शाहरुख खान की फिल्म पठान के गाने बेशर्म रंग को लेकर पूरे देश में हंगामा मचा है। कहा जा रहा है कि बेशर्म रंग गाने में दीपिका को भगवा रंग के कपड़े पहनाकर शाहरुख ने जानबूझकर हिंदुओं की भावनाओं का अपमान किया। विवाद सामने आने के बाद मैंने ये वीडियो देखा और पाया कि दीपिका ने इस वीडियो में आधा दर्जन रंग कपड़े पहने हैं। जिसमें भगवा रंग की साड़ी भी है। उस साड़ी में भी वो सिर्फ आखिरी के 20 सेकेंड में नज़र आती हैं और जब वो उन कपड़ों में आती हैं तब तक गाने के बोल भी ख़त्म हो चुके होते हैं। तो सवाल ये है कि जब इसमें इतने रंग के कपड़े पहने गए, तो विवाद भगवा कलर की साड़ी पर ही क्यों ? अगर बेशर्म रंग गाने में दीपिका को भगवा साड़ी पहनाकर शाहरुख भगवा का अपमान करना चाहते हैं, तो यही शाहरुख कुछ साल पहले ‘रंग दे तू मोहे गेरुआ’ गाना क्यों गा रहे थे? तब तो किसी ने नहीं कहा कि खुद को गेरूआ में रंगने की बात कर क्या शाहरुख किसी हिंदूवादी संगठन के प्रांतीय रक्षक दल के संयोजक बनना चाह रहे हैं। तब तो किसी ने नहीं कहा कि मुस्लिम शाहरुख खुद को गेरूआ में रंगवा के क्या ’घर वापसी’ की इच्छा ज़ाहिर कर रहे हैं?
हकीकत तो ये है कि न तब शाहरुख गेरुआमय होकर बीजेपी के टिकट पर पार्षद बनना चाह रहे थे, न आज बेशर्म रंग गाने में दीपिका को भगवा साड़ी पहना कर वो हिंदुओं के खिलाफ कोई अंतर्राष्ट्रीय साज़िश रच रहे हैं। फिल्मी गीतों पर बात करते हुए जावेद अख्तर ने एक दफा कहा था कि ये ज़रूरी नहीं किसी गाने में इस्तेमाल हर अल्फाज़ लोगों को समझ ही आए। कभी-कभी कोई शब्द सुनने में अच्छा लगता है, कोई मुहावरा काम करता है, तो हम उसको गाने में रख देते हैं। इसी बात में उन्होंने नुसरत साहब के लिए लिखे अपने गाने ‘आफरीन आफरीन’ का ज़िक्र किया और कहा कि बहुत से लोग हैं जिन्हें आफरीन का मतलब नहीं पता। लेकिन सिर्फ इस एक शब्द का मतलब पता न होने से उन्हें गाने का लुत्फ लेने में कोई परेशानी नहीं आती। सारी कोशिश इस बात की रहती है कि ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाए जो बहुत चबाए हुए न हों। बहुत इस्तेमाल न हुए हों। शब्दों में कुछ नयापन हो, थोड़ी ताज़गी हो। यही बात ‘गेरूआ’ और ‘बेशर्म रंग’ को लेकर भी है। कितने हिंदी गाने आपको याद आते हैं जहां ‘गेरुआ’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। मगर जब दिलवाले फिल्म के गाने में इस्तेमाल हुआ तो अच्छा लगा और लिखने वाले के ज़हन में भी ये बात रही होगी कि अच्छा लगेगा इसलिए उसने लिखा भी।
‘सावन के अंधे को हर तरफ हरा नज़र आता है’
यही बात अब ‘बेशर्म रंग’ के गढ़े मुहावरे को लेकर भी है। आज तक हमने बेशर्म इंसान सुने थे, बेशर्म सरकारें सुनीं थी मगर रंग भी बेशर्म हो सकते हैं ये नहीं सुना था। लिखते वक्त गीतकार कुमार को लगा होगा कि ये कैची फ्रेज़ है तो उन्होंने लिख दिया। उन्होंने लिखा और दीपिका ने उस गाने में पीले, पर्पल, गोल्डन और मल्टी क्लर की बिकनी पहनी और आखिरी में Saffron कलर की साड़ी भी। मगर जैसे सावन के अंधे को हर तरफ हरा नज़र आता है। उसी तरह तर्क के अंधों को भी हर जगह वही नज़र आया जो वो देखना चाहते थे। बाकी सारे रंग उन्होंने नज़रअंदाज़ कर दिए और 3 मिनट 13 सेकंड के गाने के आखिरी 20 सेकेंड में पहनी साड़ी उन्होंने पकड़ ली। इसमें कोई दो राय नहीं कि हर धर्म में कुछ रंगों की खास अहमियत होती है। मगर ये कौन सुनिश्चित करेगा कि अगर हमने एक बार किसी रंग को पवित्र मान लिया है, फिर उसका कैसा भी कलात्मक इस्तेमाल नहीं हो सकता? ये सेंसर बोर्ड तय करेगा या संस्कृति की बात करने वाला कोई भी समूह करने लगेगा। अगर ऐसा है, तो किसी भी फिल्म को बनाने के लिए कितने लोगों से परमिशन लेनी होगी?
