स्वदेश कुमार सिन्हा
बीते दिनों केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ एनसीईआरटी द्वारा दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रमों में बदलाव की खबरें चर्चा में रहीं। हालांकि जिस मामले पर सबसे अधिक जोर दिया गया, वह इतिहास की किताब से मुगल शासकों से संबंधित अध्याय रहा। लेकिन हकीकत यह है कि इसके अलावा भी सरकार ने डॉ. आंबेडकर द्वारा किये गये आंदोलन व संविधान निर्माण में उनकी अहम भूमिका तक को नजरअंदाज किया है। इसके अलावा जर्मन फासीवाद व अमेरिकी साम्राज्यवाद की करतूतों को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है।इसमें कोई शक नहीं कि ये महज छोटी-छोटी बानगियां हैं। वास्तव में परिवर्तन इससे कहीं अधिक और व्यापक पैमाने पर किये जा रहे हैं। इनके गहरे निहितार्थ हैं।
मसलन, मुग़ल इतिहास को निकालने या फिर ‘बाबरनामा’ जैसे ऐतिहासिक दस्तावेज को ख़ारिज़ करने की बात ही करें तो भारत में करीब तीन सौ से अधिक वर्षों तक (1526 से 1858 तक) मुग़लों ने शासन किया। इससे पहले लोदी वंश और ग़ुलाम वंश का भी दिल्ली सल्तनत पर शासन रहा। इस बात में कोई शक नहीं, मुग़लों सहित सभी मुस्लिम शासक देश बाहर से या कहें मध्य एशिया से हमलावर के रूप में आए थे। मोहम्मद गोरी ने तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया और बाद में बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर देश में मुग़ल साम्राज्य की नींव डाल दी।
अगर देखा जाए, तो अंग्रेजों द्वारा 1857 में अंतिम मुग़ल सम्राट को कैद करके रंगून भेजने के बाद मुग़ल साम्राज्य का अंत हो गया और भारत में पूर्ण रूप से अंग्रेजी राज्य का शासन हो गया। अब संघ परिवार भारत में मुस्लिम शासन को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में चित्रित करता है। लेकिन इस दृष्टिकोण में ख़ामी यह है कि वह इस ग़लत तथ्य को प्रस्तुत करके वर्तमान में भारत में रह रहे मुस्लिमों के प्रति घृणा का माहौल पैदा करता है। वह हिन्दुओं में इस भावना को पैदा करके उनमें हीन भावना भरता है कि उनके ऊपर करीब 1000 वर्षों तक मुस्लिमों ने शासन किया।
वर्ष 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा सत्ता में भारी बहुमत से आई, तो संघ परिवार के ‘संघ चालक मोहन भागवत’ ने एक सेमिनार में कहा था कि “करीब 1000 वर्ष बाद एक बार फिर दिल्ली में हिंदू राष्ट्र की स्थापना हुई है।” उनके इस बयान में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे 200 वर्षों की अंग्रेजों की ग़ुलामी के तथ्य को छिपा लेते हैं। इसका अर्थ यह है कि केवल मुस्लिम शासनकाल को ग़ुलामी का कारण मानते हैं, अंग्रेजी शासनकाल को नहीं।
यहां यह तथ्य भी विचारणीय है कि सल्तनत काल तथा मुग़ल काल में किस तरह एक सांझी संस्कृति विकसित हुई। कला, साहित्य, संस्कृति, खान-पान और स्थापत्य सभी में। मुग़लों द्वारा बनाई शानदार इमारतें, जिनमें पारसी और भारतीय स्थापत्य कला का मिला-जुला प्रयोग हुआ है, इसकी गवाही देते हैं। लेकिन यहां एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, जिससे संघ परिवार के लोग आंख चुराते हैं, कि क्या कारण था कि विशाल हिंदू आबादी वाले इस देश में मध्य एशिया से छोटे-छोटे काफ़िलों में आए हमलावरों ने इस देश पर कब्ज़ा करके करीब 1000 वर्षों तक राज किया।
इस देश पर तो ग़ुलाम वंश के शासकों तक ने शासन किया। बाबर खुद ही मध्य एशिया में ‘उज़्बेकिस्तान’ के एक छोटी-सी रियासत ‘फ़रगना’ का शासक था। भारत में इस्लाम तो दसवीं शताब्दी में ही आ गया था, जब एक तुर्क जनजाति ग़जनवीद ने पंजाब पर कब्ज़ा कर लिया था। 12वीं सदी तक मुस्लिम सरदारों ने भारत के अधिकांश हिस्सों पर विजय प्राप्त कर ली थी। 1206 ईस्वी में दिल्ली में अपनी राजधानी स्थापित करके भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की।
सनद रहे कि 11 जून, 2014 को लोकसभा में अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि “1200 साल ग़ुलामी की मानसिकता परेशान कर रही है।” प्रधानमंत्री की इस बात ने कई सवाल एक साथ खड़े किए। क्या भारत 1200 वर्षों तक ग़ुलाम था? क्या भारत ब्रिटिश शासन के पहले भी ग़ुलामी थी? प्रधानमंत्री ने जब 1200 वर्षों की ग़ुलामी की बात कही, तो उन्होंने आठवीं सदी में सिंध के हिन्दू राजा पर हुए मीर क़ासिम के हमले (सन् 712) से लेकर 1947 तक के भारत को ग़ुलाम बताया। भारत में अंग्रेजों का शासन मोटे तौर पर 1757 से 1947 तक माना जाता है, जो 190 वर्ष है। इस हिसाब से ग़ुलामी के बाकी तकरीबन 1000 वर्ष भारत ने मुस्लिम शासन के अधीन गुज़ारे।[1]
