

**

       कुछ क्षण रूककर सुवर्णा ने बतलाया–बनारस में ऐसी ही एक डाकिनी काफी दिनों से औरत के रूप में है। यह सुनकर अवाक् रह गया मैं। आश्चर्य से पूछा मैंने– अच्छा ! क्या मैं उससे मिल सकता हूँ ?

क्यों नहीं ! घाट के किनारे की गलियों में वह इधर-उधर घूमती रहती है, भीख मांगती रहती है। मगर उसे पहचानना और समझना मुश्किल है। कोई यह नहीं कह सकता कि उस भिखारिन के भीतर किसी डाकिनी की आत्मा है। उसे बच्चा भी पैदा होता है, लेकिन मार कर खा जाती है वह।

      दूसरे ही दिन से मैं उन गलियों के चक्कर काटने लगा। ज्यादा खोजना नहीं नहीं पड़ा। एक टूटे-फूटे जर्जर मकान के चबूतरे पर बैठी मिल गयी मुझे वह। गोरा रंग, मगर मैल की पर्तें भी जमीं थीं शरीर पर कहीं-कहीं। दमकता, मुस्कराता चेहरा, धूल से भरे बाल, बदन पर लाल किनारी की मटमैली फटी साड़ी, ऑंखें बड़ी-बड़ी, पर गहरी थीं उनमें अथाह रहस्य भरा पड़ा था।

     उसने उसी रहस्यमयी दृष्टि से मेरी ओर देखा, फिर हंस पड़ी। सामने एक कटोरा पड़ा था जिसमें कई दिनों की सूखी रोटियां पड़ी थीं। पास ही टीन के एक डिब्बे में पानी भरा रखा था। अचानक वह बोल पड़ी–खाना खिलायेगा ?

क्या खायेगी ?–मैंने पूछा।

तेरा सिर..फिर ‘खी-खी’ कर हंसने लगी वह।

बड़ा ही अजीब लगा मुझे उसका व्यवहार। कुछ देर खड़ा-खड़ा उसकी पागलों जैसी हरकतें देखता रहा, फिर लौट आया मैं।

तीन-चार दिनों के बाद अचानक वह फिर मिल गयी मानसरोवर घाट की सीढ़ियों पर बैठी हुई। कुछ आवारा किस्म के लड़के उसे परेशान कर रहे थे। मुझे देखकर वह मुस्कराई।

उसी समय गंगा की धारा में बहती हुई एक लाश देखकर एकाएक चीख पड़ी वह, फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर उसे ज़ोर-ज़ोर से बुलाने लगी। उसके इस व्यवहार से लड़के सहम कर भागे। घाट सुनसान हो गया। चमत्कार ही कहा जायेगा उसे।

मैंने देखा–लाश धारा से निकलकर अपने आप घाट की ओर बढ़ने लगी। वह उसे बराबर बुलाये जा रही थी। धीरे-धीरे घाट की सीढ़ियों से आ लगी वह लाश। पगली लपक कर आई और लाश का कफ़न नोचने लगी। दूसरे ही क्षण लाश निर्वसन हो गयी पूरी तरह।

गौर से देखा–भले घर के किसी युवक् की लगी वह लाश। मरने के बाद भी उसके सौंदर्य और आकर्षण में कमी नहीं आई थी। लगता था जैसे गहरी नींद में सो रहा है वह। शरीर का गोरा रंग काला पड़ गया था। शायद सर्प के काटने से उसकी मृत्यु हुई थी।

        लगभग एक सप्ताह बाद मुझे वह पगली फिर मिली। उसके साथ एक युवक भी था उस समय। काफी स्वस्थ, सुन्दर और आकर्षक था वह। दोनों एक चबूतरे पर बैठे कुछ खा-पी रहे थे। मुझे देखकर वह पगली पहले तो चौंकी, फिर मुस्कराने लगी।

उनके नजदीक जब मैं पहुंचा तो चौंक पड़ा मैं एकबारगी। उस युवक का चेहरा उसी लाश से मिलता था जिसे उस पगली ने गंगा की धारा से बाहर निकाला था। मगर वह जीवित कैसे हो गया ? एक अभूतपूर्व और अविश्वसनीय घटना थी वह। काफी देर तक मैं कभी पगली की ओर तो कभी उस युवक की ओर देखता रहा था।

     बाद में पता चला कि उस युवक का नाम था–राम अवतार पाण्डेय। जिला मिर्जापुर का रहने वाला था वह। एक महीना पहले उसका विवाह हुआ था। सर्प के काटने से ही उसकी मृत्यु हुई थी। प्रचलित प्रथा के अनुसार उसकी लाश को गंगा में प्रवाहित कर दिया गया था।

उसके बाद फिर वह युवक मुझे कहीं नहीं दिखलायी पड़ा। हाँ, वह रहस्यमयी पगली अवश्य मुझे कई बार मिली रास्ते में। और जब भी वह मिली, उसे देखकर आतंकित हो उठता था मैं।

     जब मैंने ये सारी बातें स्वर्णा को बतलायीं तो वह कहने लगी–उन लोगों के लिए यह सब कोई कठिन काम नहीं है।

      क्या सचमुच पगली ने उस युवक को जीवित कर दिया था ? –मैंने पूछा।

नहीं, मृत व्यक्ति को जीवित करने की शक्ति किसी में नहीं है। पगली ने अपने किसी खास काम के लिए उस युवक के मृत शरीर में किसी आत्मा को प्रवेश करा दिया है।

क्या कहा ?–चौंक कर बोला मैं।

इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।

      शव यदि गल-सड़ नहीं गया है, उसकी नस-नाड़ियां अपनी जगह ठीक हैं और सर्प काटने या विषपान से मृत्यु हुई है तो ऐसे व्यक्ति के शव में विशेष क्रिया द्वारा आसपास भटकती किसी भी अनुकूल आत्मा को प्रविष्ट करा देना सम्भव है। इसलिए आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

इस प्रयोग के पीछे पगली का कौन-सा अभीष्ट है ?

     सुवर्णा ने कहा–तुमको बतला चुकी हूँ कि वह अपने बच्चे को मार कर खा जाती है।

हाँ, यह तो बतलाया था।

बस, समझ लो उस युवक द्वारा शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर बच्चे पैदा करना ही उसका एकमात्र अभीष्ट है।

यह सुनकर अवाक् और स्तब्ध रह गया मैं। फिर न कुछ बोला गया और न कुछ पूछा ही गया मुझ से।

**

      निश्चय ही वह मेरे जीवन का संक्रान्ति-काल था। पूरे चार साल तक मैं स्वर्णा के सान्निध्य में रहा। इस बीच उस महान् साधिका के संपर्क में मैंने जिन अविश्वसनीय और अलौकिक चमत्कारों को देखा तथा पारलौकिक अथवा सूक्ष्म जगत की जिन मानवेतर शक्ति-सम्पन्न आत्माओं का मुझे अनुभव हुआ था, सच पूछिये उसने मेरे ह्रदय में भूत, प्रेत, पिशाच , तंत्र-मन्त्र एवं उनकी विभिन्न तामसिक साधनाओं व विभिन्न क्रियाओं के प्रति गहरी रूचि, जिज्ञासा और असीम कौतूहल की सृष्टि कर दी थी।

इस दिशा में और कुछ जानने-समझने तथा खोज करने के लिए व्याकुल हो उठी थी मेरी आत्मा।

      इसके आलावा एक और जिज्ञासा जागी मेरे मन में, वह यह कि मैं उन दुर्धर्ष और असीम मानवेतर शक्ति-संपन्न आत्माओं से स्वयं संपर्क करके आध्यात्मिक तथा भौतिक क्षेत्रों में उनका सहयोग प्राप्त करूँ।

       सच बात तो यह थी कि भूत-प्रेत, तंत्र-मन्त्र के प्रति मेरे मन में असीम जिज्ञासा और कौतूहल की सृष्टि हो गयी थी उस समय। घंटों गंगा किनारे गालों पर हाथ रखकर बैठा मैं बस यही सोचा करता था कि काश, किसी तरह मुझे भी मानवेतर शक्ति प्राप्त हो जाये तो….।

  आखिर मैंने अपने मन की यह बात स्वर्णा को बतलायी। पहले तो वह काफी समय तक गम्भीर बनी कुछ सोचती रही, फिर एक झटके से उसने सिर घुमा कर मेरी ओर गहरी दृष्टि से देखा। उस समय उसकी दृष्टि में न जाने क्या था कि एकबारगी सहम-सा गया मैं।

    इन सबके चक्कर में मत पड़ो तुम, समझे– सुवर्णा का गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा मुझे–मानवेतर शक्ति प्राप्त करना सबके बस की बात नहीं है। जानते हो, इसके लिए बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, गंवाना पड़ता है…! मनुष्य का जीवन सरल और सहज नहीं रह जाता फिर। इसके बाद वह परिवार और समाज में व्यवस्थित नहीं कर पाता अपने आपको।

   उसका जीवन हर समय एक ऐसी आग की लपटों में झुलसता रहता है जो कभी बुझने वाली नहीं होती। उसके भीतर हर समय एक ऐसी चिता ‘धू-धू’ कर जलती रहती है जिसके आगोश में उसकी सारी कामनाएं दफ़न हो जाती हैं।

      फिर वह चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता स्वतंत्र रूप से। वह अपने अस्तित्व को हर समय एक ऐसी स्थिति में अनुभव करता है जिसके एक ओर तो असीम अलौकिक शक्तियां रहती हैं और दूसरी ओर होती हैं उसकी भस्मीभूत हुई अनगिनत कामनाओं और अभिलाषाओं की राखों का ढेर !

      मुझको ही ले लो। कभी तुमने मुझे जानने-समझने की कोशिश की ? कभी तुमने मेरे जीवन की गहराई में उतरने का प्रयास किया ? कभी तुमने मेरे अतीत में झांकने का प्रयास किया ? नहीं, कभी नहीं।

       सच कह रही थी वह। मैंने कभी ऐसी कोशिश नहीं की थी। कभी ऐसी आवश्यकता ही नहीं समझी मैंने यह सब जानने-समझने की। लेकिन एक बात अवश्य थी–वह यह कि उसकी अनुपस्थिति जब चरम सीमा पर पहुँच जाती तो मेरी आत्मा व्याकुल हो उठती। मन विचलित होने लगता।

     उसमें कौन-सा आकर्षण था जो मेरे मन-प्राण को झकझोरने लगता ? यह सब भी जानने-समझने की कोशिश कभी नहीं की मैंने।

     उस दिन भी ऐसी ही स्थिति थी। पिछले तीन-चार महीनों से स्वर्णा से भेंट नहीं हुई थी। मेरे लिए वह खिन्नता-भरी उदास साँझ थी।

   सिर झुकाये घाट की सीढ़ियों पर चुपचाप बैठा हुआ स्वर्णा के विषय में ही सोच रहा था मैं उस समय। कब तक उस अवस्था में बैठा रहा मैं, बतला नहीं सकता। मगर जब चलने के लिए उठने को तैयार हुआ तो उस समय रात काफी गहरा गयी थी। जब सीढियां चढ़कर मैं केदारेश्वर मन्दिर की गली में आया तो अचानक मेरी दृष्टि सामने जाती हुई एक सद्यस्नाता युवती पर स्थिर हो गयी।

    एकबारगी ख़ुशी से झूम उठा मैं। वह युवती और कोई नहीं, स्वर्णा ही थी। मैंने उसे पुकारा और जल्दी-जल्दी लपक कर उसके करीब पहुँचना चाहा, लेकिन मेरा और उसका फासला बराबर उतना ही बना रहा।

