पवन कुमार, ज्योतिषाचार्य
वास्तु मंगलकारी (शुभदा) हो तथा अमंगलहारी (अशुभ) हो। इसलिये कहते हैं- “मंगल भवन अमंगल हारी।”
भवन निर्माण की इकाई ईंट है। ईट में तल तथा तीन दिशाएँ होती हैं। ये तीनों दिशाएँ परस्पर लम्ब होती हैं। प्रत्येक ठोस पदार्थ इन तीन दिशाओं से बना वा इन तीन दिशाओं में फैला है।
इन ईट में बनने वाली चार दीवारों में छत युक्त जो निर्माण होता है, वह भी ईट सदरा तीन दिशाओं एवं छः चौरस तलों से युक्त खोखला या गहरा होता है।
प्रत्येक ईंट त्र्यम्बक स्वरूप है तो प्रत्येक कक्ष त्रिविक्रम प्रत्येक ईंट पडर है तो प्रत्येक प्रकोष्ठ मुख । ईंट निर्माण की ईकाई है तो भवन निर्मित आयतन। ईंट न्यून है तो आवास बृहद् ईंट के ६ तल पर है।
वास्तु के क्षेत्र षण्मुख हैं। किरण है गृहकार्य है कर्ता कौन है? विश्वकर्मा ब्रह्मा विधाता शिल्प वास्तुकार ।
ब्रह्माण्डीयष्टि में जो ईट लगती है ग्रह प्रकृति है। प्रकृति के तीन गुण इस प्राकृतिक ईंट के तीन दि है। राम हो तीन आकृतिक दिशाएँ हैं। गुणों का युगल विस्तार ६ तल (क्षेत्र)हैं।
१-सत्-रज।
२-रज-तम।
३-तम्-सत्।
४-रज्-सत्।
५-तम-रज।
६-सत्-तम्।
तीन से छ: की उत्पत्ति होती है। ३×२=६ ।यह सृष्टि का सूत्र है। हम सीधे खड़े होकर देखें तो सामने बायें तथा दायें देख पाते हैं। ऊपर नीचे पोछे नहीं देख सकते हम ये व्यावहारिक तीन दिशाएँ है। प्रत्येक मनुष्य वा आणी सम्पर्क शिव है।
यही विक्रम विष्णु है। यही सृष्टि का रहस्य है। प्रत्येक पर विष्णुरूप है। प्रत्येक अमन शिवमूर्ति है। ऐसा जो जानता वा देखता है, यह बह्मज्ञानी है। हमारे पूर्वज अपिता थे। उन्होंने सत्य को देखा और उसे मन्त्रों के माध्यम से कहा हम उनके अत्यन्त आभारी है। आप दृष्टि में वास्तु चैतन्यदेव है।
अखिल विश्व था और हर एवं मुखात्मक है। स्त्री-पुरुष नपुंसक प्राणी पर है। आगे-पीछे दायें-बायें, ऊपर-नीचे को मुष्टिः पन्मुख है। मूलप्रकृति इसकी रचयित्री ब्रह्मा है। सचक्र हो। ब्रह्माण्डीय रचना है। यह आदि वास्तु है। यह अंत और सत्य पर आधारित है।
इसकी गतिशील व्यवस्था को त कहते हैं। इसका होना मात्र ही सत्य है। पुरुष (चेतनतत्व) ने इसे महण किया है। इसलिये यह उसका गृह (पुरा है। हमने जीव रूप से इस शरीर को ग्रहण किया है। इसलिये यह जीवन का गृह (निवास) है। हम शरीर धारी लोगों ने ईंट, पत्थर, लोहा, लक्कड़ से जो आश्रय बनाया है, वह हमारा गुड (निलय) है। ऋषियों ने गूढ को महिमा का गान किया है।
गृहोपनिषद् :
१. गृहानैमि मनसा मोदमान ऊर्ज विद् वः सुमति सुमेधाः।
अघोरेण चक्षुषा मित्रियेण गृहाणां पश्यन्पय उत्तरामि॥
गृहान ऐमि (इ गतौ प्राप्तौ च +लङ् = घरों को हम लोगों ने प्राप्त कर लिया, घरों में हमने प्रवेश किया।
मोदमानः मनसा =असन्न मन से, आहलाद पूर्वक।
ऊर्जः विभ्रद्= शक्ति धारण करते हुए, अन्न सम्पन्न होकर।
वः= आवास, निवास, कल्याण कर।
सुमतिः सुमेधाः= श्रेष्ठमति एवं प्रखर मेधा वाला होकर।
अघोरेण मित्रियेण चक्षुषा =सौम्य एवं सखा दृष्टि से।
गृहाणां पश्यन् = गृहों को देखता (मण करता हुआ।
पयः उत् तरामि= इनमें जो निहित रस (आनन्द) है, उसका पान करता हुआ उत्तरता/पहुँचता / प्रवेश करता हूँ।
पयः (द्वि. एक.व.) = सरस सुखद घर को।
उत् तरामि =प्राप्त होता हूँ।
अर्थ… अन्न तथा कल्याणकारी सुमति सुमेधा से युक्त प्रसन्न मन से हम लोगों ने अपने-अपने घरों को प्राप्त कर लिया। अर्थात् हम गृहवान हो गये। सौम्य मैत्रीपूर्ण दृष्टि से मैं इन सब घरों को देखता हुआ घर में रहने के सुख को पा रहा हूँ।