अगर हम संघ चालक मोहन भागवत तथा प्रधानमंत्री की इस कथित बात को सत्य भी मान लें कि भारत में मुसलमानों ने हिंदुओं पर एक हज़ार वर्ष तक शासन किया, तो आख़िर इसके लिए ज़िम्मेदार कौन था? अक्सर संघ के लोग इसका गोल-गोल जवाब देते हैं। आमतौर पर वे हिंदू राजाओं की आपसी फूट या गद्दारी की बात करते हैं, लेकिन अगर इसका विश्लेषण सावधानीपूर्वक किया जाए, तो सच्चाई कुछ और ही है। मूलतः हिंदू धर्म की जातािगत सामाजिक संरचना इसके लिए ज़िम्मेदार है।
मार्क्स ने इस संबंध में लिखा है कि “भारतीय ग्राम समाज एक बिलकुल बंद समाज था तथा वे स्वतंत्र आर्थिक इकाई थे। गांव की ज़मीनों पर ग्राम समुदाय का नियंत्रण था। राजा केवल लगान वसूलता था। जातियों के सोपानक्रम में ब्राह्मण सबसे शीर्ष पर थे। गांव में किसानों के अतिरिक्त बढ़ई, लोहार, कुम्हार, जुलाहा, तेली, हज्जाम जैसे मजदूर किस्म के लोग भी रहते थे, लेकिन ये भी गांव की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही खटते थे। ग्राम समुदाय में कामगारों का भी एक वर्ग था, जो अछूत समझा जाता था। इनमें से अधिकांश उन आदिम निवासियों के वंशज थे, जिनको समूल नष्ट करने के बदले हिंदू समाज ने आत्मसात कर लिया था। लोगों का व्यवसाय जातियों के आधार पर होता था, जो वंश-परंपरारागत चलता रहता था। व्यक्ति का कोई महत्व नहीं था। सब कुछ जाति और समुदाय ही तय करते थे। आवागमन के साधन बहुत सीमित थे।” (भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, ए. आर. देसाई, पृष्ठ 7-8)
इन उद्धरणों को देखने से दो-तीन बातें सामने आती हैं। पहली बात तो यह कि विदेशी हमलावर आते रहे। कुछ लूटमार कर चले गए। कुछ यहीं बस गए और अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। लेकिन इसका भारतीय ग्राम संरचना पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ। दिल्ली में तख़्त-ताज बदलते रहे, लेकिन इसके ख़िलाफ़ कोई उल्लेखनीय जनप्रतिरोध कहीं देखने को नहीं मिलता है। ‘कोऊ हो नृप, हमें का हानि’ जैसी कहावतें चलन में थीं। जिस समाज में बहुसंख्यक आबादी का एक बड़ा तबका अछूत माना जाता हो, युद्ध करने का काम एक-दो जातियों के हाथ में हो, उस समाज में किसी विदेशी हमलावर के ख़िलाफ़ एकजुट प्रतिरोध संभव ही नहीं था। भारत के अछूत-दलितों की स्थिति रोम और यूनान के ग़ुलामों से बदतर थी, क्योंकि रोम आदि देशों के ग़ुलाम आज़ाद होकर स्वतंत्र नागरिक का जीवन जी सकते थे, लेकिन भारत के अछूत-दलितों को इस ग़ुलामी से स्वतंत्र होने के लिए मृत्यु का इंतजार करना पड़ता था।
एक अंग्रेज अफसर ने लिखा है कि, “एक युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों के खेमे में उसने सैकड़ों सिपाहियों को देखा, जो अलग-अलग चूल्हों पर खाना बना रहे थे। एक अन्य अंग्रेज अफसर ने बताया कि ये उच्च जाति के सिपाही हैं, जो छुआछूत के डर से अलग खाना बना रहे हैं।” मुस्लिम शासनकाल में, जिसके बारे में व्यापक धर्मांतरण की बात कही जाती है, और जिसके बारे में संघ परिवार का कहना है कि इसके पीछे जोर-जबरदस्ती और लालच था, लेकिन इसमें सच्चाई बहुत ही कम है।
यह सही है कि कुछ हिंदू धर्म की उच्च जातियों के लोगों ने सत्ता में हिस्सेदारी पाने के लिए धर्म बदला, लेकिन अधिसंख्य धर्मपरिवर्तन की दलित-पिछड़ी जातियों ने किया। इसके पीछे आर्थिक कारणों से ज्यादा समानता की बात थी। यह भी सही है कि ये जातियां आज भी मुस्लिम समाज में भी पिछड़ी जातियां हैं, लेकिन कुरान में जाति व छुआछूत जैसी कोई अवधारणा नहीं है। वे साथ में खा-पी सकते हैं तथा मस्जिद में सबके साथ समान रूप से प्रार्थना कर सकते हैं। दूसरी ओर हिंदू वर्णव्यवस्था के तहत लंबे समय तक इन्हें मंदिर में प्रवेश करने तक का अधिकार नहीं था और कहीं-कहीं अभी भी नहीं है।
संघ परिवार, जो आज मुस्लिम शासन को हिंदुओं की ग़ुलामी का प्रतीक मानकर केवल उसे इतिहास से ख़ारिज़ करने की कोशिश कर रहा है, क्या इन सच्चाइयों को स्वीकार करेगा?
संदर्भ :