      चौकी घाट के ऊपर हनुमानजी का एक मन्दिर है। उसके बगल में घूमकर एक सकरी गली गयी है। स्वर्णा उसी गली में मुड़कर आगे बढ़ने लगी।

     काफी तेज चल रही थी वह। मैंने फिर पुकारा, लेकिन इस बार भी उसने नहीं सुना। आखिर बात क्या है ? समझ में नहीं आ रहा था। उसकी अपेक्षा तेज गति से चलने पर भी मेरे और उसके बीच का फासला बराबर बना रहा।

  कई गलियों को पार् करने के बाद आखिर वह पातालेश्वर मोहल्ले के एक मकान के भीतर चली गयी। मकान काफी पुराना और जीर्ण-शीर्ण था। ऐसा लगता था जैसे काफी लम्बे अरसे से वह वीरान पड़ा हुआ है।

      दरवाजा भी टूुटा-फूटा था। स्वर्णा के पीछे-पीछे मैं भी घुस गया उसके भीतर, मगर जैसे ही मैं भीतर घुसा, वैसे ही सड़ांध का एक तेज भभका मेंरे नथुनों में समा गया। जी मिचलाने लगा मेरा। किसी तरह संभाला मैंने अपने आपको, आगे बढ़ा तो पहले एक लम्बा गलियारा मिला–अँधेरे में डूबा हुआ।

      टटोल-टटोल कर उसे पार करने के बाद मैं एक छोटे-से आँगन में पहुंचा। वहां हल्का-सा प्रकाश हो रहा था और उसी हलके प्रकाश में  मुझे आँगन के चारों ओर छोटे-छोटे कमरे दिखलायी दिए। वे सब भी गन्दे और दुर्गन्धमय थे।

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      हे भगवान ! कहाँ आकर फंस गया मैं ? जिसके पीछे-पीछे चलकर वहां तक पहुंचा था, उसका कहीं नामो-निशान भी नहीं दिखलायी पड़ रहा था। आखिर गयी कहाँ स्वर्णा ?

मैं आँगन में खड़ा-खड़ा यह सोच ही रहा था कि अचानक मेरी दृष्टि बायीं ओर वाले कमरे की ओर घूम गयी। न जाने क्यों और किस प्रेरणा के वशीभूत होकर कमरे के भीतर चला गया मैं। वह कमरा जरा साफ़ लगा मुझे। दुर्गन्ध भी नहीं थी उसमें।

     मैंने देखा–कमरे के एक ओर नीचे जाने के लिए सीढियां थीं। आश्चर्य हुआ मुझे। सोचा–निश्चय ही उस कमरे के नीचे तलघर होगा। हो सकता है सुवर्णा उसी में हो।

    मन में यह विचार आते ही मैं हिम्मत करके धीरे-धीरे उतरने लगा। सीढियाँ आड़ी-तिरछी और धूल से भरी हुई थीं। कोई-कोई बिलकुल टूटी भी थी।

    मेरे नीचे पहुंचते ही दहशत से फड़फड़ाते चमगादड़ ‘चीं-चीं’ करते हुए सिर और कानों को छूते हुए निकल गए। सचमुच वह काफी लम्बा-चौड़ा कमरा था। दीवारों के ऊपर कई रोशनदान थे जिनमें से छनकर न जाने किधर से रौशनी आ रही थी। कमरे में एक छोटा दरवाजा भी था।

    उत्सुकतावश जब मैं उस रहस्यमय दरवाजे के करीब पहुंचा तो वहां भी नीचे जाने के लिए आड़ी-तिरछी सीढियां दिखाई दीं मुझको। आश्चर्य तो हुआ ही, इसके आलावा कौतूहल भी हुआ और न जाने कैसे मेरे पैर बरबस उन सीढ़ियों की ओर बढ़ गए।

सीढियाँ उतरकर अंततः मैं जब नीचे पहुंचा तो एकबारगी स्तब्ध रह गया। उस कमरे में पहुँचते ही मेरी नज़र जिस पर पड़ी वह थी भयानक शक्ल की एक अधेड़ औरत, जिसे देखते ही एकदम भयभीत हो उठा मैं। प्राण सूख गए मेरे।

     उस औरत के शरीर का रंग बिलकुल काला था। सिर घुटा हुआ था। आँखें गोल-गोल और टमाटर की तरह बाहर निकली हुईं थीं। दोनों पुतलियाँ विचित्र ढंग से अपनी जगह से घूम रही थीं। उसका पेट बाहर की ओर निकला हुआ था। उसके हाथ में जलती हुई लालटेन थी जिसे पकड़कर निश्छल भाव से वह इस प्रकार खड़ी थी जैसे पत्थर का कोई बुत हो।

     उस कमरे में गहरी नीरवता छाई हुई थी। साथ ही एक विचित्र उदासी और खिन्नता-सी व्याप्त थी वहां। लालटेन की पीली रौशनी में उस औरत की जो छाया कमरे की दीवार पर पड़ रही थी, उससे कमरे का वातावरण और भी भयानक हो उठा था।

    हाँ, एक बात बतलाना तो भूल ही गया। कमरा हद से ज्यादा लम्बा-चौड़ा था। दीवार तथा फर्श को लाल रंग के पत्थरों से बनाया गया था। तभी न जाने कहाँ से अचानक कमरे में ताजा हवा का झोंका आया और उसी के साथ पूरे कमरे में राल, गुग्गुल, चन्दन और अगरबत्ती की मिली-जुली सुगन्ध फ़ैल गयी। एकबारगी चौंक पड़ा मैं।

कहाँ से आई थी यह सुगन्ध ? इसी का पता लगाने के लिए कमरे का चक्कर काटने लगा मैं।

      जब मैं चक्कर लगा ही रहा था कि उसी समय एक गुप्त दरवाजा अपने आप खुला और दूसरे ही क्षण भयानक शक्ल के एक व्यक्ति ने अपने कोहड़े जैसे सिर को बाहर निकाला। उसकी आँखें गुड़हल के फूल की तरह थीं, जैसे शराब पी रखी हो उसने। क्रूरता और निर्दयता का कुछ अजीब-सा भाव था उसकी आँखों में।

     फिर उसने अपना सिर भीतर कर लिया, साथ ही वह गुप्त दरवाज़ा अपने आप बन्द हो गया।

थोड़ी देर बाद मैंने उस दरवाजे पर धक्का दिया। सहज ही खुल गया वह तो पता चला कि उसे बंद ही नहीं किया गया था। मेरी ऑंखें भय और आतंक से फटी-की- फटी रह गयीं।

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      कभी कल्पना नहीं की थी कि ऐसा दृश्य देखने को मिलेगा जीवन में। सारा शरीर पाषाणवत हो गया मेरा। खून पानी हो गया और मस्तिष्क शून्यप्राण। उस रहस्यमय वातावरण में होने वाली पैशाचिक लीला को जो भी देखता, उसकी यही दशा होती। वह भी मेरी ही तरह भय से जड़ हो उठता उस समय।

     उस रहस्यमय गुप्त दरवाजे के उस पार जो वातावरण था और उस वातावरण में जो कुछ देखा मैंने, वह सब इस दुनियां से परे अनजाना लोक-सा प्रतीत हो रहा था।

मैं वाराणसी में पैदा हुआ हूँ. वाराणसी के ही वातावरण में साँस ली है और यहीं की संस्कृति और संस्कार में पला बड़ा हूँ। वाराणसी के कोने-कोने से परिचित हूँ और इसके हर रूप को अच्छी तरह जानता हूँ, मगर वाराणसी का एक रूप ऐसा भी है जो इसकी धरती के नीचे है, इससे अब तक अपरिचित ही था मैं।

      कभी किसी के मुंह से सुना था कि काशी में अभी भी उच्चकोटि के साधक, सन्त, महात्मा, योगी और तान्त्रिक निवास करते हैं। लेकिन उनके गुप्त निवास-स्थान काशी में कहाँ हैं ?–इसे बहुत ही कम लोग जानते हैं। जो लोग जानते भी हैं, वे न जाने क्यों किसी को बतलाते नहीं।

लेकिन मेरे सामने वह रहस्य अनावृत हो चुका था और मैं यह जान गया था कि वे लोग इसी प्रकार काशी की धरती के नीचे न जाने कब के बने तलघरों में रहते है और साधना-उपासना करते होंगे।

      वह कमरा भी काफी लम्बा-चौड़ा था और उसकी भी दीवारें और फर्श लाल पत्थरों से बने थे। दीवारों पर कई नर-कंकाल झूल रहे थे। कुछ मानव खोपड़ियां भी रखी थीं जिन पर लाल सिन्दूर लगा था। मैं समझ गया था कि निश्चय ही वहां नर-बलि होती रही होगी कभी।

     कमरे के एक ओर चौड़े पत्थर की वेदी थी जिस पर पद्मासन की मुद्रा में एक मानव-कंकाल बैठा हुआ था। उसकी खोपड़ी हद से ज्यादा बड़ी थी। उसके चारों ओर सुनहरे रंग का वलय (प्रभा- मण्डल) था। उस कंकाल से रुपहली, सुनहरी रश्मियाँ फूट रही थीं। कभी-कभी वह कंकाल अपने-आप कांपता फिर स्थिर हो जाता था। उस समय पलभर को ऐसा लगता था कि उसमें जैसे चेतना आ गयी हो।

      वेदी के ठीक नीचे एक हवन-कुण्ड बना हुआ था जो काफी गहरा था। उसमें से सुगन्धित धुआँ निकल-निकल कर चारों ओर फ़ैल रहा था। हवन-कुण्ड के चारों तरफ लोहे और तांबे के कई त्रिशूल गड़े हुए थे। उन सब पर भी लाल सिन्दूर पुता हुआ था। थोड़े ही फासले पर एक बड़ा सा खड्ग रखा हुआ था। उस पर ताज़ा खून के धब्बे थे और वह अति भयानक और विकराल दिखाई देता था।

    ऐसा लग रहा था कि अभी थोड़ी देर पहले ही किसी की बलि दी गयी थी। कमरे के बायीं और भी तीन-चार वेदियां थीं जिन पर ताजे शव लिटा कर रखे गए थे जिनके सिरहाने चौमुखा दीप जल रहे थे। शवों के चेहरों को छोड़कर शेष भाग लाल कपड़ों से ढके थे।

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      सब कुछ देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता था कि शायद कापालिक संप्रदाय के किसी उच्च कोटि के साधक की साधना-स्थली है वह। कमरे में कई युवा साधक और युवा भैरावियाँ भी थीं। भैरवियों की उम्र 18-20 वर्ष के भीतर ही थी।

वे सभी उन्मत्त थीं। उनकी खुली हुई केश-राशि पीठ पर बिखरी थी। मस्तक पर लाल सिन्दूर का गोल टीका और गले में सर्प की हड्डियों की मालाएं थीं जो उनके उरोजों के ऊपर लोटती हुई नाभि तक झूल रही थीं।

मैंने देखा–भैरवियों की आँखें गूलर की तरह लाल थीं और चेहरे तमतमाये हुए थे। निश्चय ही उन सबने आकण्ठ मदिरा-पान किया होगा, लेकिन साधना की आभा और तेज भी उनके चेहरों पर दमक रहा था।

       जिस व्यक्ति ने झांक कर देखा था, वह शायद वहां का मुख्य साधक था। वह कमरे में चारों तरफ घूमता हुआ कभी झुककर किसी शव के खुले हुए मुख की ओर देखकर उसमें मदिरा उड़ेलता तो कभी संकेत से उन भैरवियों को कुछ समझाता।