जो ढोंगी साधु-संत भगवा पहनकर कुकर्मों में शामिल रहे, उनका क्या?
मैं कह रहा हूं कि फिल्म छोड़िए। फिल्मों के ऊपर तो वैसे भी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। उसे तो हर जगह क्रिएटिव फ्रीडम मिलती है मगर जो ढोंगी साधु-संत इसी भगवा को पहनकर हर तरह के कुकर्मों में शामिल रहें हैं, जिनकी लंबी-चौड़ी फेहरिस्त रही है, उनका क्या?कितने लोगों ने सड़क पर आकर कहा कि आप भगवा पहनकर ऐसा कुकर्म कर हमारे धर्म को बदनाम क्यों कर रहे हैं। एक गाने की पंक्ति में पवित्र रंग का कपड़ा आने से धर्म संकट में पड़ गया लेकिन उसी पवित्र रंग के कपड़े पहनकर लोगों ने क्या नहीं कर दिया और धर्म के ठेकेदारों ने चूं तक नहीं की? इनके खिलाफ आंदोलन करना तो दूर, दोषी साबित होने और जेल जाने के बावजूद ज़्यादातर के भक्त आज भी उन्हें निर्दोष मानते हैं और उनकी आस्था में कोई कमी नहीं आई।
‘भगवाधारी कई नेताओं के गाली गलौच करते के वीडियो भी वायरल हैं’
मठों या हिंदू संगठनों से जुड़े भगवाधारी जिन्होंने राजनीति में आने के बाद भी भगवा नहीं छोड़ा। उनसे किसी ने कहा कि जब तुम राजनीति जैसे ‘धंधे’ में आ गए हो तो ये संतों का लिबास छोड़कर नेताओं की तरह खाकी पहनो। न सिर्फ लोग भगवा पहनकर राजनीति कर रहे हैं बल्कि भगवाधारी कई नेताओं के गाली गलौच करते के वीडियो भी वायरल हैं। तब भी किसी ने उनसे नहीं पूछा कि अगर आपने ये पवित्र गेरूआ वस्त्र धारण किया है, तो अपनी भाषा या व्यवहार में संयत रहिए? इन वस्त्रों में ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर भगवा को अपमानित मत कीजिए। मतलब जिन लोगों के ऊपर इस भगवा की गरिमा बचाने की ज़िम्मेदारी है उन्हें तो सब माफ है और जो लोग रचनात्मक काम करने में लगे हैं उन्हें हम ज़रा भी संदेह का लाभ देने को तैयार नहीं। इन्हीं बातों से संदेह पैदा होता है कि बेशर्म रंग गाने के बहाने संस्कृति की रक्षा करने के बजाए कुछ लोग निजी खुन्नस निकालने में लगे हैं। और अगर वो निजी खुन्नस में ऐसा कर रहे हैं जैसाकि लगता है, तो दीपिका और शाहरुख से ज़्यादा तो हिंदू संस्कृति को ये लोग बदनाम कर रहे हैं। जहां वो नफरत का अपना हित साधने के लिए धर्म को टूल बना रहे हैं।
दूसरा विरोध इस गाने में पहने दीपिका के छोटे कपड़ों को लेकर जताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि जैसे कपड़े उन्होंने पहने हैं वो हमारी संस्कृति के खिलाफ हैं। ये सब बातें सुनकर भी मुझे हंसी आती है। मैं सोचता हूं कि जिस देश में आज आधा सोशल मीडिया कंटेंट क्लीवेज दिखाती लड़कियों के वीडियो से भरा हुआ हो। जहां छोटे कपड़ों में फोटोशूट करवा करवाकर ऊर्फी जावेद और पूनम पांडे जैसी स्टार बन गईं हों जिस देश की टॉप 10 वेबसाइट में 2 पोर्न साइट्स आती हों। जिस देश में हर दूसरे साल गूगल पर सालभर सर्च होने वाली हस्तियों में सनी लियोनी टॉप पर रहती हो, वहां कुछ लोग शिकायत कह रहे हैं दीपिका ने छोटे कपड़े क्यों पहनें! सुभानअल्लाह!
