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*शब्दों का दर्पण काका का*

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी ने मिलते ही प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य के कवि स्व.काका हाथरसी की कविता सुनाने लगे।
गालों पर छाई है लाली,चेहरा दमक रहा ज्यों दर्पण
ये सफेद डाकू हैं, हरगिज नहीं करेेंगे आत्म- समर्पण
जितने पहरेदार बढ़ रहे, उतनी होती चोरियां
गणपति बप्पा मोरिया

आगे की पंक्तियों में काका ने भ्रष्टाचार पर व्यंग्य किया है।
गांधी जी का चित्र लगाकर
जन-गण-धन पर डालें डाका
जाने कब कुर्सी छिन जाए
फिर कैसे जीएंगे काका
खोलेंगे अहले चुनाव में,भर लें आज तिजोरियां
गणपति बप्पा मोरिया

उपयुक्त आचरण कहां और कैसे हो रहा है,यह काका हाथरसी ने निम्न पंक्तियों में स्पष्ट किया हैं।
प्रजातंत्र-प्रांगण में भगवान अजब तमाशा होरिया
गणपति बाप्पा मोरिया
मैने सीतारामजी से कहा पांच दशक पूर्व लिखा व्यंग्य आज भी प्रासंगिक है। इतना कहते हुए मैने अपनी जिज्ञासा प्रकट की,काश उन दिनों जांच एजेंसियां सक्रिय होती तो काका पर जांच शुरू हो जाती और काका हाथरसीजी के आशियाने पर संभवतः बुलडोजर तो चल ही जाता?
सीतारामजी ने कहा साहित्य समाज का दर्पण है।
साहित्यकारों को हर क्षेत्र में पनप रही विसंगतियों,रूढ़ियों और संकीर्ण सोच के विरुद्ध अपने दायित्व का निर्वाह करना ही चाहिए। साहित्यकारों द्वारा अपनी कलम के माध्यम से अपने दायित्व का निर्वाह करना ही,समाज को दर्पण दिखाना है।
साहित्य का दर्पण वह सब दिखाता है,जो शायर कृष्ण बिहारी नूर के इस शेर में सवाल है।
आइना ये तो बताता है कि मैं क्या हूँ मगर
आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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