उसके एक हाथ में चमचमाता हुआ त्रिशूल और दूसरे हाथ में खप्पर था जिसमें मदिरा भरी हुई थी। उसे बीच-बीच में वह मुंह लगाकर पी लिया करता था।

     कापालिक और शाक्त संप्रदाय के बारे में बहुत कुछ सुना और पढ़ा था, मगर जो कुछ सुना ओर पढ़ा था, उसे पहली बार साकार रूप में वहां होते देख रहा था। वहां का वातावरण निश्चय ही बड़ा रहस्यमय और भयंकर था, पर अभी तक वहां स्वर्णा नहीं दिखलायी पड़ी थी मुझे। मेरी आँखें बराबर उसी को खोज रही थीं।

मैं दरवाजे के पास ही खड़े होकर सब कुछ देख रहा था लेकिन मेरी ओर किसी का ध्यान नहीं था। वापस लौटने का विचार कर ही रहा था , उसी समय मेरी ऑंखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं। मेरी दृष्टि स्वर्णा पर पड़ी। वह कब और किधर से कमरे में आई–समझ न सका। यदि वह दरवाज़े से होकर कमरे में जाती तो मुझे पता चल ही जाता।

     सुवर्णा के साथ एक नवयुवक भी था जिसे देखते ही पहचान गया मैं। वह राम अवतार नाम का वही युवक था जिसकी लाश को जीवित किया था पगली ने।

      मगर सुवर्णा के साथ कैसे पहुंचा वह ? इसका मतलब निश्चय ही स्वर्णा और वह पगली एक दूसरे के अंतरंग होंगी। मुझे नहीं देखा स्वर्णा ने। सबसे ज्यादा आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि स्वर्णा भी वहां पूर्णतया निर्वसन थी।

    आज तक मैंने उसके अनावृत रूप को नहीं देखा था। वह मुझे जलती हुई अग्नि-शिखा-सी लगी उस समय। कुछ क्षणों के लिए मैं अपने अस्तित्व को भूल गया।

     जन्नत के सांचे में ढली स्वर्णा की काया देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो रोम की किसी रूपसी युवती की पाषाण-प्रतिमा ही सजीव हो उठी हो उस पल।

   नवयुवक राम अवतार अभी तक स्वर्णा के साथ ही था, तभी वह मुख्य साधक उसे खींचता हुआ एक खाली पड़ी वेदी तक ले गया और उसे लिटा दिया। युवक ने कोई विरोध नहीं किया। उसकी स्थिति यंत्रवत् थी उस समय। जैसे फिर से वह शव हो गया हो। उसके बाद जो कुछ मैंने देखा, वह पूर्णतया अविश्वसनीय दृश्य था।

प्रत्येक शव के ऊपर एक-एक भैरवी पद्मासन की मुद्रा में बैठी हुई थी। वह नव युवक जो स्वर्णा के साथ था अभी तक, फिर शव के रूप में परिवर्तित हो गया था और उसके ऊपर पद्मासन की मुद्रा में बैठी थी स्वर्णा। निश्चय ही यह सारी प्रक्रिया शव-साधना की थी।

कभी तंत्र-ग्रन्थों में पढ़ा था शव-साधना के सम्बन्ध में। कापालिक और शाक्त संप्रदाय में सर्वोच्च साधना मानी जाती है–शव-साधना। इसमें शव ‘आसन’ का काम करता है।

वातावरण में गहरी नीरवता व्याप्त थी। शव पर पद्मासन की मुद्रा में ध्यानस्थ बैठी भैरवियों के चेहरे अलौकिक तेज से ‘दप-दप’ कर रहे थे। हवन-कुण्ड के सामने बैठा प्रधान साधक अग्नि में हवन-सामग्री छोड़ता जा रहा था मंत्रोच्चार के साथ और कभी-कभी वह भैरवियों की ओर भी अपना सिर घुमा- घुमा कर देख लेता था।

     उसका चेहरा उस समय क्रोध से लाल हो उठता था। समय पल-पल बढ़ता जा रहा था, लेकिन क्या मेरी शव-साधना की पूर्ण प्रक्रिया देख सकने की लालसा पूर्ण हुई ? क्या मैं शव-साधना के रहस्य को उस समय समझ सका ? नहीं, शायद मेरे भाग्य में ही नहीं था। प्रधान की कुपित दृष्टि मेरे ऊपर पड़ चुकी थी। मुझे देखते ही क्रोध से लाल हो उठा वह। हे भगवान ! अब क्या होगा ?

      मैं कुछ सोचूं-समझूँ, उसके पहले ही उस दानव ने लपककर बगल में रखा खड्ग उठा लिया और मारने के लिए मेरी ओर दौड़ा। भय और आतंक से बुरा हाल हो रहा था मेरा। पलटकर भागना चाहा, मगर भाग न सका। दो-चार कदम बाद ही ओंधे मुंह गिर पड़ा मैं और उसी के साथ चेतनाशून्य हो गया। फिर कब तक रहा उस अवस्था में–यह बतला नहीं सकता।

मगर जब चेतना लौटी, तो मैंने अपने-आपको एक सीलनभरी कोठरी में पड़ा पाया। निश्चय ही वह तहखाना था–समझते देर न लगी।

सिर में भयानक पीड़ा हो रही थी। बदन टूट रहा था। इसके आलावा भूख भी लगी थी। उस काल-कोठरी में यह भी पता नहीं चलता था कि कब दिन हुआ और कब रात हुई।

क्या मैं अब यहाँ से कभी निकल पाउँगा ? या इसी तरह से घुट-घुट कर मरूँगा ? या फिर किसी के खड्ग की बलि चढ़ जाऊंगा ? काश ! स्वर्णा की खोज में न आया होता तो यह दुर्दशा नहीं होती मेरी। विवशता के मारे नेत्रों में आंसू आ गए।

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        इन तमाम घटनाओं को मैंने तारानाथ भट्टाचार्य को बतलाया तो वह एकबारगी स्तब्ध रह गए। काफी देर मौन बैठे न जाने क्या-क्या सोचते रहे, फिर बोले–

तुम तो जानते ही हो कि काशी प्राचीन काल से ही विभिन्न धार्मिक एवं आध्यात्मिक सम्प्रदायों का केंद्र-स्थली रही है। भारत में जितने धर्म और जितनी संस्कृतियाँ हैं, उन्हीं में से एक तान्त्रिक धर्म और संस्कृति भी है। यदि प्रागैतिहासिक काल को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि इस धरती पर तंत्र का प्रादुर्भाव और उसका प्रचार-प्रसार यक्ष जाति द्वारा हुआ है और उसका केंद्र भारत ही रहा है।

आर्यों के पहले से यहाँ अनेक इतर जातियां थीं, उन्हीं में से एक यक्ष जाति भी थी। यक्षों की अपनी एक स्वतंत्र परम्परा थी जिसमें शक्ति की प्रधानता थी। यदि उनकी परम्परा को हम ‘शक्तिवाद’ कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।

      यक्षों ने शक्ति को नारी के रूप में परिकल्पित किया। उनकी साधना में नारी प्रधान थी, क्योंकि नारी में ही उन्होंने अपनी शक्ति की झलक देखी। उनके लिए नारी ‘विश्वशक्ति’ थी और विश्ववासना की प्रतिमूर्ति थी।

वासना के नाश के लिए वासना का ही सहारा लेना पड़ता है और उसके लिए नारी आवश्यक है।

     यक्षों की इसी विचारधारा ने कुण्डलिनी, योग, चक्र, पद्म, नाड़ी-ज्ञान, बलि, शक्ति के रूप में अनेक देवियों की उपासना, शक्ति-पूजा, गुह्य-पूजा, योनि-पूजा, श्मशान के महत्व आदि को जन्म दिया।

      कालान्तर में इसी विचारधारा के आधार पर यक्षों का शक्तिवाद छः भागों में बँट गया। वे ही छः भाग तंत्र के छः प्रमुख संप्रदाय हैं–1- शैव संप्रदाय, 2- वीर शैव संप्रदाय, 3- शाक्त संप्रदाय, 4- कौल संप्रदाय, 5- अघोर संप्रदाय और 6- कापालिक संप्रदाय। इन सभी सम्प्रदायों की कई-कई शाखाएं भी हैं।

      इनमें से कापालिक सम्प्रदाय अपनी भयानक तामसिक साधना के लिए प्रसिद्ध है। चक्र-पूजा, योनि-पूजा, गुह्य-पूजा, नर-बलि, पशु-बलि, श्मशान-साधना, चिता-साधना आदि के द्वारा अनुष्ठित होने वाली कापालिक साधना का मुख्य लक्ष्य-शव-साधना होता है जिसकी सहायता से कापालिक सम्प्रदाय के साधक मानवेतर शक्ति-सम्पन्न सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं से संपर्क करते हैं।

      यह सुनकर मैंने कहा–स्वर्णा ने मुझे इस सम्बन्ध में विस्तार से बहुत कुछ बतलाया है। इतना ही नहीं, उसने पारलौकिक जगत में निवास करने वाली मानवेतर शक्ति-सम्पन्न आत्माओं के सहयोग से मेरे सामने ऐसे-ऐसे चमत्कारों की भी सृष्टि की जिसने मुझे हतप्रभ कर दिया। सच पूछिये तो ये सब देख-सुनकर ही मेरे मन में तंत्र-मन्त्र, भूत-प्रेत के प्रति रूचि और जिज्ञासा जगी।

कापालिक साधना-स्थलियां देश-समाज से अलग क्यों ?

भट्टाचार्य ने बतलाया–सभी साधनाओं में शव-साधना सबसे अधिक भयानक और तामसिक है। उसमें पग-पग पर जान जाने का खतरा रहता है। इसके आलावा बहुत रहस्यमयी भी है वह। उसका रहस्य, ‘रहस्य’ ही बना रहे, उसकी गुह्यता और गोपनीयता की रक्षा रहे, किसी प्रकार का बिघ्न न पैदा हो और किसी प्रकार का आक्षेप-विक्षेप भी न हो–इसलिए कापालिक सम्प्रदाय के अनुयायी अपनी साधना-स्थली देश-समाज से एकदम अलग रखते हैं। उनके रहस्यमय क्रिया-कलापों पर किसी की नज़र न पड़े–इसके लिए वे बराबर सतर्क भी रहा करते हैं।

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      वे बोले : हमारे देश में शुरू से ही मुख्य रूप से दो संस्कृतयों का प्रभाव रहा है। पहली है–तान्त्रिक संस्कृति और दूसरी है–वैदिक संस्कृति। तान्त्रिक संस्कृति यक्षों की देन है। अतः वैदिक संस्कृति के उद्गम और विकास से पहले हमारे देश में तान्त्रिक संस्कृति का ही व्यापक प्रभाव था। इसलिए भारतीय संस्कृति के इतिहास में यक्ष-प्रभाव को काफी अधिक महत्व दिया गया है और सच तो यह है कि भारतीय इतिहास का यह भूला हुआ विषय है जिसके बिना भारतीय इतिहास समझा ही नहीं जा सकता।

     यक्षवाद से आविर्भूत तान्त्रिक संस्कृति का युग वास्तव में शक्ति-युग था। यक्षों की वह आद्याशक्ति दो रूपों में विभक्त थी। एक था–पूज्यारूप और दूसरा था–भोग्यारूप। स्त्री को गुह्य दीक्षा देकर उसमें दोनों रूपों की परिकल्पना की जाती थी। भारतीय संस्कृति के पाश्चात्य प्रखर विद्वान ‘जॉन उडरफ’ ने यक्षों की आद्याशक्ति से देश-देशान्तर की शक्ति-पूजा की विस्तृत तुलना की है।