‘संस्कृति की रक्षा की सारी ज़िम्मेदारी दीपिका के नाज़ुक कंधों पर कैसे डाल दी’
मैं ये कतई नहीं कर रहा हूं जो लड़कियां छोटे कपड़े पहनकर वीडियो बना रही हैं वो गलत हैं। न ही मैं उन लोगों को गलत मानता हूं जो ऐसे वीडियो देखना पसंद करते हैं। बिल्कुल नहीं। मैं कौन होता हूं किसी को ये बताने वाला क्या देखना है, क्या नहीं। पर सवाल ज़रूर पूछा जाएगा कि ये सब करना अगर इन लड़कियों के लिए जायज़ है तो संस्कृति की रक्षा करने की सारी ज़िम्मेदारी दीपिका पादुकोण के नाज़ुक कंधों पर कैसे डाल दी गई। इंस्टा पर तो बिना किसी रेफरेंस के सिर्फ व्यूज़ लाने के लिए Soft Porn टाइप के वीडियो बनाकर बेझिझक Nudity बेची जा रही है मगर दीपिका तो एक फिल्म में, कहानी की डिमांड पर पूरी कलात्मकता के साथ ऐसा कर रही हैं। तो आप ही बताइए संस्कृति को नुकसान पहुंचाने का असली गुनहगार कौन है। दीपिका या क्लीवेज़ दिखाती व्यूज़ पिपासू कन्याएं?
‘फिल्मों की आड़ में इस देश में कई लोगों ने एजेंडा परोसा है’
इसमें कोई दो राय नहीं है कि फिल्मों की आड़ में इस देश में कई लोगों ने एजेंडा परोसा है, कई लोग इसी एजेंडे के तहत कई मुद्दों पर चुप भी रहे हैं। ऐसे लोगों को एक्सपोज़ किया जाना चाहिए। वो एक्सपोज़ हुए भी हैं। खुद मैंने भी किया है मगर इस लड़ाई का इतना सरलीकरण भी मत कीजिए। सुनी-सुनाई बातों पर इतनी जल्दबाज़ी मे नतीजों पर मत पहुंचिए। हो सकता है शाहरुख ने कुछ ऐसे राजनीतिक बयान दिए हों जिस पर उन्हें काउंटर किया जा सकता हो मगर इसका मतलब ये नहीं है कि उनके एक-आध बयान या किसी बात के लिए हम उनके पूरे के पूरे काम को ही खारिज कर दें। उन्हें बर्बाद करना अपना मिशन बना लें। उनके किए हर काम में साज़िश तलाश लें। मैं खुद उनके काम का, उनकी फिल्मों का बहुत बड़ा फैन नहीं हूं। लेकिन किसी का फैन न होना और उसकी शख्सियत को ही नकार देना या अपनी नफरत के लिए उसे बर्बाद करने के लिए बहाने तलाशना बिल्कुल ही अलग बात है।
‘शाहरुख ने आज से 20-25 साल पहले अपने बच्चों के हिंदू नाम रखे थे’
जो लोग सैफ के अपने बेटे का नाम तैमूर रखने से नाराज़ होते हैं। देश के मुसलमानों से ये शिकायत करते हैं कि आप भी हमारी संस्कृति का, हमारे ईश्वर का सम्मान कीजिए। वही लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि शाहरुख ने आज से 20-25 साल पहले अपने बच्चों के हिंदू नाम रखे थे। जिस वक्त लोग टीवी से लेकर सिनेमा तक मुस्लिम शासकों के महिमामंडन से जुड़ा कंटेट भरा हुआ था उन्होंने आज से 25 साल पहले ‘अशोका’ जैसी फिल्म बनाई थी। पठान फिल्म के कामयाबी की दुआ के लिए उमरा करने सऊदी अरब जाते हैं, तो वही शाहरुख माथा टेकने वैष्णो देवी भी जाते हैं।
यही शाहरुख जो 90 और उसके बाद के दशक के सबसे बड़ा सुपरस्टार रहे हैं। अपनी फिल्मों के ज़रिए उन्होंने न जाने कितने लोगों के बचपन और जवानी को खुश गंवार बनाया है। आज भी वो अमेरिका और यूरोप में एशिया का सबसे चर्चित चेहरा हैं। अगर हम इन तमाम बातों को दरकिनार कर कुछ साल पहले उनके दिए किसी एक बयान को पकड़ कर बैठ जाएं और ज़ि्द करने लगें कि यही बयान शाहरुख खान है और मैं ये बयान देने वाले शाहरुख को ख़त्म करना चाहता हूं, तो सच में आप दया के पात्र हैं। खलील जिब्रान ने कहा था जिस पात्र में ज़हर भरा होता है वो ज़हर सबसे पहले उसी पात्र को ही खा जाता है जिसमें वो रखा जाता। आप अपनी नफरत छोड़कर ही खुद को बचा सकते हैं, शाहरुख को तो खैर उनका काम बचा ही लेगा।