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सियासत में ऐतिहासक शब्द का प्रयोग?

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शशिकांत गुप्ते

जब भी सियासत में किसी सफलता को ऐतिहासिक विशेषण से विभूषित किया जाता है तो आश्चर्य होता है। पिछले एक दशक से सियासत में ऐतिहासक शब्द का प्रयोग बहुत हो रहा है।
सन 2011 में एक आंदोलन हुआ था।
ये आंदोलन भ्रष्ट्राचार के विरुध्द में था। आंदोलन की सफलता को देखकर तो ऐसा लग रहा था कि, अपने देश में भ्रष्ट्राचार समूल नष्ठ हो जाएगा। यह व्यवहारिक प्रश्न इसलिये उपस्थित होता है,कारण इस आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार आंदोलन की सफलता के बाद अज्ञातवास में चला गया?
भ्रष्ट्राचार तो नष्ठ हुआ या नहीं यह साहस के साथ कहना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन है। लेकिन इस आंदोलन के गर्भ से सियासत में झाड़ू नामक सफाई उपकरण का उदय हुआ और दूसरी ओर यह आंदोलन कमल के फूल को खिलने में मददगार साबित हुआ।
उक्त दोनों ही उपलब्धियों को ऐतिहासिक कहा गया।
आश्चर्य तो तब हुआ उक्त दोनों ही उपलब्धियों ने सत्तर वर्ष के इतिहास पर सिर्फ सवाल ही उपस्थित नहीं किया बल्कि सत्तर वर्ष के इतिहास को शून्य कहने में कोई संकोच नहीं किया।
ऐतिहासिक शब्द के साथ एक और ऐतिहासिक शब्द सियासत में जोरशोर से गूंजने लगा, वह शब्द है Party with different
मतलब अन्य दलों से हटके पार्टी।
लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में अलग पहचाना का दावा करने वालें दलों के आंतरिक लोकतंत्र पर सवाल सहज ही उपस्थित होता है?
बुनियादी सवाल तो यह है कि लोकतंत्र में चुनाव जीतना कतई महत्वपूर्ण नहीं है। चुनाव जीतने के बाद किए गए वादे यथार्थ में पूर्ण करना चाहिए ना कि, सिर्फ विज्ञापनों में दर्शाना चाहिए?
किसी भी सत्ता के द्वारा प्रकाशित या प्रसारित किए जाने वाले विज्ञापनों का भुगतान कौन करता है, और जो भुगतान होता है,वह किसके जेब से होता है?
यह अहम सवाल ही उपस्थित होता है?
पिछले एक दशक से सियासत सिर्फ और सिर्फ चुनाव में सफलता पाने तक सीमित हो गई है।
बढ़ती आर्थिक विषमता, बेतहाशा बढ़ती महंगाई, दिन-ब-दिन बढ़ती बेरोजगारी, कुपोषण से पीड़ितों की बढ़ती तादाद, भुखमरी में देश की स्थिति की गणना तीसरी दुनियां के देशों की कतार में भी नीचें के पायदान पर जाना आदि बुनियादी सवालों को दर किनार किया जा रहा है।
मुफ्त में रेवड़ियां बांटने पर आरोपप्रत्यारोप लगाना कौनसी जन सेवा है? क्या सांप्रदायिक मुद्दे पर उठे सवाल से बचना पार्टी विथ डिफरेंट है?
भावनात्मक मुद्दों पर प्राप्त जीत व्यक्ति में गुरुर आ जाता है। और इतिहास गवाह है जिसने भी किया है गुरुर उसका हश्र क्या हुआ है।
अभिमान में तीनों गए धन,वैभव और वंश
यकीन हो तो देख लो,रावण,कौरव और कंस
गुरुर ना रखने के लिए निम्न शेर आगाह करता है।
चलो न सर को उठा कर ग़ुरूर से अपना
गिरा है जो भी बुलंदी से ढाल तक पहुँचा

-शायर ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र
बहुत बार शोहरत सयोंग से मिल जाती है। ऐसी शोहरत का नतीजा क्या होता है। यह शायर बशीर बद्र अपने शेर के माध्यम से समझाते हैं।
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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