        उनकी दृष्टि में गोधूलि देवता, एलियासिस, काली, सैविला, इडा, त्रिपुर सुन्दरी, आयोनिका माता, शू की पत्नी तेफ, अफ्रोडाइट, अस्तरत, बेबोलोनिया की मिलिटा, बौद्धों की तारा, मैक्सिको की इश और पार्वती के समान विचरण करने वाली अफ्रीका की सलम्बरे, रोमन, जूना, जीवन-विचार आदि की दीप्तस्वामिनी, मिस्री वस्त्रर, असीरिया की माता सुस्कोथ कुण्डलिनी गुह्य महाभैरवी आदि सब यक्षों की आद्या शक्ति के ही रूप हैं।

इस प्रकार यदि ध्यान से देखा जाय तो शक्ति-पूजा अथवा स्त्री के रूप में शक्ति- पूजा की परम्परा अधिकांशतया उन्हीं जातियों में मिलती है जो आर्येतर थीं और जिनकी सभ्यता बहुत ही अधिक प्राचीन हो चुकी थी।

      दो हज़ार वर्ष पूर्व विक्रम काल में देश और समाज पर कापालिक संप्रदाय के अनुयायियों का भयंकर प्रभाव था। आदि शंकराचार्य के अवतरण के समय भी कम प्रभाव नहीं था उनका। इसके बाद हिमालय का आतंरिक क्षेत्र और तिब्बत का हिमाच्छादित पर्वतीय इलाक़ा कापालिकों की शव-साधना का प्रमुख केंद्र बना। तान्त्रिक साधना के लिए वह स्थान भी अपना अलग महत्व रखता है, जहाँ शिव और शक्ति का समन्वय हो।

इस दृष्टि से काशी सबसे उपयुक्त प्रतीत हुआ साधकों के लिए। काशी में जहाँ एक ओर शिव की उपासना होती है, वहीँ दूसरी ओर शक्ति के विभिन्न रूपों की भी साधना होती है। मुग़ल काल के पहले तक शिवोपासना की तरह गुह्य तंत्रों पर आधारित शक्ति की तमाम गोपनीय और रहस्यमयी साधनाएं प्रकट रूप में हुआ करती थीं काशी में।

      काशी के शिवाला घाट से लेकर दशाश्वमेध घाट के अंतर्गत जितने गंगा के तटवर्ती मोहल्ले हैं, वे सब कभी कापालिकों के और शाक्तों के गोपनीय साधना- स्थल थे। उस समय लगभग हर घर में काली की मूर्तियाँ थीं और प्रायः सभी के यहाँ तान्त्रिक साधनाएं हुआ करती थीं। आज भी बहुत से घरों में काली की प्राचीन मूर्तियाँ मिल जाएँगी।

      मुग़ल काल का कुप्रभाव काशी पर भी कम नहीं पड़ा। काशी विश्वनाथ के मंदिर की तरह तान्त्रिक साधना स्थलों को भी कहीं विध्वंसित न कर दिया जाय। काशी के अन्य मन्दिरों और देव-स्थानों की तरह उन्हें भी नष्ट न कर दिया जाय, इसीलिए ज़मीन के भीतर तलघरों और तहखानों में साधना-स्थल बनाये गए। मगर उनके बारे में मात्र वही लोग जानते थे जो साधक की श्रेणी में आते थे।

    साधकों के आलावा और कोई नहीं जानता था कहाँ और किस मोहल्ले में ऐसे भूमिगत साधना-गृह हैं।

सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि कोई व्यक्ति किसी प्रकार साधन-गृह में चला भी गया तो यदि वह दुबारा वहां जाना चाहे तो नहीं जा सकता। वह भूल जायेगा कि कहाँ से कैसे गया था वह उस रहस्यमय साधना-गृह में।

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      अपनी शारीरिक और मानसिक स्थिति से मैं इतना ही समझ सका कि शायद तीन या चार दिन पहले लाया गया होगा मुझे उस काल कोठरी में। लेकिन क्या अब मैं यहाँ से निकल पाउँगा या इसी तरह से घुट-घुट कर मरूँगा ? अब क्या होगा ?कैसे मिलेगा मुझे त्राण ? काश ! न आया होता यहाँ स्वर्णा की खोज में ! यह दुर्दशा तो न होती !

      भूख-प्यास और कमजोरी से मेरी हालत हर क्षण ख़राब होती जा रही थी। छाती में अचानक बहुत तेज दर्द होने लगा। साँस लेने में भी तकलीफ होने लगी। मैं समझ गया कि अब मेरे जीवन का अन्त समीप है। धीरे-धीरे मेरा शरीर शिथिल होता जा रहा था। आँखें भी बंद होने लगीं। फिर मैं कब निढाल होकर ठन्डे फर्श पर लुढ़क गया–पता नहीं। और जब होश आया तो डॉक्टरों से घिरा पाया। उस समय मुझ पर झुकी हुई मेरे चेहरे की ओर अपलक निहार रही थी स्वर्णा। मैंने देखा–उसकी आँखों में आंसू थे और होंठ थरथरा रहे थे। मुझे होश में आया देख मेरे गले से लिपट गयी वह। उसके आंसुओं से मेरा पूरा चेहरा भीग गया और जब वह मुझसे अलग हुई तो उसकी आँखों में झिलमिल आंसुओं के मोतियों के आलावा एक ऐसा भाव भी था जो सिर्फ अपने अत्यन्त निकट के व्यक्ति में ही होता है।

      उन झिलमिलाते मोतियों, थरथराते होठों और अपनत्व के भाव को देखकर मेरे मन के अन्तराल में स्वर्णा के प्रति एक ऐसी कोमल और मधुर भावना अंकुरित हो गयी जिसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास। उस क्षण ऐसा लगा कि हम दोनों का बड़ा पुराना और बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध है।

        भट्टाचार्य ने आगे बतलाया–मैं कापालिकों के जिस साधना-गृह में गया था, वह अति प्राचीन है। वहां पहले नर-बलि होती थी। आज भी शायद दीपावली के अवसर पर होती है। पहले तो वहां किसी का जाना ही मुश्किल है और यदि संयोगवश अथवा दुर्भाग्यवश कोई व्यक्ति वहां पहुँच भी गया तो फिर उसे बाहर नहीं निकलने दिया जाता। साधना-गृह की गोपनीयता बनाये रखने के लिए उसकी वहीँ बलि दे दी जाती है।

   क्या मेरी भी बलि दे दी जाती ?–मैंने हकलाते हुए पूछा।

      क्यों नहीं ? इसीलिए तो तुमको उस काल-कोठरी में रखा गया था। अगर स्वर्णा ने अथक प्रयास करके तुमको वहां से न निकाला होता तो आज मेरे सामने न बैठकर किसी और ही दुनियां में होते तुम।

   यह सुनकर पल भर के लिए स्तब्ध रह गया। फिर पूछा–अच्छा तो स्वर्णा ने बचाया मुझे ? मुझे नहीं मालूम था। स्वर्णा ने भी नहीं बताया मुझे। अच्छा ! लेकिन वह क्यों निकाल कर ले आई मुझे ? क्यों उसने मेरी रक्षा की ?–मेरी समझ नहीं आ रहा है…।

    भट्टाचार्य भला इसका क्या उत्तर देते ? वह मौन रह गए। मैं उठकर कालीबाड़ी से बाहर निकल आया। रास्ते में बराबर मैं स्वर्णा के ही बारे में सोच रहा था। उसका व्यक्तित्व तो पहले ही मेरे लिए रहस्यमय था लेकिन अब इस घटना से और भी जटिल हो गया वह रहस्य। एक पिशाचसिद्ध साधिका के पाषाणवत कठोर ह्रदय में मेरे प्रति इतनी कोमलता और उदार भावना क्यों आई और उसकी आँखों में मेरे लिए आंसू क्यों थे ? क्यों थरथराये थे मेरे लिए होंठ ?

      मैं जितना सोचता और जितना समझने की कोशिश करता, उतना ही और उलझता जा रहा था। आखिर घर पहुँचते ही दोनों हाथों से सिर थाम कर बैठ गया। पूरी रात नींद नहीं आई। लगातार करवटें बदलता रहा। किसी प्रकार भोर की बेला में जरा- सी झपकी लगी तो उसी तंद्रावस्था में मैंने देखा–मेरे सामने वही कापालिक खड़ा है और अपनी क्रूरताभरी लाल-लाल आँखों से मुझे घूर रहा है। चेहरा उसका क्रोध से तमतमा रहा है।

     उसके हाथ में बलि देने वाला वह भयानक खड्ग भी था। वह धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ा फिर एक झटके से खड्ग वाला हाथ ऊपर उठाकर एकदम मेरी और झपट पड़ा।

    जोर से चीख पड़ा मैं। और उसी चीख के साथ ही मेरी आँख खुल गयी। सारा शरीर पसीने से भीग उठा था मेरा। मेरा रोम-रोम कांप रहा था उस समय।

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      सायंकाल कालीबाड़ी गया, भट्टाचार्य से मिलकर मैंने अपनी स्थिति बतलायी, सपने की बात भी सुनाई। बहुत देर तक वह मौन रहे, फिर बोले- वह प्रधान कापालिक अत्यन्त कठोर भयानक प्रवृत्ति का साधक है। उसके बारे में चारुबाबू से बहुत कुछ सुन रखा है मैंने।

कौन चारुबाबू ?

   बहुत बड़े तंत्र-साधक हैं चारुबाबू। उनका पूरा नाम था–चारुचंद्र गांगुली। रानी भवानी मंदिर के बगल वाले मकान में वह रहते थे। प्रायः अमावस्या की रात्रि में वह कापालिक भेष बदल कर किसी राजे-रजबाड़े की तरह सज-धज कर उनके यहाँ पहुँच जाया करता था।

क्यों, किसलिए ?

मदिरा-पान करने के लिए। दोनों एक साथ बैठकर खूब मदिरा-पान करते थे पूरी रात।

अच्छा।

हाँ, इसके साथ वे भैरवी साधना भी करते थे–भट्टाचार्य ‘हो-हो’ कर हंसे, फिर कहने लगे–चारु बाबू की एक लड़की थी–काकुली। मुझे तो अब ऐसा लगता है कि शायद मदिरा-पान के बहाने वह असुर काकुली के लिए ही वहां जाया करता था।

      काकुली बहुत ही सुन्दर और आकर्षक थी। 15-16 वर्ष से अधिक उम्र नहीं थी उसकी उस समय। चम्पई रंग, सुनहरी, काली चमकीली केश-राशि, नुकीली नाक, मोरनी जैसी ऑंखें, जिनमें हमेशा एक सपना-सा तैरा करता था। गुलाब जैसे होठों पर हमेशा लाजभरी मुस्कराहट तैरा करती थी।

      घर में और कोई नहीं था। इसलिए जब वे दोनों मदिरा-पान करने बैठते तो काकुली को दौड़-दौड़ कर कभी गिलास, कभी पानी और कभी भुनी हुई मछली लानी पड़ती थी। आखिर कब तक बचती वह बेचारी। एक दिन उस कापालिक की नज़र उसके सौंदर्य की सुगन्ध में लिपटे यौवन पर पड़ ही गयी और वह उस अछूते यौवन का अपनी भयानक साधना में उपयोग करने के लिए लालायित हो उठा।

    चारु बाबू इन सब बातों से अनजान रहे हों, ऐसी बात नहीं। सब कुछ जानते-समझते थे वह, लेकिन विवश थे बेचारे।

     क्यों, विवशता किस बात की ?

