अग्नि आलोक
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नीति नहीं नीयत को समझों?

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शशिकांत गुप्ते

समाचारों की सुर्खियों में सौगातों की भरमार होती है।सौगातों को पढकर हर आम के चेहरे पर सुर्खी आना स्वाभाविक है।एक अनोखी योजना की सौगात का एलान हो रहा है।नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन।Nation digital health mission. इस योजना का एलान हुआ है।एनडीएचएम के अंतर्गत एक यूनिक हेल्थ कार्ड बनेगा।जो भी व्यक्ति यह कार्ड बनाएगा उसकी बीमारियां उनका ईलाज करने वाले चिकित्सकों,और जो जांचे की गई उनकी सम्पूर्ण जानकारी कार्ड में लिखी हुई होगी।
समाचार पत्र के मुखपृष्ठ पर उक्त समाचार पढ़ ही रहा था,उसी समय मेरे मित्र राधेश्यामजी का आगमन हुआ।राधेश्यामजी सुबह ही समाचार पत्र को पूरा पढ़ लेतें हैं।
मेरे हाथों में समाचार पत्र देख पूछने लगे हेडलाइन पढ़कर बहुत खुश नजर आ रहे हो?
मैने कहा,अपने देश की सरकार को देश के हरएक नागरिक के स्वास्थ्य की कितनी चिंता है।यह पढ़ कर तो हर कोई खुश होगा।और होना भी चाहिए।
राधेश्यामजी मेरी ओर देख कर मुस्कुराते हुए बोले।आप कैसे साहित्यकार हो,लेखक हो,आपकी विधा तो व्यंग्य की है?
मैने सहमति प्रकट करतें हुए पूछा? आप जो भी कह रहें हैं।यह सब सच मगर किसी अच्छे योजना की स्तुति भी करना चाहिए।
राधेश्यामजी ने कहा स्तुति करने के पूर्व साहित्य में व्याकरण को समझना भी जरूरी है।
यह जो सुर्खी आप पढ़कर खुश हो रहे हो,साहित्य के अनुसार यह सुर्खी संदिग्ध वर्तमान काल में आती है।इसे इंग्लिश में Ambiguous present tens कहतें हैं।संदिग्ध का मतलब योजना के क्रियान्वय होने में शंका पैदा होती है।इसे संभाव्य वर्तमान काल भी कह सकतें हैं। Potential present मतलब संभाव्य वर्तमान काल।
Potential का अर्थ सामर्थ्य भी होता है।सामर्थ्य होना और सामर्थ्य का सदुपयोग होना दोनो में भिन्नता है।
मैने राधेश्यामजी से निवेदन किया कि,आप इतना भारीभरकम साहित्य पढ़ना छोड़ कर व्यवहारिक बातें की कीजिए।
राधेश्यामजी ने कहा यही तो मैं समझाने की कोशिश कर रहा हूँ।
सुर्खिया पढ़कर भावावेश में आकर ज्यादा खुश मत होइए।व्यावहारिक मानसिकता से सोचिए।
नीति कितनी लुभावनी है, यह महत्वपूर्ण नहीं है,नीति प्रस्तुत करने के पीछे छिपी नीयत को समझना बहुत जरूरी है।
मै समझ गया कि,राधेश्यामजी आलोचक हैं।ये हर एक मुद्दे की आलोचना ही करेंगे।
राधेश्यामजी मेरे मन की बात जान गए और कहने लगे आलोचना की बात नहीं है।
वर्तमान में भविष्य की आशातीत सम्भवनाओं को प्रलोभनयुक्त शब्दों का मुल्लमा चढ़ाकर विज्ञापनों के माध्यम से आमजन तक पहुंचाया जा रहा है।किंतु सात वर्ष से अधिक समय हो गया है।अच्छेदिन कहीं भी दिखाई नहीं दे रहें हैं। ढिंढोरा पीटते हुए नांचते गाते, महंगाई को डायन की उपमा दी गई थी।अब डायन ने विकराल रूप धारण कर लिया है?पूर्व के सियासतदानों को नाकारा कहतें हुए उन्हें लानत के रूप में,चूड़ियां भेजने वालों की स्मृति मलिन क्यों हो गई है?
ईंधन के लिए सदी के नायक बैको से ऋण लेने की बात कहतें हुए तात्कालिक व्यवस्था पर व्यंग्य करतें थे?अब क्या साँप सूंघ गया?अर्थ व्यवस्था ने आम आदमी का इतना क्षय कर दिया है कि, उसका जीवन ही तहस नहस हो गया है।
एक अप्रवासिय भारतीय अक्षय होकर मुखिया से पूछतें है?आम की काटकर या चूस कर खाया जाता है।?
राधेश्यामजी पूर्णरूप से अपनी वाली पर आगए थे।कहने लगे,व्यवहारिक धरातल पर उपर्युक्त मुद्दों पर गम्भीरता से विचार विमर्श होना चाहिए।व्यवस्था पर प्रश्न उपस्थित करना हर जागरूक नागरिक का कर्तव्य होना चाहिए।दुर्भाग्य से इनदिनों जनसाधारण की समस्याओं के मुद्दों पर बहस होती ही नही है।मैने राधेश्यामजी के विचारों से सहमति प्रकट की और कहा इस तरह के मुद्दों पर निरंतर बहस होते रहना चाहिए।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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