स्व गृह में प्रवेश कर उसमें रहने, धर्म-कर्म करने का एक सुख है जो गृही को मिलता है। कल्याण कारी मति एवं श्रेष्ठ विचारों से ही घर में प्रवेश करना चाहिये। प्रसन्न मन से घर को अपनाना चाहिये। विषण्ण मन से घर में जाने से व्यक्ति सदैव दुखी रहता है। अन्य लोग जो अपने-अपने घरों में रह रहे है. उनके पड़ोसियों के प्रति सौम्य एवं मैत्री भाव होना चाहिये। यही मन्त्र का तात्पर्य है।
२. इमे गृहा भयो भुव ऊर्जस्थन्तः पयस्वन्तः।
पूर्णा वामस्य तिष्ठन्तस्ते नो जानन्तु जानतः॥
इमे गृहाः= ये सभी घर।
मयः भुवः= सुख देने वाले हैं।
ऊर्जस्वन्तः= धन धान्य से परिपूर्ण है।
पयस्वन्तः रस (दूध दही भी इक्षुका) से युक्त हैं।
पूर्णाः वामस्य = श्रेष्ठ परिवार (माणि समुदाय) से पूर्ण।
तिष्ठतः= रहते हुए विद्यमानः।
जानतः = जानते हुए।
ते=वे।
नः = मह्यम् । हमारे लिये।
जानन्तु = जानें।(ऊर्ज अन्न नाम-निरुक्तं)
परिवार जनों से पूर्ण रस और अन्न से युक्त सुखद विद्यमान ये सभी घर हमारे लिये विज्ञातः हो तथा उन के लिये हम विज्ञान हो। अर्थात् हमारे तथा हमारे घरों के बीच घनिष्ठता होवे। गृही, पर को पुष्ट करे तथा घर, गृही की रक्षा करे यही जानतः जानन्तु का भाव है।
जब गृही अपने घर को स्वच्छ शुद्ध अदूषित रखेगा, हवनादि शुभ कर्मों का सम्पादन करेगा तो उस पर का वास्तु देवता उस गृही को भी पुष्ट करेगा स्वस्थ एवं शान्त रखेगा। ऐसे में गृही उस घर को छोड़ेगा नहीं, बेचेगा नहीं। पारस्परिक घनिष्ठता होने से दोनों की आयु बढ़ती है।
३. सूनृतावन्तः सुभगा इरावन्तो हसामुदाः। अध्या अतृष्यासो गृहा मास्मद् बिभीतन।।
सु उ नृतावन्त: =शिष्ट मधुर एवं सत्य सम्भाषण से युक्त।
सु भगः = सब तरह के सौभाग्य से युक्त।
इरावन्तः = चर्व्य चोष्य खाद्य पेय इन चार प्रकार के अन्नों से युक्त (इरा अन्ननाम निघण्टु)।
हसरा-आमुदाः = हँसी और सब प्रकार के आमोद-प्रमोद से युक्त, चहचहाता हुआ।
अक्षुचध्या =क्षुधा से हीन जहाँ कोई भूखा न हो, तृप्त।
अतृष्या = प्यास से होन, वहाँ कोई प्यासा न हो. तुष्ट।
अस्मद् गृहः = ऐसे हमारे घर है (अस्मद् अस्मभ्यम्)।
बिभतन मा आसः = इनमें किसी प्रकार के भय का स्थान न हो, ये अभय प्रद हो।
जिस पर में लोग सत्य एवं प्रिय सम्भाषण करें, जिस घर में अन्न की प्रचुरता हो, जहाँ सभी सौभाग्यपूर्ण जीवन जिये, जहाँ सभी जन आमोद प्रमोद से युक्त होकर हंसी ठिठोली करें, जहाँ कोई भूखा न रहे तथा न कोई प्यासा (लालचयुक्त) रहे, जहाँ किसी प्रकार का किसी के लिये भय न हो ऐसे पर हमारे हों।
४- येषामध्येति प्रवसन् येषु सौमनसो बहुः।
गृहानुपद्धयाम यान् ते नो जानन्त्वायतः।।
येषाम् मध्य इति प्रवसन्= जिसमें निरन्तर रहते हुए। जिन के मध्य में निवास करते हुए।
येषु सौमनसः बहुः= जिनमें बहुत उल्लास पूर्वक रहा।
यान् गृहान् उप ह्वयाम = जिन गृहों को हम सम्मान देते।
ते नः जानन्तु आयतः= वे हमारे ऊपर निर्भर करने वाले पर हमें जानें हमारे सुहृद हों।
(आ+ यत् यतते +क्विप् + जस्= आयतः। अथवा आ+यत्+क्त+सु=आयतः ।प्रयत्नशील, मर्यादित।
जिन घरों में हम अब तक रहते रहे हैं, जिन घरों में हमारे लिये अत्यधिक सदाशयता रही है. जिन घरों को हम सम्मान देते आये हैं, वे मर्यादित तथा हमारे हित के लिये प्रपलशील, हमें जानने वाले हो हमारे धनिष्ठ हो- हम उनसे विलग न हो।
प्रयास में रहता हुआ व्यक्ति अपने कौटुम्बिक जन्मस्थानीय घर का स्मरण करता है। अपने उस घर के लिये बहुत आदर होता है। यह सुन लौट कर उस पर में आगे के लिये भावविह्वल रहता है।