वह कुछ महत्वपूर्ण तान्त्रिक सिद्धियां प्राप्त करना चाहते थे उस कापालिक से। उसने भी अगली दीपावली को मनचाही सिद्धियां प्रदान करने का आश्वासन दिया था चारुबाबू को। बस, इसी लालच के कारण वह मौन रह गए। आखिर जो होना था, वह होकर ही रहा। उस राहु ने ग्रस ही लिया काकुली को एक दिन।

यह बात नहीं कि काकुली ने विरोध न किया हो। मगर उस भयानक कापालिक के सामने उसका कोई विरोध टिक न सका। अन्त में निढाल होकर अपने-आपको भाग्य भरोसे छोड़ दिया उसने। उसका एक प्रेमी था। उसके साथ विवाह भी तय हो गया था काकुली का। लेकिन जब उस प्रेमी ने यह सब सुना तो एक दिन जहर खाकर आत्महत्या कर ली उसने।

     फिर, फिर क्या हुआ ?

फिर क्या होगा ? चारुबाबू को दुर्लभ सिद्धियां मिली या नहीं–यह तो बतलाया नहीं जा सकता, लेकिन काकुली का रूप और यौवन अवश्य तान्त्रिक साधना की बलि-वेदी पर उत्सर्ग हो गया। इस घटना को घटे पूरे 20 वर्ष हो गए, मगर काकुली का कोई पता नहीं चला कि वह कहाँ है ?

कोई यह भी नहीं जानता कि वह जीवित है भी या नहीं। चारुबाबू भी नहीं जानते। घोर पश्चाताप के सिवाय और कुछ नहीं रह गया अब उनके पास। हर समय निराशा के सागर में डूबे रहते वह।

     बोझिल स्वर में भट्टाचार्य ने आगे बतलाया–काकुली की तरह अन्य कन्याओं का रूप और यौवन जलकर भस्म हो गया इसी तरह उस कापालिक की साधना की अग्नि में। सुवर्णा को ही ले लीजिए, उसकी उम्र कितनी समझते हैं आप ? कभी किसी को वृद्धा भिखारिन के रूप में , कभी किसी को पगली के रूप में तो कभी किसी को आकर्षक रूपसी तरुणी के रूप में दिखलायी पड़ती है वह। ‘डाकिनी विद्या’ के बल पर रूप बदलने में माहिर है वह, मगर उसकी सही उम्र और असली रूप क्या है ?–यह कोई नहीं जानता। पिछले 30-35 वर्षों से तो मैं ही देख रहा हूँ उसे, जैसे वह कालंजयी हो।

पश्चिम बंगाल के किसी इस्टेट की वह राजकुमारी थी। अगाध रूप और सौंदर्य था और था अकूत यौवन भी जिसने उस समय देखा, उसका कहना था कि साक्षात् ‘कामदेव की रति’ जैसी लगती थी स्वर्णा।

लेकिन देव-कन्याओं जैसे उसके रूप, यौवन एवं सौंदर्य पर शनि की वक्रदृष्टि पड़ गयी।

       कामदेव जैसे किसी राजकुमार के बाहुपाश में आलिंगनबद्ध होने और उसकी अंकशायिनी बनने का उसका सुनहरा सपना तंत्र की शूली पर चढ़ गया जिसकी लाश अभी तक उसी शूली पर झूल रही है।

    जानते हैं, उसके जीवन के अमृत-कलश में किसने विष घोला ? उसी प्रधान कापालिक ने। उसने उस पवित्र, सुगन्धित पुष्प को किसी देवता के चरणों पर अर्पित होने के पूर्व तामसिक साधना के नाम पर स्वार्थ की बलि-वेदी पर मसल डाला स्वर्णा को।

   भट्टाचार्य महोदय के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि जैसे उन्होंने स्वयं सब कुछ अपनी आँखों से देखा हो।

    बताने लगे कि स्वर्णा के मन में भी एक युवक की छवि बसी हुई थी। कौन था वह युवक ?

    चन्दन नगर के राय बहादुर राधा मोहन गुहाराय का एकलौता बेटा। बड़ा ही होनहार और सुदर्शन युवक था वह। नाम तो उसका कुछ और ही था, पर प्यार से लोग उसे ‘बकुल’ पुकारते थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को वह गुरु मानता था।

      रामबाड़ी में एक छोटा काली मंदिर था। उसी मंदिर में काली की पाषाण प्रतिमा के सम्मुख बकुल घंटों आँखें मूंदे ध्यान मग्न बैठा रहता था। स्वर्णा से असीम प्यार करता था बकुल। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। कभी-कदा बकुल स्वर्णा से मिलने चला जाया करता था।

तब पद्मा नदी के किनारे बैठकर घंटों प्रेमालाप करते दोनों और फिर रंगीन सपनों में खोये रहते। समय की भी सुध न रहती दोनों को।

    स्वर्णा और बकुल के प्रेम-प्रसंग से अनजान नहीं थे राय बहादुर साहब। वह सब कुछ जानते-समझते थे। अतः शीघ्र ही उन दोनों को दाम्पत्य-सूत्र में बांध देना चाहते थे वह। लेकिन उनकी अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई।

    पूर्ण होने से पूर्व ही नियति ने अपने चंगुल में दबोच लिया था उस असहाय को। उसी प्रधान कापालिक ने नष्ट कर दिया सुवर्णा का जीवन.       

**

      उन दिनों बंगाल के राजपरिवार के लोगों ने अपने शत्रुओं को हराने के लिए बड़े- बड़े राजतांत्रिक पाल रखे थे और उनसे भयानक तान्त्रिक प्रयोग और अनुष्ठान करवाया करते थे। चन्दन नगर के राजपरिवार में भी एक राजतान्त्रिक था। जानते हो वह कौन था ? यही प्रधान कापालिक था। इसका प्रभाव पूरे राजपरिवार पर था।

राय साहब का एक परम शत्रु था–मदन मोहन मजूमदार। वह बड़ा ही धूर्त, लम्पट और ऐय्यास किस्म का था और भी कुछ ऐसी बातें थीं जिनके कारण राय साहब उससे भयभीत रहा करते थे। फिर एक बार कुछ ऐसी घटनाएं घट गयीं कि राय साहब ने हमेशा के लिए उसे अपने रास्ते से हटाना ही ज़रूरी समझा। इसी में उन्हें अपनी भलाई दिखलायी पड़ी। जब इस सम्बन्ध में उन्होंने प्रधान कापालिक से बात की तो वह सहर्ष तैयार हो गया सहायता के लिए।

प्रधान कापालिक ने उन्हें भयंकर ‘मारण-प्रयोग’ कर चौबीस घंटों में उस संकट को हटाने का वायदा कर दिया। लेकिन उसने एक शर्त लगा दी, वह यह कि इसके बदले में उसे स्वर्णा दे दी जाय।

     सुवर्णा के रूप और यौवन पर उस प्रधान कापालिक की गिद्ध-दृष्टि पहले से ही लगी हुई थी। उसे वह महाभैरवी बनाकर उच्च तान्त्रिक साधना करना चाहता था।

वास्तव में उच्च साधना के लिए स्वर्णा जैसी सुन्दर अक्षत तरुणी मिलती भी कहाँ उसे ? अवसर की प्रतीक्षा थी और वह अवसर उसे अब मिल रहा है, इसलिए उसे वह किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहता था। लेकिन राय साहब ने शर्त मानने से साफ इनकार कर दिया। फिर भी उस कुटिल कापालिक ने हार नहीं मानी। बराबर प्रयास में लगा रहा वह।

     आखिर कुछ ही दिनों बाद एक ऐसी घटना घट गयी जिसके फलस्वरूप राय साहब को उस कापालिक की शर्त स्वीकार करनी पड़ी।

   इसकी चर्चा राय साहब ने जब स्वर्णा से की तो उसका गुलाब-सा खिला चेहरा एक दम काला पड़ गया। आँखों से आंसू निकल पड़े। शरीर थर-थर कांपने लगा उसका। पूरी रात रोती रही स्वर्णा।

    एक ओर उसके पिता का जीवन था, पूरे राजपरिवार का सम्मान था, राज्य की रक्षा का प्रश्न था और दूसरी ओर था उसका प्यार।

    आखिर विवश होना पड़ा उसे। अपने पिता के लिए , राजपरिवार के लिए और उसकी रक्षा के लिए अपने प्यार को उत्सर्ग कर दिया उसने।

यह सारी स्थिति जब बकुल को मालूम पड़ी तो वह एकदम बिलख पड़ा। अपने प्यार का वियोग वह सहन न कर सका और काली मंदिर में जाकर उसने भीतर से कपाट बन्द कर लिया और काफी देर तक प्रतिमा के चरणों को पकड़कर रोता रहा।

उसके बाद उसने सहसा बलि देने वाला खड्ग उठाया और दूसरे ही क्षण ‘खच’ की ध्वनि के साथ उसका सिर कट कर धड़ से अलग हो गया।

जब यह दारुण समाचार स्वर्णा को मिला तो वह विह्वल हो उठी, लेकिन अब वह बेचारी क्या कर सकती थी ?

इतना कहकर मेरे तांत्रिक मित्र ताराचंद भट्टाचार्य चुप हो गए और अपलक शून्य में निहारने लगे। भट्टाचार्य महाशय के शब्दों ने स्वर्णा के अतीत की कथा साकार कर दी थी मेरे सामने।

     उस समय स्वर्णा के प्रति मेरे मन में जहाँ पीड़ा थी, वहीँ उस कापालिक के प्रति आक्रोश भी था। घर पहुंचा तो थोड़ी देर बाद अचानक स्वर्णा आ गयी।

    उस साँझ को उसकी उपस्थिति बड़ी विचित्र लगी मुझे। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी। जीर्ण, क्लान्त चेहरा, शंख जैसा रंग और अजीब सम्मोहन से भरी ऑंखें। क्या था उस दृष्टि में ?–कह नहीं सकता।

उसके विवर्ण चेहरे की ओर ताकते हुए मैंने कहा–तबियत तो ठीक है न ? कहाँ थी इतने दिनों तक ?

पहले तो तुम मुझे ‘आप’ कहना बन्द करो आज से–भर्राये स्वर में स्वर्णा बोली–मुझे यह सुनना अच्छा नहीं लगता, समझे।

    तो क्या कहूँ ?–हंसकर मैंने पूछा।

‘तुम’..मुझे ‘तुम’ कहकर पुकारा करो।

ठीक है, आजसे ‘तुम’ कहकर ही पुकारा करूँगा।

चारपाई पर मेरे निकट बैठती हुई स्वर्णा कहने लगी– तुम अभी तारानाथ भट्टाचार्य से मिलकर आ रहे हो न ? मुझे सब कुछ मालूम है। सब कुछ जानती हूँ मैं। बोलो, क्या-क्या बातें हुईं उनसे ?

   जब तुमको सब कुछ मालूम ही है तो मेरे बतलाने से क्या लाभ ?

नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूँ।

     ठीक है, लो सुनो। और मैंने सब कुछ सुना दिया उसे। फिर अन्त में बोला–स्वर्णा, एक ओर तुम्हारे पास असीम अलौकिक शक्तियां हैं और दूसरी ओर बकुल की तमाम यादें भी हैं तुम्हारे ह्रदय में। सचमुच तुमने बड़ा ही त्याग किया है, स्वर्णा। लेकिन एक बात पूछ सकता हूँ ?

     क्या उस त्याग का मूल्य वे तमाम पैशाचिक शक्तियां भर ही हैं जिनका बोझ उठाये तुम न जाने कितने सालों से जिन्दा लाश की तरह भटक रही हो काशी की अँधेरी गलियों में ?

सोचता हूँ, यदि उन शक्तियों की अपेक्षा त्याग व प्रेम का मूल्य अधिक होता तो उन्हीं शक्तियों की सहायता से तुम अपना बदला ले लेती उस कुटिल कापालिक से।

न जाने किस आवेश में कैसे इतना सारा बोल गया मैं–समझ में नहीं आया। स्वर्णा चुपचाप सुनती रही। कुछ बोली नहीं। उसकी ऑंखें डबडबा आयीं।

     फिर एक झटके से उठी वह और दुबारा मेरी ओर देखे बिना कमरे से बाहर निकल गयी। मैं उसे जाते हुए देखता रहा। न उसे रोका और न टोका ही। बाद में बहुत अफ़सोस हुआ। क्यों कह दी मन को चोट लगने वाली बात ? नहीं कहनी चाहिए थी। पूरी रात व्याकुल मन लिए करवट बदलता रहा मैं चारपाई पर।

     कई दिन बीते, सप्ताह बीते और फिर कई महीने बीत गए, स्वर्णा नहीं आई। उसके दर्शन दुर्लभ हो गए। धीरे धीरे गर्मी का मौसम बीत गया। नीले आकाश में अब काले-भूरे बादलों के टुकड़े दिखलायी देने लगे थे। कभी-कदा रिम-झिम बरसात भी हो जाया करती थी।

     उस दिन हल्की-हल्की वर्षा हो रही थी। खिड़की के नजदीक चारपाई पर लेटा हुआ आसमान में बादलों को देख रहा था मैं। फिर न जाने कब झपकी लग गयी। उसी मनस्थिति में मैंने देखा– पद्मा नदी के किनारे बालू पर बैठा हुआ हूँ और मेरी गोद में सिर रखे स्वर्णा लेटी हुई है। उस समय निःशब्द शून्य वातावरण में चांदनी बिखरी हुई थी। चारों ओर ‘सांय-सांय’ हो रही थी। अभिभूत दृष्टि से अपलक निहार रहा था मैं स्वर्णा की ओर। एक सम्पूर्ण नारी लग रही थी वह–मादक सौंदर्य, उन्मुक्त यौवन से भरपूर…ऐसी कि देखकर एक बार किसी का भी पौरुष सम्मोहित हो जाय।

सचमुच राजकुमारी-सी लग रही थी स्वर्णा। सुर्ख रेशमी साड़ी, बिना बाँहों का ब्लाउज़, अति कमनीय मुख, कानों के पास खिंची काजल की पतली रेखा और शरबती आँखों में छलकती हंसी। नारी देह की उन्मादक गन्ध और अपरूप रूप का नशा…

एक झटके से आँख खुल गयी। कोई दरवाजा पीटता हुआ कह रहा था–किवाड़ खोलो।

     उस समय भयंकर वर्षा हो रही थी। वही आवाज़ फिर सुनाई पड़ी–खोलो, दरवाजा खोलो। मैं भीग रही हूँ, जल्दी खोलो।

आवाज़ पहचान गया मैं। वह स्वर्णा की आवाज़ थी। झट से उठकर दरवाजा खोल दिया। प्रचण्ड वेग से हवा के झोंके बारिश की बूंदें लिए भीतर तक आ गए। उन्ही के साथ स्वर्णा भी भीतर आ गयी।

     भीगा आँचल हवा में ‘फर-फर’ उड़ रहा था। मैंने उसकी ओर देखा–राख जैसा रंग, बदहवास चेहरा, सूजी हुई ऑंखें, लगा–जैसे कई रातों से जागी हुई हो। आँखों के नीचे स्याह धब्बे भी दिखाई दे रहे थे। उसने बुझी-बुझी निगाह से मेरी ओर देखा, फिर विषण्ण स्वर में कहा–मेरे सारे कपडे भीग गए हैं, क्या करूँ ? पहनने लायक कुछ है तुम्हारे पास ?

मेरे यहाँ साड़ी कहाँ मिलेगी ? मेरी पैंट, शर्ट है, वही पहन लो।

      मैंने खूंटी से अपनी पैंट-शर्ट उतार कर उसे थमा दी। गीली साड़ी उतार कर उसने मेरी पैंट और शर्ट पहन ली.

फिर मेरे बिलकुल करीब चारपाई पर बैठती हुई धीरे से बोली–बहुत याद करते थे न ? रोज मेरी प्रतीक्षा करते थे। बोलो, सही है न ?

हाँ, बिलकुल सही है। अभी-अभी तुम्हारा ही सपना देख रहा था।

क्या ?

     और उस ‘क्या’ के उत्तर में सपने की सारी बातें, एक- एक कर बतला दीं मैंने स्वर्णा को। चुपचाप मौन साधे और मेरी ओर एकटक निहारती हुई सुनती रही मेरे सुनहरे, सुन्दर और मोहक सपने की बातें। उसके सुन्दर चेहरे पर कई भाव आये और गए उस समय। फिर नज़रें झुकाये न जाने क्या सोचने लगी वह।

    थोड़ा हंसकर मैंने पूछा–अच्छा, यह बतलाओ, इतने दिनों थी कहाँ तुम ? क्या नाराज़ थीं मुझसे ?

भला तुमसे क्यों होउंगी मैं नाराज़ ?–फिर थोड़ा रूककर बोली वह–तुमने मेरे सूखे, नीरस, बीरान जीवन में अमृत संजीवनी बनकर प्रवेश किया है। दीर्घ अन्तराल के बाद जैसा मोहक सपना तुमने देखा है, वैसा ही मोहक सपना मैंने भी देखा है तुमको लेकर…।

      यह सुनकर स्तब्ध-सा हो गया मैं। कुछ पल तक अपलक देखता रहा स्वर्णा की ओर। फिर थोड़ा हंसकर बोला–तो तुम्हारे और मेरे सपने एक ही हैं।

मुस्करा कर बोली स्वर्णा–अच्छा, छोडो सपनों की बात, लाओ एक गिलास पानी दो।

क्या करोगी ?

     मदिरा-पान करुँगी और क्या करुँगी ? गिलास और पानी लाकर रख दिया मैंने स्वर्णा के सामने।

उसने हवा में पहले की तरह हाथ हिलाया, दूसरे ही क्षण पहले की तरह कीमती अंग्रेजी शराब की बोतल उसके हाथ में आ गयी और उसी के साथ आ गयी रुचिकर भोजन के साथ एक थाली। ‘गट-गट’ कर वह पूरी शराब पी गयी।

     खाली हो गयी बोतल। फिर भोजन किया उसने। भोजन क्या था, तला हुआ मुर्गा, कबाब और चावल।

    भोजन करने के बाद दूसरे हाथ से मुंह पोंछती हुई गीले स्वर में रुक-रुक कर कहने लगी सुवर्णा– उस दिन मेरे अन्तराल की जो आग भड़का दी थी तुमने, जानते हो, उसी धू-धू कर जलती हुई आग की लपटों में एक लम्बे अरसे से झुलस रहा है मेरा मन, मेरा प्राण और मेरी आत्मा भी। मेरा जीवन शून्य तो था ही, उस नए आघात ने जेठ, बैसाख की रेगिस्तानी आंधी की तरह मेरे अन्तराल को बुरी तरह झकझोर दिया। झुलस कर रह गया सब कुछ मेरा। मैंने प्रेम किया था बकुल से–वासना रहित आत्मिक प्रेम। वह भी चाहता था मुझे ह्रदय से।

    हम दोनों ही शीघ्र परिणय सूत्र में बंधने वाले थे। लेकिन उस कापालिक ने मेरी समस्त आकाँक्षाओं को राख कर दिया एकबारगी। जीवन में चारों ओर शून्य-ही-शून्य बिखर गया। कभी फिर आएगी बहार–इसकी आशा नहीं थी जीवन में। फिर भी अपने उजड़े हुए जीवन को अपनाने का संकल्प कर लिया।

      जीवन रुका था, अभिशाप मिला था, उसे बिना प्रतिरोध के ग्रहण कर लिया मैंने। तभी तुमने सर्वथा अप्रत्याशित रूप से व्यंग्य की बौछार कर दी। तुम्हारे एक- एक शब्द ने मेरे टूटे मन में हा-हाकार उत्पन्न कर दिया एकबारगी।

पाषाणवत बैठा सुनता रहा मैं स्वर्णा की वेदना में डूबी हुई मर्मस्पर्शी व्यथा-कथा। कुछ बोला न गया मुझसे।

     स्वर्णा की जो अंतरंग कथा संक्षेप में तारानाथ भट्टाचार्य ने सुनाई थी, लगभग वही कथा थी वह। लेकिन स्वर्णा ने जो कथा सुनाई, उसमें उसकी अनुभूतियों से भरा, मन को द्रवित कर देने वाला भाव भी था जो मेरी आत्मा को स्पर्श कर गया एकबारगी।

  सब कुछ सुनने के बाद न जाने कैसा हो गया मेरा मन। काफी देर तक शून्य में अपलक ताकता रहा मैं।

   बाहर प्रचण्ड वेग से बारिश हो रही थी। स्वर्णा बोलती जा रही थी–

      मेरे अधिकार में एक सीमा तक भयानक तामसिक शक्तियां हैं और कुछ उच्चकोटि की तमोगुणी पैशाचिक आत्माएं भी वश में हैं जो मेरे इशारा मात्र से असम्भव से असम्भव कार्य भी संपन्न कर सकती हैं। उनकी सहायता से कभी का बदला ले चुकी होती मैं, लेकिन ले नहीं सकी। मेरी एक विवशता थी…! और आज भी वही विवशता है।

      कैसी है वह विवशता ? कौन-सी है रूकावट ? क्या मैं जान सकता हूँ ? क्या तुम मुझे बतला सकती हो ?

   कुछ देर तक मौन रही स्वर्णा। ऐसा लगा मानो अतीत की गहराइयों में कहीं खोकर निर्जीव हो गयी हो वह। फिर घाटियों में गूंजती हुई-सी उसकी आवाज़ कहीं दूर से आती हुई प्रतीत हुई। कहने लगी–तुमने उस गुप्त साधना-स्थल की दीवारों पर टंगे नर-कंकालों को देखा होगा। वहीँ ऊँची वेदी पर भी एक नर-कंकाल को पालथी मारे बैठा हुआ देखा होगा।

   हाँ।

   उन्हीं टंगे हुए नर-कंकालों में एक कंकाल बकुल का भी है।

   यह सुनकर आश्चर्य और भय से भर उठा मैं। आगे कहने लगी वह–उन सभी नर- कंकालों की आत्माएं प्रधान कापालिक के अधिकार में हैं। बकुल की भी आत्मा को उसने अपने कब्जे में कर रखा है। वह अदृश्य रूप से उन आत्माओं से काम लेता है।             

       इच्छानुसार उनमें से किसी को मृत शरीर में प्रवेश करा कर अपने किसी आवश्यक अनुष्ठान को भी पूर्ण किया करता है। स्वर्णा बताती रही–इस कार्य में पगली काफी सहयोग देती है उसको._

   कौन पगली ?

   अरे वही पगली जिसने घाट पर सर्प के विष से मृत एक युवक को जीवित कर दिया था। 

   उस युवक को मैंने साधना-स्थल पर भी देखा था, वह भी तुम्हारे साथ।

   ठीक कहते हो। उस युवक के पार्थिव शरीर में उस समय उन्हीं में से किसी नर-कंकाल की आत्मा काम कर रही थी।

   यह सुनकर स्तब्ध रह गया मैं। स्वर्णा बोलती रही–

   पद्मासन की मुद्रा में बैठा वह नर-कंकाल जानते हो किसका है ? तिब्बत के एक महान् कापालिक जिसका नाम था–मिलरेप। वह अत्यन्त उच्चकोटि का तान्त्रिक तथा शव-साधक और तिब्बत के सियांग मठ का आचार्य था। लगभग सौ वर्ष पहले उसने मठ में ही समाधि ली थी। समाधि के समय उसकी आयु पूरी एक सौ अस्सी वर्ष थी। भयंकर कापालिक शव-साधक की सूक्ष्म शरीरधारी आत्मा अभी तक अपने कंकाल से संपर्क बनाये हुए है। 

   प्रधान कापालिक का नाम तो अवश्य जानती होगी तुम ?–मैंने स्वर्णा से पूछा।

   हाँ, उसका नाम है–कालेश्वरानंद अवधूत।

   तान्त्रिक मिलरेप का कंकाल कैसे मिला कालेश्वरानंद को ?

   जब मठ के प्रांगण में मिलरेप के शव को भूमिगत किया जा रहा था, उस समय कलेश्वरानंद उपस्थित था वहां। फिर न जाने कौन-सा खेल खेला कि कुछ ही समय में मठ का सर्वेसर्वा बन बैठा वह। मठ और उसमें रहने वाले लोगों पर पूरा अधिकार हो गया उसका। धीरे-धीरे दो वर्ष का समय बीत गया। एक दिन मौका देखकर रात में मिलरेप की समाधि से उसका नर-कंकाल निकाल लिया उसने। और बाद में न जाने कैसे काशी ले आया उस नर- कंकाल को वह।

   क्यों ?–थोड़ा व्यग्र होकर मैंने स्वर्णा से पूछा।

     यह काफी रहस्यमय बात है। तुमको ज्ञात होना चाहिए कि उच्चकोटि के तन्त्र-साधकों की आत्माएं शीघ्र पुनर्जन्म को उपलब्ध नहीं होतीं। कोई तान्त्रिक आत्मा दीर्घकाल तक अंतरिक्ष के अंतर्जगत में निवास करती है और अपने निवास-काल में  अपनी समाधि और उसमें स्थित अपने पार्थिव शरीर के नर-कंकाल से बराबर संपर्क बनाये रखती है अगोचर रूप से। इसका क्या रहस्य है ?–यह तो पूरी तरह बतलाया नहीं जा सकता, लेकिन इतना अवश्य है कि अपनी समाधि के माध्यम से अपने पट्ट शिष्यों को वे आत्माएं तंत्र के गुह्य आयामों की शिक्षा-दीक्षा आदि देती हैं। इसके आलावा ऐसे नर-कंकालों का और भी गोपनीय और रहस्यमय तिमिराच्छन्न तान्त्रिक महत्व को  भली-भांति जानता-समझता रहा होगा कापालिक कालेश्वरानंद अवधूत। थोड़ा रूककर स्वर्णा बोली–

   यदि मेरा अनुमान सच है तो निश्चय ही मिलरेप की आत्मा से कोई भयंकर तमोगुणी तान्त्रिक सिद्धि प्राप्त करना चाहता होगा वह कापालिक।

    वह तान्त्रिक सिद्धि क्या हो सकती है ?–मैंने थोड़ा असहाय होकर पूछा।

    कुछ देर तक न जाने क्या सोचती रही स्वर्णा, फिर बोली–जैसा कि मैंने सुना है कि मिलरेप को हाकिनी विद्या और डाकिनी विद्या की अमोघ सिद्धि उपलब्ध थी। हो सकता है कि उन्हीं दोनों सिद्धियों को प्राप्त करना चाहता हो वह निलरेप की आत्मा से।

हाकिनी और डाकिनी विद्या से क्या-क्या भौतिक लाभ हैं ?–मैंने पूछा।

    बहुत सारे लाभ हैं–थोड़ा मुंह बनाकर बोली स्वर्णा और सामने रखी शराब को गिलास में उड़ेलकर ‘गट-गट’ कर पी लिया और उलटे हाथ से मुंह पोंछती हुई आगे कहने लगी :

जानते हो…तुम जो हाकिनी-डाकिनी विद्या तंत्र की सर्वोच्च और अमोघ तमोगुणी विद्या है, इसलिए उसे ‘ब्रह्मास्त्र विद्या’ भी कहते हैं। अति कठिनाई और परिश्रम से होती है यह विद्या उपलब्ध। सबके वश की बात नहीं है। जिसे यह दुर्धर्ष विद्या उपलब्ध होती है, वह मानवेतर शक्ति-सम्पन्न होता है, उसके लिए प्रकृति की सीमा में कुछ भी असम्भव नहीं। नियति तो उसके अधिकार में नहीं होती, लेकिन प्रकृति एक विशेष सीमा तक उसके अधिकार में हो जाती है अवश्य–इसमें सन्देह नहीं।

      यह तो निश्चित है कि कापालिक को अनेक तान्त्रिक सिद्धयां प्राप्त हैं। कौन-कौन-सी तान्त्रिक सिद्धियां प्राप्त हैं–यह तो बतला नहीं सकती, लेकिन इतना अवश्य मैं जानती हूँ कि काल और उसके प्रभाव पर उसका अधिकार अवश्य है और इसी कारण इतनी लम्बी आयु हो जाने के बाद भी युवा बना हुआ है वह।

     यह मैं नहीं कहती कि काल के प्रभाव से वंचित है। काल का प्रभाव पड़ता है अवश्य उस पर लेकिन शनै-शनै।

    सब कुछ सुनकर मैंने कहा–कल्पना से परे बड़ी ही आश्चर्यजनक और साथ ही अविश्वसनीय बातें हैं ये।

इससे भी अधिक आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय एक और बात है और वह यह है कि मिलरेप की एक भैरवी भी है जिसका नाम है–नागगन्धा।

आज भी जीवित है वह। इस समय उसकी आयु लगभग दो सौ पचास वर्ष से कम न होगी। वह भी कालंजयी है। इतनी लम्बी आयु होने पर भी सद्यः नवयुवती ही प्रतीत होती है वह। तंत्रशास्त्र की कई अमोघ और दुर्धर्ष विद्याओं का ज्ञान है उसे। बहुत बड़ी शव-साधिका भी है वह। शव सिद्धि है उसे।

    इन सबके अतिरिक्त योग-तंत्र की अमोघ, गूढ़ और गुह्य विद्या धूमावती विद्या की भी सिद्धि है उस महाभैरवी को। फलस्वरूप किसी भी क्षण आवश्यकता पड़ने पर कोई भी रूप बदल सकती है।

     कभी-कभी तो लोमड़ी, स्यार, कुत्ता आदि पशु, तोता, मैना, मुर्गा आदि पक्षियों के रूप में भी अपने आप को परिवर्तित कर लेती है। कापालिक कालेश्वरानंद उसे अपना परम गुरु मानता है। वह तान्त्रिक शिष्य है उसका। पहले असम की ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे किसी निर्जन श्मशान में रहती थी वह कालंजयी भैरवी।

लेकिन सुना है कि अब वक्रेश्वर के महाश्मशान में विभिन्न रूप धारण कर विचरण करती रहती है। उसको समझ पाना और पहचान पाना अत्यन्त कठिन है। सच पूछा जाय तो उसी की मानवेतर शक्ति की सहायता से तान्त्रिक सिद्धियों का तमाम खेल खेेलता है वह नर-पिशाच।

एक बात पूछ सकता हूँ ?

पूछिये।

     तुम उस पिशाच के चंगुल में क्यों फंसी हुई हो ? उसने तो तुम्हारे नारीत्व को कभी का निचोड़ कर बलि दे दी अपनी साधना की वेदी पर। अब क्या शेष है ?

शेष तो कुछ भी नहीं है और उसकी तान्त्रिक शक्ति और सिद्धि की भी परवाह नहीं है मुझे। यदि परवाह है तो केवल बकुल की आत्मा की। वह कापालिक के चंगुल में अब तक फंसी तड़प रही है मुक्ति के लिए।

समझा नहीं–मैंने कहा।

     जब मेरे वियोग में बकुल ने काली मंदिर में अपनी बलि दी, उसी समय कापालिक कलेश्वरानंद ने उसकी आत्मा पर अधिकार कर लिया अपना।

समझ गया, तुम उसकी मुक्ति चाहती हो ?

हाँ, बकुल की आत्मा की मुक्ति चाहती हूँ मैं। जब तक उसे मुक्त न करा लूँ, तब तक कुछ भी नहीं कर सकती मैं। बस यही है मेरी असमर्थता और यही है मेरी विवशता और इसी कारण मैं भी उसके चंगुल में फंसी हुई हूँ। समझ गए न ?

    उस पिशाच के चंगुल से बकुल के मुक्त होने के बाद क्या होगा ?–मैंने पूछा।

    होगा क्या ?–स्वर्णा बोली–उसी के साथ मैं भी उसके बंधन से मुक्त हो जाउंगी, सदैव के लिए स्वतंत्र। फिर देखोगे तुम कैसे लेती हूँ मैं उस पापी से अपना प्रतिशोध और कैसे लेती हूँ बदला उस कृतघ्न से अपने कौमार्य-भंग का।

     तुम नहीं समझ सकोगे मेरे ह्रदय में जलते हुए प्रतिशोध की ज्वाला को। तुम यह भी नहीं समझ सकोगे कि बकुल से कितना प्रेम करती थी मैं और वह भी कितना चाहता था मुझे। मेरे वियोग को सहन न कर सका वह और अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए माँ काली के चरणों में उसने।

सच पूछो तो हम दोनों का आत्मिक प्रेम था, शारीरिक और मानसिक नहीं। लेकिन क्या करूँ ?–समझ में नहीं आता–इतना कहकर सिसक-सिसक कर रो पड़ी स्वर्णा।

उसके अन्तराल में दबी कौन- सी पीड़ा आंसुओं के सहारे बाहर निकलना चाहती थी ?–समझ न सका मैं।

     मेरा मन भी विषण्ण हो उठा उस समय न जाने क्यों ? मौन साधे न जाने क्या-क्या सोचने लगा मैं। रात का प्रथम प्रहर ख़त्म होने वाला था। बारिश बन्द हो गयी थी। स्वर्णा अभी भी रो रही थी सिसक-सिसक कर। रहा न गया मुझसे। न जाने क्यों और कैसे, किस प्रेरणा के वशीभूत होकर और न जाने किस भावना में बंधकर सहसा थोड़ा आगे बढ़ा और दोनों हाथ थाम लिए मैंने उस साधिका के।

    कुछ क्षण बाद धीरे–धीरे उसने अपना सिर उठाकर सजल नेत्रों से मेरी ओर देखा एकबार। कौन-सा भाव था उस समय उसके चेहरे पर और उसकी बड़ी- बड़ी सजल आँखों की झील जैसी गहराई में कौन-सी पीड़ा थी, कौन-सी वेदना थी ? –समझ न सका मैं।

    सुवर्णा के दोनों हाथ पहले ही की तरह थामे उसकी स्थिर और भावशून्य आँखों में झांकते हुए मैंने पूछा–इसका कोई उपाय नहीं है ? कोई रास्ता नहीं है ? हो तो बतलाओ मुझे।

    मेरी बात सुनकर कुछ देर चुप रही स्वर्णा, फिर धीरे से बोली मेरी ओर गहरी नज़रों से देखते हुए वह–उपाय भी है और रास्ता भी है।

बतलाओ मुझे। मेरे योग्य जैसा भी जो कुछ होगा–वह अवश्य करूँगा मैं तुम्हारे लिए।

    पहले हाँ’ तो करो, फिर बतलाउंगी।

न जाने किस भावावेश में और न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर ‘हाँ, हाँ, हा’ तीन बार कह दिया मैंने।

उसके बाद स्वर्णा ने जो उपाय बतलाया और बतलाया जो रास्ता–उसे सुनकर स्तब्ध और अवाक् रह गया मैं एकबारगी। रोमांचित हो उठा मेरा सारा शरीर। मैंने कभी सोचा भी न था और सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि कभी वह महाभैरवी ऐसा भी प्रस्ताव रखेगी मेरे सामने। रास्ता था उसके साथ संसर्ग करने का.

      उसकी बात मानने की घटना ने मेरे लिए अभौतिक सत्ता में प्रवेश का मार्ग खोल दिया. उस महायोगिनी ने मेरे लिए वो सब संभव कर दिया जो योग-ध्यान-तंत्र की बहुत बड़ी उपलब्धि समझी जाती है और जो विरले ही किसी को प्राप्त होती है।

कुछ मौन साधे देखकर स्वर्णा बोली–शायद मेरा यह रूप पसंद नहीं तुमको ?

    मैंने धीरे से सिर उठा कर देखा उस की ओर। शायद मेरी आँखों की मूक भाषा पढ़ ली थी उसने।

मैंने कहना चाहा–तुम भी तो कालंजयी हो और रूप बदल लेती हो–कभी श्मशान की वृद्धा भिखारिन तो कभी तन्वंगी श्यामा, कभी किशोरी, और कभी कुछ…कभी कुछ…। शायद मेरे मन की भाषा भी पढ़ ली उस त्रिकालदर्शिनी ने।

खिलखिला कर हंस पड़ी एकबारगी स्वर्णा। बड़ी विचित्र और रहस्यमयी हंसी। थमने पर बोली–

जानते हो तुम–इस नश्वर काया में पूरे एक सौ साठ वर्ष हो गए मेरी आत्मा को निवास करते हुए। मतलब यह कि मेरी आयु एक सौ साठ वर्ष है।

    थोड़ा रूककर वह आगे बोली–मैं नागविद्या तो नहीं जानती लेकिन धूमावती विद्या अवश्य जानती हूँ जिसकी शक्ति से अपनी इच्छानुसार अपने रूप को बदल सकने की सामर्थ्य है मुझमें।

लेकिन वह रूप तो स्थायी न होगा ?–मेरे इस प्रश्न के उत्तर में स्वर्णा ने कहा–रूप का स्थायित्व अपने मनोबल और अपनी इच्छा शक्ति पर निर्भर है। इस समय मेरी अवस्था कितनी लग रही है तुमको ?

बस, यही लगभग 25-30 के बीच–मैंने कहा।

     अच्छा, अब बतलाना–यह कहकर पद्मासन की मुद्रा में बैठ गयी स्वर्णा और नेत्र बंद कर श्वास को भीतर खींच लिया उसने। धनुष की तरह पूरा तन गया एकबारगी उसका शरीर। हे भगवान ! यह क्या ?–आश्चर्य से मेरी ऑंखें फ़ैल गयीं, अवाक् देखता ही रह गया मैं !

क्षण- पति-क्षण असाधारण रूप से उसके आकार-प्रकार और रूप-रंग में परिवर्तन होने लग गया और कुछ ही समय के अन्तराल में वह 18 वर्षीया नवयुवती के रूप में परिवर्तित हो गयी जिसके अवर्णनीय रूप और नवयौवन से पूर्ण देव-कन्या जैसे असाधारण सौंदर्य को देखकर मेरी ऑंखें चुंधिया गयीं एकबारगी।

       एक मानवी में अकल्पनीय, इतना अगाध सौंदर्य भी हो सकता है–सपने में भी सोचा नहीं जा सकता। उसके अंग-प्रत्यंग में नवयौवन की सुगन्ध भरी थी जैसे। लम्बी, घनी केश-राशि सारी पीठ पर बिखरी हुई थी। पुरे शरीर पर हलके पीले रंग की पारदर्शी रेशमी साड़ी के अलावा और कोई अंतःवस्त्र नहीं था।

उसी झीने और पारदर्शी आवरण के पीछे से यौवन से तरंगित सुगन्धित शरीर के अंग-प्रत्यंग बाहर झांक रहे थे। बड़ी ही मोहक छवि थी स्वर्णा की।

     उसका रूप और यौवन धीरे-धीरे उष्ण रक्त में फैलता जा रहा था जैसे। उसके सम्मोहन से चाहकर भी मुक्त नहीं हो पा रहा था मैं।

     अपूर्व रूप और मोहक शरीर ने जैसे जादू कर दिया था मुझ पर। एकाएक बिजली चमकी। आसमान में एक चमकीली रेखा खिंच गयी एकबारगी। उसी के साथ बारिश ने जोर पकड़ लिया। बिजली फिर कौंधी। एकटक देखता रहा मैं स्वर्णा की ओर। हज़ार प्यालियों के नशे से मदहोश उसकी उन स्वप्निल आँखों में मैंने क्या देखा–बतला नहीं सकता।

    उस समय उसका रूप और भी जगमगाने लगा था। आँखों में जैसे काजल बहने लगा। कुसुम कोमल गालोँ पर बिखर गए लावण्य के कण। न जाने कब तक विस्मय से देखता रहा अपलक नवपरिणीता बधू जैसी स्वर्णा की ओर और फिर न जाने कब और किस पल आपा खो बैठा मैं।

    मन और प्राण जिस उत्ताप से जल उठा था, उन्हें शीतलता का प्रलेप अवश्य मिला उन अभिसार के पलों में और उन्हीं परम प्राकृतिक पलों में मेरे और स्वर्णा के तन-मन के साथ दोनों की आत्माओं का कब मिलन हुआ और दोनों कब एकाकार हुए और कब उसके परिणाम स्वरुप आकर्षित होकर बकुल की आत्मा ने कापालिक कालेश्वरानंद के चंगुल से हमेशा के लिए मुक्त होकर नवीन शरीर की प्राप्ति के लिए स्वर्णा के गर्भ से संपर्क साधा ?–यह सब भला कौन जान-समझ सकता है, सिवाय नियति के।

     सुवर्णा का अनुरोध पूरा हो चुका था, सपने साकार हो चुके थे उसके। बकुल को पुनः प्राप्त कर चुकी थी वह, भले उस उपलब्धि का रूप दूसरा हो और उस उपलब्धि के बाद उसने अन्त में मुझसे कहा था–

इसी रूप में बकुल ने देखा था मुझे। अब इस रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होगा। जिस रूप में अपनी प्रेयसी को देखा था और देखी थी अपनी भावी पत्नी की छवि, उसी रूप में अपनी माँ की भी छवि देखेगा बकुल भविष्य में।

     आकाश में बादल छंट चुके थे, बारिश भी हो गयी थी बंद। भोर होने वाली थी। पूरव का नीला आकाश धीरे-धीर अब सफ़ेद होने लगा था। पक्षी चहचहाने लगे थे।

अपने स्थान से अचानक स्वर्णा उठी और एक बार मेरी ओर गहरी दृष्टि से देखा और बिना कुछ बोले, बिना कुछ कहे कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर निकल गयी एक झटके से।

मैं उसे जाते हुए देखता रहा। कापालिक से अपना प्रतिशोध कब लिया, अपना बदला कैसे लिया, किस रूप में लिया स्वर्णा ने ?–यह मैं नहीं जान पाया।

     हाँ, इतना अवश्य बतला सकता हूँ कि एक दिन साँझ के समय एक सड़ी-गली क्षत-विक्षत लाश जिसके मांस को पक्षी नोच नोच कर खा रहे थे, गंगा की धारा में बहती जा रही थी। वह लाश उस कापालिक कालेश्वरानंद की थी।

     चार वर्ष मैं स्वर्णा के संपर्क में रहा था और इस कालावधि में उस महासधिका द्वारा जिन अलौकिक चमत्कारों और सिद्धियों के दर्शन मुझे हुए थे, निस्संदेह अलौकिक थे जिनका तमोगुणी तान्त्रिक साधना भूमि में अत्यन्त महत्व है।

   सुवर्णा स्वयं अपने आपमें एक परम सिद्ध साधिका और एक अद्भुत योगिनी थी–इसमें भी सन्देह नहीं। ह्रदय से निकले हुए अनेक अनुरोध और याचना की रक्षा करते हुए मैंने उसे जो सहयोग दिया था–उससे जहाँ एक दुःखी संतप्त और परतंत्र आत्मा सदैव के लिए स्वतंत्र हो गयी थी, वहीँ भयंकर तमोगुणी तान्त्रिक साधना के घनघोर जंगलों में दीर्घकाल से भटकने वाली एक असहाय, आश्रयहीन नारी को वास्तविक जीवन भी उपलब्ध हुआ था और मातृत्व भी।

     यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि आज भी मेरे सामने स्वर्णा का अस्तित्व है। अब तक तो उसकी आयु काफी हो चुकी होगी। लेकिन उसके रूप, यौवन और सौंदर्य में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है–सब कुछ पूर्ववत है–वही रूप, वही यौवन, वही लावण्य, वही सौंदर्य और वही सुगठित गौरवर्णीय देहयष्टि। अम्लान पुष्प की तरह उसका अस्तित्व आज भी अपनी सुगन्ध बिखेर रहा है।

    हाँ, सुवर्णा के साथ एक युवक भी रहता है–बहुत ही सुन्दर और आकर्षक, लम्बा कद, गौरवर्ण, सुगठित देहयष्टि, बड़े बड़े शान्त और निर्विकार नेत्र, चौड़ा और उभरा हुआ मस्तक, लम्बी नासिका, रक्ताभ होंठ और उन पर सदैव बिखरी रहने वाली मन्द-मन्द मुस्कान। गर्दन तक झूलती घनी, स्याह केश-राशि। शरीर पर काषाय वस्त्र और आयु यही लगभग बीस-बाइस वर्ष।

     नाम है–रत्नकल्प। भला रत्नकल्प यह क्या जानता था कि जो उसकी माता है, जननी है, वह कभी इसी जीवन-काल में उसकी प्रेयसी रही थी और वह स्वयं था उसी का प्रेमी और भावी पति–बकुल। कैसा है नियति का चक्र और कैसा है प्रकृति का खेल ?–कोई नहीं जानता।

   अपनी हिमालय यात्रा- काल में स्वर्णा और रत्नकल्प से मेरी भेंट हुई थी। गौरीशंकर पर्वत की एक गुफा में दोनों रहते थे। दोनों को देखा तो देखता ही रह गया। कहीं कोई अन्तर नहीं। वही लावण्य और वही नारी सुलभ आकर्षण।

   हाँ, एक नयी चीज जरूर देखने को मिली स्वर्णा में और वह चीज़ थी चेहरे पर ‘दप-दप’ करता हुआ दिव्य तेज। रत्नकल्प में भी एक साधनारत परमयोगी के लक्षण दिखाई दिए मुझे। रत्नकल्प के रूप में बकुल की कथा सहसा याद आ गयी मुझे।

थोड़ी देर बैठा रहा गुफा में और जब उठकर चलने लगा तो स्वर्णा के संकेत पर झुककर चरण-स्पर्श किया रत्नकल्प ने। 

    मैंने सिर घुमाकर देखा स्वर्णा की ओर एक बार–गीली हो गयी थीं उसकी ऑंखें। फिर बहुत दूर तक देखती रही मुझे जाते हुए वह।

(चेतना-स्टेमिना विकास मिशन)

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